सोमवार, 2 सितंबर 2019

ईश्वर के न होने की दशा मे एक प्राक्कलन

ईश्वर के न होने की दशा मे  एक प्राक्कलन 


सृष्टि निर्माण मे ईश्वर का पद रिक्त हो गया हैं ।(संदर्भ  स्टीफ़न हाकिंग) गुणधर्म से संचालित इस सृष्टि मे अब तक के विकास क्रम मे तो ईश्वर का भी सृजन और विकास  हो जाना चाहिए था । ईश्वर के न रहने पर किसी प्रलय या विनाश के बाद फिर नई जीवन-सृष्टि के लिए प्रकृति को ंसंयोगो  और भटकावो पर ही निर्भर रहना पडेगा । ईश्वर होता तो उसकी पूर्वस्मृति  से काम चल जाता और जीवन की नई व्युत्पत्ति का क्रम भी सुनिश्चित रहता  । सवाल केवल आस्था-अनास्था का नही है । सृष्टि की बेहतर संभाव्यता को सुनिश्चित करने के लिए किसी कर्ता का होना सिद्धान्ततः अधिक  गुणवत्तापूर्ण होंगा । इस खूबसूरत दुनिया को बनाए और बचाए रखने के लिए वास्तव मे किसी ईश्वर (चेतन स्मृति और नवसृजन के लिए विचार की सामर्थ्य का प्राकृतिक केन्द्र) को सिद्धान्ततः  होना चाहिए था । सृष्टि ने मनुष्य की सर्जना कर अपनी सर्जन कला और क्षमता का सर्वोत्तम प्रदर्शित भी किया है । लेकिन सच तो यह है कि उसके साथ सबसे बुरा व्यवहार उस स्वतंत्रता के दुरुपयोग से ही हो रहा है जो उसने मनुष्य जाति को उदारतापूर्वक दी है ।
     बहुत पहले मैने लिखा था कि जब तक मरेगी नही मृत्यु तब तक मरेगा नहीं ईश्वर ।  प्रकृति ने अपनी सृजन शक्ति तो प्रमाणित कर दी है लेकिन यह संयोग आधारित है  तो इस बात की कोई गारंटी नहीं होगी कि विनाश के बाद जब फिर ब्रहमांड की वापसी हो तो  जीवन का होना भी  लौट आए । लेकिन यदि वह सायास और सुचिंतित है तो एक बार फिर जीवन की व्युत्पत्ति सुनिश्चित हो सकती है ।  जैसा कि पश्चिमी धार्मिक विश्वास है- किसी बाह्य चेतन शक्ति के हस्तक्षेप के बिना वाली सृष्टि अनन्त काल तक  सजीव  सृष्टि की प्रतीक्षा कर सकती है ।
               निश्चिंत ही इस तरह के चिन्तन एकान्त में चलते हैं  जो देश-काल के अनुसार प्रचलन मे नहीं होते । एक बार बन चुकाने के बाद h2o  यानि जल यौगिक रूप मे  वाष्प, तरल और ठोस तीनो अवस्थाओं मे अस्तित्वमान रहता है । तापमान बढने पर अदृश्य भी हो जाता है  ।  यदि जीवों को नश्वर मान लिया जाय तब भी उनके भौतिक जैविक संयोजन की संरचनात्मक या गणितीय अमरता (जीन कोड) के रूप मे बनी रहेगी । यदि जल बनने के बाद वैज्ञानिक ढंग से हाइड्रोजन और आक्सीजन के अणुओं मे विभाजित किए जाने तक जल की अमरता बनी रह सकती है तो सृष्टि की मृत्यु(प्रलय ) के बाद भी किसी न किसी बीज-रूप में  जीवन का कोई सूक्ष्मतम प्रारूप बचा रहना चाहिए । चाहे वह विद्युतीय आवेश के रूप मे ही क्यों न हों । वैज्ञानिक नीहारिकाओं के लडने-भिडने ,सूर्य के चुक जाने बुझने एवं धरती के अन्त की भविष्यवाणी करते रहते है । मन मे आता है कि वाष्प की तरह जीवन के भी अदृश्य रूप मे बचे रहने की व्यवस्था यानि वैज्ञानिक संभावना है कि नहीं  । पदार्थों और ऊर्जा के गुणधर्म की संभाव्यता के आधार पर तो समान परिस्थितियों में जीवन फिर बन जाएगा लेकिन डायनासोरो से लेकर मनुष्य जाति को रचने वाली इस प्रकृति मे निर्माण की क़ोई स्मृति-व्यवस्था भी है या नहीं  यह प्रश्न-विचार मेरे मन मे उठता है। सामान्य भाषा मे जिसे प्रेत या पितर योनि कहते हैं । प्रलय काल मे ऐसा अस्तित्व ही जीवन की बारम्बारता सुनिश्चित कर सकता है । अभी तो उनका होना हत्यारों को डराने के भी काम नहीं आ रहा । लेकिन इन नेपथ्य की संभावनाओ के आधार पर ही मुझे तो प्रकृति की पूर्णता यानि सामर्थ्य की पूर्णता पर पूरा विश्वास है। चीजें एवं संभावनाएं मनुष्य के जानने न जानने से स्वतंत्र हैं । आदिवासी जैसा मानते है जैविक विद्युत के गुणधर्म और अस्तित्व की संभावनाओ मे यह सामर्थ्य मुझे दिखती है कि  वह प्रलय काल मे भी जैविक सृष्टि की स्मृति को बीज-रूप मे बचाए रखे । लेकिन डरता हूँ कि यह लोक विश्वास कहीं अवधारणा मात्र न हो । मुझे तो अवधारणा से बाहर सच्चाई के धरातल पर जैविक सृष्टि की सुरक्षा के लिए जीवन मे प्रेत के रूप मे बचे रहने की वैज्ञानिक संभाव्यता भी चाहिए ।मुझे इसलिए यह संभावनापूर्ण लगता है कि आकाशीय विद्युत या तड़ित धनात्मक आवेश वाले बादलों से ऋणात्मक आवेश वाले बादलों तक आकर ही समाप्त नहीं  हो जाती बल्कि धरती के गर्भ मे समाने तक आवेश रूप मे बनी रहती है । कई बार तो कई लोगों को मारते हुए जाती है । यदि भौतिक विद्युत  तड़ित मे ऐसा गुणधर्म है तो  जैविक विद्युत मे भी आवेश रूप मे देर तक बने रहने का गुण हो सकता है । संभव है यह आवेश बीज की तरह ही परमाणुओ को नई सृष्टि के समय पुनरसंयोजन के लिए प्रेरित कर सके ।  फिलहाल  मै सहमत हूँ कि यह प्रकृति पूर्ण है और स्वयं ही ईश्वर के आस-पास है । अलग से ईश्वर के होने या न होने की अवधारणा से कोई फर्क नहीं पड़ता  ।