ईश्वर की अवधारणा
आदमी का दिमाग सभ्यता के प्रारम्भिक काल मे किसी शिशु की तरह सोचता था । ईश्वर की अवधारणा भी सम्पूर्ण प्रकृति को मनुष्य के समान ही सजीव मानने की अवधारणा की उपज है । यह प्रकृति का आत्मवत प्रत्यक्षीकरण है । भारतीय आध्यात्मिक विश्वास और दर्शन मे इसी चेतना और बोध का विस्तार है । दूसरी दृष्टि पश्चिम की है जो प्रकृति को आत्मवत मनाने के स्थान पर सृष्टि के निर्माण में अन्तर्निहित जटिलता पर रीझी और ऊसकी आश्चर्यजनक सृजनशीलता के लिए सर्जक अंर कर्ता के पद पर ईश्वर को प्रतिष्ठित किया । ईश्वर के साथ पश्चिम के पूर्वजों ने सृष्टि के प्रतिकूल और नकारात्मक अनुभवों के लिए भी प्रकृति का मानवीकरण किया और उसे शैतान के रूप में देखा । सृष्टि के प्रत्यक्षीकरण की इस भिन्नता ने दो प्रकार की संस्कृति और सभ्यता को जन्म दिया । अपने एकल ईश्वर के अनुरूप भारतीयों का ईश्वर भी जहाँ उदार, कृपालु और सज्जन रहा वहीं ईश्वर और शैतान के सांझे अस्तित्व के दोहरे मानवीकरण के कारण पश्चिम ने चतुराई की द्वन्द्वात्मक श्रेष्ठता और संघर्ष की परिकल्पना वाली राजनीतिक व्यवस्था को अपने विकास का आधार बनाया ।
आधुनिक मशीनी सभ्यता ने 18वी से 20वी शताब्दी के बीच जेम्सवाट के इंजन आविष्कार के बाद जीवन को देखने की यान्त्रिक भौतिकवादी दृष्टि सौप दी । जीवन को भी एक यन्त्रवत सृष्टि मान ली गयी । वैसे इसके यन्त्र होने की जानकारी अनादिकाल से शेर-बाघ जैसे पशुओं को भी थी । वे इसे बन्द करना जानते थे -शिकार मे की जाने वाली हत्याओ के रूप मे ।शिकार और मांसाहार हमारे पुरखों ने ऐसे ही शिकारी पशुओं से सीखा होगा ।
वैज्ञानिकों द्वारा आर एन ए,डी एन ए की खोज के बाद जड जगत से जीवन जगत् के बीच का रिश्ता काफी कुछ समझ लिया गया हैं । जीवविजान का तो विकास हुआ लेकिन भौतिकवाद के पूर्वाग्रह सत्रहवीं शताब्दी वाले ही बने हुए हैं । जड़ समझीं जाने वाली प्रकृति भी परमाणुओ के भीतर इलेक्ट्रॉन के रूप में गतिशील है लेकिन जड़ प्रकृति को लेकर धारणा पहले वाली ही है । दूसरी ओर ऐन्द्रिक संयम वालीं नैतिकता के स्थान पर ऐन्द्रिक उन्मुक्तता को भौतिकवाद का पर्याय मान लिया गया है ।
कहने का तात्पर्य यह कि आधुनिक भौतिकवादी दृष्टि भी भटकाव का दूसरा छोर है जैसे पहले के लोग जड़ जगत् को भी सजीव मानते थे । पुरानी आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि को प्रकृति के मानवीकरण के रूप मे भी देखा जा सकता है । दिक्कत तब होती है जब कुछ लोग आर्थिक- भौतिक प्रतीक मुद्रा की काल्पनिकता और उसके मनोवैज्ञानिक अस्तित्व को लेकर कोई आपत्ति नहीं उठाते लेकिन सृष्टि की सजीविता पर आधारित प्रतीक ईश्वर को लेकर परेशान रहते हैं । जीवन और जगत को देखने का पुराना ढंग ही सही । मेरा मानना है कि आध्यात्मिक दृष्टि पूॅजी निर्माण युग के पूर्व की आदिम मानव जाति की विरासत है ।इसका बीच के शोषण में सहायक अनैतिक धार्मिक मूल्यों और वर्जनाओ के सामन्त युगीन विकास से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । आप उसे जरूरी पर्यावरण की तरह ही बचाकर रख सकते है । पशुपालकों को ही लीजिए ।वे अपने-अपने पशु से रिश्ता और भाषा दोनों ही विकसित कर लेते है । हम आत्मवाद को लेकर ही द्विधाग्रस्त रहते है जबकि वे वास्तविकता के स्तर पर जीते हैं । एक वृहत्तर प्रतीक के रूप मे ईश्वर पद की अर्थ एवं प्रयोग की संभावनाओ की भी पड़ताल की जानी चाहिए । चाहे वह अर्थ परिवर्तन के माध्यम से ही क्यों न हो !
मनुष्य और ईश्वर दोनों की मुक्ति का रास्ता भी विमर्श से होकर ही गुजरता है । किसी का भी सोचना उसमे सहायक हो सकता है । मेरा चिन्तन तो विकल्प की चिन्ता से प्रेरित है । किसी को जूता दिए बिना चप्पल फेंक देने का उपदेश देना उचित नहीं । एक और बात है जो शिक्षक पेशे से सम्बन्धित है । पाठ्यक्रम में होंने के कारण जिससे असहमत रहा हूँ, उसे भी पढाता रहा हूँ । मेरे फेसबुक मित्रों मे बहुत से हिन्दी शिक्षक है । उनके लिए इस तरह का विमर्श भी उपयोगी हो सकता है ।
आधुनिक मशीनी सभ्यता ने 18वी से 20वी शताब्दी के बीच जेम्सवाट के इंजन आविष्कार के बाद जीवन को देखने की यान्त्रिक भौतिकवादी दृष्टि सौप दी । जीवन को भी एक यन्त्रवत सृष्टि मान ली गयी । वैसे इसके यन्त्र होने की जानकारी अनादिकाल से शेर-बाघ जैसे पशुओं को भी थी । वे इसे बन्द करना जानते थे -शिकार मे की जाने वाली हत्याओ के रूप मे ।शिकार और मांसाहार हमारे पुरखों ने ऐसे ही शिकारी पशुओं से सीखा होगा ।
वैज्ञानिकों द्वारा आर एन ए,डी एन ए की खोज के बाद जड जगत से जीवन जगत् के बीच का रिश्ता काफी कुछ समझ लिया गया हैं । जीवविजान का तो विकास हुआ लेकिन भौतिकवाद के पूर्वाग्रह सत्रहवीं शताब्दी वाले ही बने हुए हैं । जड़ समझीं जाने वाली प्रकृति भी परमाणुओ के भीतर इलेक्ट्रॉन के रूप में गतिशील है लेकिन जड़ प्रकृति को लेकर धारणा पहले वाली ही है । दूसरी ओर ऐन्द्रिक संयम वालीं नैतिकता के स्थान पर ऐन्द्रिक उन्मुक्तता को भौतिकवाद का पर्याय मान लिया गया है ।
कहने का तात्पर्य यह कि आधुनिक भौतिकवादी दृष्टि भी भटकाव का दूसरा छोर है जैसे पहले के लोग जड़ जगत् को भी सजीव मानते थे । पुरानी आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि को प्रकृति के मानवीकरण के रूप मे भी देखा जा सकता है । दिक्कत तब होती है जब कुछ लोग आर्थिक- भौतिक प्रतीक मुद्रा की काल्पनिकता और उसके मनोवैज्ञानिक अस्तित्व को लेकर कोई आपत्ति नहीं उठाते लेकिन सृष्टि की सजीविता पर आधारित प्रतीक ईश्वर को लेकर परेशान रहते हैं । जीवन और जगत को देखने का पुराना ढंग ही सही । मेरा मानना है कि आध्यात्मिक दृष्टि पूॅजी निर्माण युग के पूर्व की आदिम मानव जाति की विरासत है ।इसका बीच के शोषण में सहायक अनैतिक धार्मिक मूल्यों और वर्जनाओ के सामन्त युगीन विकास से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । आप उसे जरूरी पर्यावरण की तरह ही बचाकर रख सकते है । पशुपालकों को ही लीजिए ।वे अपने-अपने पशु से रिश्ता और भाषा दोनों ही विकसित कर लेते है । हम आत्मवाद को लेकर ही द्विधाग्रस्त रहते है जबकि वे वास्तविकता के स्तर पर जीते हैं । एक वृहत्तर प्रतीक के रूप मे ईश्वर पद की अर्थ एवं प्रयोग की संभावनाओ की भी पड़ताल की जानी चाहिए । चाहे वह अर्थ परिवर्तन के माध्यम से ही क्यों न हो !
मनुष्य और ईश्वर दोनों की मुक्ति का रास्ता भी विमर्श से होकर ही गुजरता है । किसी का भी सोचना उसमे सहायक हो सकता है । मेरा चिन्तन तो विकल्प की चिन्ता से प्रेरित है । किसी को जूता दिए बिना चप्पल फेंक देने का उपदेश देना उचित नहीं । एक और बात है जो शिक्षक पेशे से सम्बन्धित है । पाठ्यक्रम में होंने के कारण जिससे असहमत रहा हूँ, उसे भी पढाता रहा हूँ । मेरे फेसबुक मित्रों मे बहुत से हिन्दी शिक्षक है । उनके लिए इस तरह का विमर्श भी उपयोगी हो सकता है ।