रविवार, 7 जून 2020

फुकुयामा

किसी देश काल परिस्थिति और परम्परा यानि मानवीय चिन्तन सरणि जिसे प्रायः स्कूल कहा जाता है -की उपज विचारधाराएं और उनके विचारक किसी मानव निर्मित चक्रव्यूह की तरह होते हैं । उनके वास्तविक स्वरूप को उचित दूरी से ही समझा जा सकता है । किसी विचारक को समझने के लिए उसकी नाभि यानी निर्मित के कारकों एवं कारणों की खोज करनी होगी । फुकुयामा की वैचारिक निर्मिति को समझने के लिए पहले अमेरिका को समझना होगा । इतिहास का अन्त तो तभी हो जाता है जब रेड इंडियनो को मारकर और अपनी-अपनी राष्ट्रीयताओं को पीछे छोड़ने वाले पूर्वजों के प्रवास से निर्मित जिसके प्रवास मे पूरा योरोप और अफ्रीका महाद्वीप समाहित है । जार्ज वाशिंगटन से लेकर अब्राहम लिंकन के पहले तक पागलपन की हद तक अपनी श्रेष्ठता एवं अतीत को जीने का संघर्ष । यहाँ अमेरिका के सामने एक रास्ता भारत बनने यानि जाति एवं नस्ल को बनाए रखने का था । यदि भारतीय अधिक मात्रा मे बस गए होते तो अमेरिका दूसरा भारत ही बन जाता लेकिन आधुनिकता ने उसे भारतीय जाति प्रथा की ओर जाने नहीं दिया । उसने जातियों नस्लों के महासंलयन और अतीत की विस्मृति का रास्ता चुना । फुकुयामा का इतिहास का अन्त इसी ऐतिहासिक अचेतन का दार्शनिकीकरण मात्र है । फुकुयामा जिस अमेरिकी उदार पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को आदर्श मानकर उस पर रीझते है, उस अमेरिका के विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यही थी ।
एक सीमा तक इसी स्मृति और विस्मृति का द्वन्द्व आप मॉरीशस मे भी देख सकते हैं । ऐसे ही प्रवृत्यात्मक अतीत ने नायपॉल को भी रूढिबद्ध एशियाई सभ्यताओं को समझने की सही-सही दृष्टि दी । जैसा मैने बताया कि योरोपीय एकल राष्ट्रवादी इतिहास या विरासत बहुराष्ट्रीयताओं के सम्मिलन से निर्मित अमेरिका के नए राष्ट्र और नयी राष्ट्रीयता के लिए पूरी तरह अर्थहीन और अप्रासंगिक हो चुके थे । अमेरिकी इतिहास के अपने इस पर्यवेक्षण को ही मै फुकुयामा को समझने की कुंजी मानता हूँ ।
अमेरिका जब-जब भी योरोपीय नस्लीय राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित करने का प्रयास करेगा उसे आधुनिकतावादी समाधान की अपनी ही ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि से संघर्ष करना पडेगा और अपनी निर्मिति के स्वभाव को भूलकर प्रतिगामी बनेगा ।