महाभारत में गुरु द्रोणाचार्य द्वारा अपने अनौपचारिक शिष्य एकलव्य से गुरूदक्षिणा के रूप में उसका अगूठा मांग लेने का प्रसंग आता है ! इस प्रकरण मे एकलव्य के पास कोई वर्ग-स्वार्थ नहीं है कि वह और उसका समुदाय हस्तिनापुर की सत्ता को चुनौती देने मे दिलचस्पी रखे । उसकी धनुर्विद्या सिर्फ़ अपनी उदरपूर्ति और पशुओं के शिकार तक ही सीमित रहने वाली थी । ऐसे मे उसके आत्मकेन्द्रित समुदाय से द्रोणाचार्य या अर्जुन किसी को भी कोई खतरा नहीं था । फिर यह शरारती एवं भेदभावपूर्ण क्षेपक किसलिए महाभारत मे उपस्थित किया गया होगा-यह मेरी समझ मे नहीं आता । यह सिर्फ और सिर्फ दक्षिणा-संस्कृति का ही महिमामंडन अवश्य करता है ।
देखा जाय तो आज भी तो शस्त्र संचालन का लाइसेंस सरकार सभी को नहीं देती । धनुष भी भांति-भांति के बनाए और पाए जाते रहे हैं ।धनुर्विद्या में धनुष बनाने की प्रविधि भी शामिल रही होगी । आदिवासियों का धनुष बांस या काष्ठ विशेष का होता था लेकिन मध्य एशिया और चीन के तीर-धनुष अलग और जटिल विधि से निर्मित होते थे । ऐसे में सत्ता कुछ उन्नत तकनीकों को जनजातीय कबीलों से छुपाना भी चाहती रही होगी । तकनीक आदिवासी कबीलों मे न फैल जाए इसलिए मुझे तो लगता है छुपकर धनुर्विद्या सीखने वाले एकलव्य का अगूठा द्रोणाचार्य ने ही उसे पकडवाकर कटवा दिया होंगा ।
इस प्रसंग को केवल ज्ञान के पक्षपात का मामला नहीं माना जा सकता । तत्कालीन सत्ता की दृष्टि में कानून-व्यवस्था और शांति बनाए रखने का भी रहा होगा । राजस्थान में ही तीर-धनुष वाली आक्रामक भील जनजाति के होने के बावजूद संसाधनो एवं कृषि-भूमि पर कब्जा कर क्षत्रिय जाति अपना राजतंत्र चलाती रही तो उसके पीछे उनका जातीय संगठन और श्रेष्ठ हथियार की तकनीक दोनो ही जिम्मेदार रही होगी ।
एक और बात समझ मे आती है । जनजातियां आसान दिनचर्या वाली और आजीविका की दृष्टि से जंगल केन्द्रित प्रकृति पर आश्रित रही हैं । उनमें पूॅजीनिर्माण की संस्कृति नहीं मिलती । वे संसाधनों पर स्थायी और संगठित रूप में कब्जा करने पर विश्वास नहीं करती हैं । उनकी अन्तर्मुखी और स्वायत्त किस्म की उपस्थिति से मुख्यधारा के राजतंत्र और सत्ता को कभी कोई चुनौती उपस्थित नहीं हुई । जनजातियां बहुत छेड़े जाने पर ही आक्रामक होती थीं । ऐसे मे प्राचीन राजतंत्र ने उनके साथ सह अस्तित्व की नीति अपनाया । मुगलों और ब्रिटिश सत्ता ने भी प्रायः ऐसा ही किया ।