आस्तिकता और नास्तिकता
आस्तिक या नास्तिक होने के प्रश्न पर एक रोचक मनोवैज्ञानिक समस्या की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ । नास्तिक और नास्तिकता की सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि भाषिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर ईश्वर की अवधारणा को पहले ही स्वीकार कर लेता है । उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति आस्तिक होने पर ' ईश्वर है ' कहेगा तथा नास्तिक होने पर ' ईश्वर नहीं है ' कहेगा । दोनों ही स्थितियों मे 'है ' से उसका पीछा नहीं छूटेगा । उसका मस्तिष्क एक अनुत्पादक और काल्पनिक संघर्ष मे फंस जाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि आस्तिकता और नास्तिकता दोनो ही विचार हैं । विचारग्रस्तता यदि किसी निर्णय पर नहीं पहुँचाती तो संशय की मनःस्थिति को जन्म देती है । ईश्वर को मानने मे और न मानने मे ऊर्जा व्यर्थ करने से अच्छा है कि इस प्रश्न और विषय को छोड़कर हम स्वयं को ही जिएं । ईश्वर को होने की पुष्टि हो जाए तो फिर ईश्वर की सहमति और असहमति तथा अनिच्छाऔर इच्छा का प्रश्न शुरू होगा यह प्रश्न शुरू होगा कि ईश्वर हमारे पक्ष में है या विपक्ष में -यदि वह स्वतंत्र मस्तिष्क या चेतना है तो । यदि वह हमारी ही चेतना के हिस्से के रूप मे है तो उसके मानने या न मानने से कोई विशेष फर्क नहीं पडने वाला । बुद्ध इसी कारण ईश्वर के होने या न होने के प्रश्न को ज्ञानविलास ही मानते थे । अपनी भूमिका, सामर्थ्य और दायित्व को अनदेखा कर ईश्वर पर सोचना अपने पडोसी के बारे में सोचने के ही बराबर है । फिर एक बार ईश्वर की सर्वशक्तिमानता स्वीकार कर लेने के बाद हमारी अपेक्षाएं एवं प्रत्याशाएं बढ जाती हैं । हम अपने हिस्से का कार्य भी उसके हवाले करने लगते हैं । वास्तविक प्रकृति में हम विवेक और चेतना का विकेन्द्रीकरण देखते हैं जबकि आस्तिक ईश्वर के माध्यम से विवेक और चेतना के केन्द्रीयकरण की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं । जबकि वास्तविक प्रकृति मे हर परमाणु और जीवाणु -विषाणु की भी अपनी हैसियत है । हमारी काया के भीतर भी हमारी कोशिकाएं हमे संज्ञान मे लाए बिना ही अपने हिस्से का कार्य चुपचाप करती रहती हैं ।
बौद्ध धर्म एक अनीश्वरवादी धर्म था । अतीत का भारत इस नास्तिक धर्म को भी जी चुका है । सच्ची नास्तिकता वस्तुतः स्वावलम्बन की साधना है और ऐसा साधक तथाकथित परावलमबी आस्तिको से श्रेष्ठ होता है । यह स्वयं को भी आराम पहुंचाता है और ईश्वर को भी (होने की स्थिति में )!