सोमवार, 21 दिसंबर 2020

केदार नाथ सिंह की काव्य-यात्रा

                            रामप्रकाश कुशवाहा 
केदारनाथ नाथ सिंह विशुद्ध रूप से नेहरु युगीन हिन्दी कविता के उल्लास, उत्थान,गुणवत्ता  एवं बहुआयामी समृद्धि के कवि हैं । वे सार्थक एवं समानान्तर उपस्थिति के कवि हैं । नकारात्मक मनोवेगों और असामाजिक यथार्थ के प्रति एक संकल्पित किस्म की प्रतिरोधी चुप्पी भी उनके काव्यलोक की प्रकृति और स्वभाव रचती है । 'उत्तर-कबीर और अन्य कविताएं 'संग्रह मे संकलित 'लेखकों की समस्या पर सरकारी प्रतिनिधि का बयान ' कविता का सन्दर्भ दें तो  वे भलीभांति जानते थे कि हिन्दी कविता का पाठक वर्षों से फरार है । इस गुमशुदा पाठक की वापसी के लिए वे रचनात्मक चुनौती स्वीकार करने वाले कवि हैं  । उन्होने मुक्तिबोध और धूमिल की तरह आन्दोलनधर्मी और आवेशधर्मी कविताओं का रास्ता नहीं चुना   संगठनों और उनकी शर्तों को भी स्वीकार नहीं किया  । अधिक संभव यही है कि वे आश्वस्त रहे होंगे । प्रथम द्रष्टया मनोरम प्रतीत होने पर भी उनकी कविताओं का जल्दबाजी भरा पूर्ण सम्प्रेषणीय या अवगाहन वाला पाठ सम्भव नहीं  है   कुछ कविताओं को छोडकर वे लक्षणा और व्यंजना से नीचे आते ही नहीं  । यद्यपि उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय पंक्तियाँ अभिधा मे लिखी कविताओं की ही हैं  उदाहरण के लिए उनके 'जमीन पक रही है ' संकलन की 'फ़र्क नहीं पड़ता ' और 'हाथ' कविता को याद किया जा सकता हो -'पर सच तो यह है कि यहाँ/या कहीं  भी फ़र्क नहीं पड़ता/तुमने जहाँ लिखा है 'प्यार '/वहाॅ लिख दो 'सड़क '/ फ़र्क नहीं पड़ता/मेरे युग का मुहावरा है/फ़र्क नहीं पड़ता '(पृष्ठ 48) तथा 'उसका हाथ/अपने हाथ मे लेते हुए मैने सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए ।'(पृष्ठ 79) इसके साथ उनकी 'जाना कविता को भी याद किया जा सकता है-"मै जा रही हूँ-उसने कहा/जाओ-मैने उत्तर दिया/यह जानते हुए कि जाना/हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है ।"(पृष्ठ 80) केदारनाथ सिंह ऐसी अनेक सूक्तियो के कवि हैं ।
      अपनी कलात्मक सौन्दर्यप्रियता के बावजूद केदारनाथ सिंह की कविताएं अपने कवि के बहुआयामी सरोकारों का पता देती हैं ।वे अनुभूति एवं विषय-वैविध्य के कवि हैं । उन्होने ने शैली के स्तर पर तो नहीं लेकिन विषय के स्तर पर हिन्दी कविता की एकरसता को तोड़ा है । उनकी कविताओं में व्यापक एवं बहुस्तरीय विमर्श सांकेतिक पूर्वदृष्टियों के रूप मे दर्ज हैं ।
           वस्तुतः केदारनाथ सिंह अचेतन और त्वरित (आशु)अभिव्यक्ति के कवि नहीं हैं, बल्कि दीर्घकालिक सचेतन चिन्तन के बाद की गई कलात्मक अभिव्यक्ति के कवि हैं  । उनकी अधिकांश कविताएं जीवन के किसी प्रसंगवृत्त मे जन्म लेती हैं  अपने पूरे परिवेश, आस्था और जिज्ञासा के साथ रचनाये होता है उनका कवि । प्रायः प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं के साथ उनके कवि को ठिठके हुआ देखा जा सकता है  । अपने अतीत के सार्थक और अविस्मरणीय को भी अपनी कविताओं में वे प्रायः विरल उपस्थितियों एवं संश्लिष्ट बोध के साथ दर्ज करते चलते हैं  ।
         केदारनाथ सिंह तीसरा सप्तक के कवि हैं । अज्ञेय द्वारा 1966 मे प्रकाशित तीसरा सप्तक के कवियों मे सम्मिलित किए जाने से पहले केदारनाथ सिंह का पहला काव्य-संग्रह ' अभी, बिल्कुल अभी' (1960) प्रकाशित हो चुका था । इसलिए उनके कवि की निर्मित  को समझने के लिए यह संकलन महत्वपूर्ण है ।
तीसरा सप्तक की अनागत, नए पर्व के प्रति, कमरे का दानव,दीपदान,दिग्विजय का अश्व, बादल ओ ! तथा 'निराकार की पुकार ' आदि कविताएं उनके पहले काव्य-संग्रह 'अभी बिल्कुल अभी ' में भी है । इन कविताओं के अध्ययन से पता चलता है कि आम धारणा से अलग केदारनाथ सिंह मात्र बिम्बों के कवि नहीं हैं । यदि यह कहा जाय कि अपनी प्रारम्भिक यात्रा मे उनका महत्वाकांक्षी और युवा कवि अपनी कविताओं के शिल्प और स्वरूप को लेकर उनका किया गया आत्मसंघर्ष अपने समय तक हिन्दी-कविता के समस्त प्रयोगों और ध्रुवान्तों को लेकर किया गया है । उनका काव्य सौष्ठव और कविताओं में मिलने वाली मितभाषिता अज्ञेय को आदर्श बनाने की सूचना देती है तो उनकी कविताओं की आत्मा मे लोक के प्रति प्रेम, सम्मान तथा उसके जिए गए क्षणों की स्मृतियाँ और आख्यान छिपे हैं ।
       केदारनाथ नाथ सिंह की कई कविताएं अज्ञेय की काव्य-भाषा की याद दिलाती हैं ।फ़र्क बस इतना ही है कि अज्ञेय की कविताओं का पारगमन ।'आंगन के पार द्वारा और ' देहरी को बाहर से घर के भीतर देखने की है तो केदारनाथ सिंह आंगन के भीतर से आंगन के पार द्वारे स्थित लोक के द्रष्टा हैं  ।
       कहने का तात्पर्य यह है कि कवि केदारनाथ सिंह की लोकोन्मुखता ही उन्हें दूसरा अज्ञेय बन जाने से रोकती है । संवेदना और कथ्य के धरातल पर केदारनाथ सिंह लोक के यायावर कवि हैं । वे लोकजीवी आस्वाद धर्मिता के कवि हैं । अज्ञेय के सागर-मुद्रा शब्द से उधार लेते हुए कहें तो कवि केदारनाथ सिंह लोकमुद्रा के कवि हैं  लेकिन अज्ञेय से अचेतन प्रतिस्पर्धा और होड़ उन्हे आभिजात्यवर्गीय काव्यभाषा से जोड़े भी रहता है ।
        'जो रोज दिखते हैं सड़क पर ' कविता जीवन के सामान्य अनुभव और दिनचर्या को भी एक  महत्वपूर्ण घटना के रूप मे देखे जाने का विनम्र आग्रह करती है- 
' कौन हैं ये लोग/जिनसे दूर-दूर तक/मेरा कोई रिश्ता नहीं/पर जिनके बिना/पृथ्वी पर हो जाऊंगाॅधी सबसे दरिद्र (उत्तर कबीर पृष्ठ 95)
आन्तरिक विस्थापन की स्मृतियाँ, संवेदनात्मक रिश्तों की पडताल एवं उनका विमर्शात्मक प्रत्यक्षीकरण केदारनाथ सिंह की अधिकांश रचनाओं का केन्द्रीय रचना-सूत्र है ।
    उनकी लोरी कविता के पाठ मे उनके कवि की रचना-प्रक्रिया का रहस्य खुलता है ।वे एक मूड,एक प्रसंग, एक संवेदनात्मक काव्य-वस्तु उठाते हैं और यथार्थ के ऊपर प्रत्याशित संभावनाओ के कल्पना-सृजित चकाचौंध से या धुन्ध मे छिपा देते हैं । प्रायः वे अनुभवों और विचार की श्रंखला प्रस्तुत करते हुए अपने पाठकों को काव्यात्मक साक्षात्कार के एक ऐसी यात्रा पर ले जाते हैं जिसे पर्यटन या भ्रमण न कहकर टहलना  कहना अधिक उचित होगा ।
         कवि केदारनाथ नाथ सिंह के यहाँ यथार्थ उनकी विशिष्ट रचना-प्रक्रिया और प्रविधि से रूपान्तरित होकर कविता मे उपस्थित होता है । उदाहरण के लिए ' लेखकों की समस्या पर सरकारी प्रतिनिधि का बयान शीर्षक कविता  को ही लें ध्यानाकर्षण और व्यंग्य होते हुए  भी यह कविता कवि की विशिष्ट कथन-भंगिमा यानि अन्दाज़ का पूरी तरह निर्वाह करती है ।
       उनकी 'बॅटवारा' और 'हस्ताक्षर ' जैसी कविताएं उनके स्वयं के कवि को समझने का प्रयास करती हैं । ' हस्ताक्षर ' मे कवि कहता है कि 'बालू पर हवा के/असंख्य हस्ताक्षर थे/और उन्हें  देखकर हैरान था मै/कि मेरा हस्ताक्षर/ हवा के हस्ताक्षर से/कितना मिलता है !' बंटवारा कविता मे  वे अपने भीतर के सामान्य मनुष्य और संवेदनशील आत्म वाले स्रष्टा कवि को सहोदर घोषित करते हैं ।
        कि गूँजहीन शब्दों के इस घने अन्धकार में /मैं-/ अर्थ-परिवर्तन की /एक अबूझ प्रक्रिया हूँ "........जड़ें रोशनी में हैं /रोशनी गंध में ,/गंध विचारों में /विचार स्मृतियों में /स्मृतियाँ रंगों में "- अभी,बिलकुल अभी "संकलन की पहली ही कविता के पीछे एक सुचिंतित और गंभीर भाषा-विमर्श और ज्ञान उपस्थित है . दरअसल वास्तविकता यह है कि केदारनाथ सिंह की कविताएँ अनेक विषयों और अनुभूतियों पर संवेदनात्मक विमर्श से बनी हैं . वे घटित-संवेदित होने के क्षण-विशेष के गतिशील चित्र हैं .मनोविज्ञान की शब्दावली में इन्हें प्रत्यक्षीकरण का प्रयास और काव्यालोचना में काव्य-बिम्ब की सर्जना का प्रयास कहा जा सकता है .बाल-सुलभ एवं रहस्यात्मक उत्प्रेक्षण कवि केदारनाथ सिंह की सर्वाधिक प्रिय रचना-पद्धति है . वे घटनाविहीन समय में घटनाओं की आशंका और संभावना के चितेरे कवि हैं . 
           केदारनाथ सिंह कि कविताओं के प्रकाशंन क्रम को देखें तो १९६० में प्रकाशित "अभी,बिल्कुल अभी और अज्ञेय द्वारा सम्पादित "तीसरा सप्तक" के बाद ,"जमीन पक रही है "(१९८०)"अकाल में सारस (१९८८),"उत्तर-कबीर और अन्य कविताएँ "(१९९५),"बाघ"(१९९६),तालस्ताय और साईकिल "(२००५)'"सृष्टि पर पहरा "२०१४)और "मतदान केंद्र पर झपकी "(२०१८) का क्रम बनता है। इन कविताओं में बहुत-सी कविताएँ ऐसी हैं जो सिर्फ कवि-कर्म से सम्बंधित हैं  या यह कह सकते हैं कि उनकी काव्य-दृष्टि का आख्यान हैं। इसके अतिरिक्त "मेरे समय के शब्द (१९९३ ) और कब्रिस्तान में पंचायत "(२००३)  उनकी उच्चस्तरीय आलोचकीय क्षमता की परिचायक गद्य यानि विचार कृतियाँ हैं।  आधुनिक हिंदी कविता में बिम्ब-विधान " जो उनके  शोध-प्रबंध के रूप में लिखा गया था तथा "कल्पना और छायावाद "भी इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि ये उनकी काव्य-दृष्टि को आधारभूत संस्कार देते हैं। 
           केदारनाथ सिंह का आरंभिक कवि अभिव्यक्ति की नवीनता और मौलिकता का अन्वेषी है। तीसरा सप्तक की  " वसंत गीत "कविता में कवि अपने सृजन की संभावनाओं की  घोषणा करता है -
          " यह कैसा उल्लास ,/ यह कैसी हाथों में सिर्जन की बेचैनी ,/टूटन-टूटन में रचने कि नयी-नयी-सी प्यास ,"( पृष्ठ १३२ ) "शारद प्रात " और "कुहरा उठा " कविता में वह नई बिम्ब-सर्जना करने वाली प्रतिभा का प्रमाण प्रस्तुत करता है। "दूर-दूर से-/हलके-हलके धनों के रुमाल हिलाये /बांसों में सीटियाँ बजाए /गलियारों में हाँक लगाए "(पृष्ठ १३६ ). "कुहरा उठा " कविता की निम्न पंक्तियाँ  अभिव्यक्ति कि नवीनता का प्रतिमान प्रस्तुत कराती हैं -"उठे पेड़,घर-दरवाजे,कुआं /खुलती भूलों का रंग गहरा उठा /शाखों पर जमे धुप के फाहे,/गिरते पत्तों से पल ऊब गए  हाँक दी खुलेपन ने फिर मुझको /दहरों के डाक कहीं डूब गए "(तीसरा सप्तक ,पृष्ठ १३७)तीसरा सप्तक में ही प्रकाशित अपनी 'नयी ईंट ' कविता में  कवि में  भावी  सर्जना की श्रेष्ठता का आत्मविश्वास देखा जा सकता है-"नयी ईंट रक्खूँगा /नए चाँद जोडूंगा ,/नया घर उठाऊंगा ,/नयी किरण रंग दूंगा ," लेकिन इसके साथ ही कवि परंपरा की पुनरावृत्ति के खतरे को लेकर भी चिंतित है -"पर इससे क्या होगा !जबकि साँझ उतारेगी,/कुहरा छितराएगा /उसी गड़ेरे की वंशी में फिर गाऊंगा !"(तीसरा सप्तक १४१)    "दीपदान" . कविता में  रवीन्द्रनाथ और छायावादी कवियों की भावभूमि को लोकदृष्टि का दार्शनिक आयाम तथ अज्ञेय कि सुगठित काव्यभाषा को लोकजीवन का संस्पर्श सौंपता है- "
             "एक दिया वहां जहाँ नयी-नयी दूबों नें कल्ले फोड़े हैं /एक दिया वहां जहाँ उस नन्हें गेंदे नें /अभी-अभी पहली ही पंखुड़ी बस खोली है ,एक दिया उस लौकी के नीचे /जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है। " दिग्विजयी का अश्व" और "निराकार की पुकार " दोनों ही कविताओं में काव्य-सिद्ध कवि का भावी प्रसिद्धि का आत्मविश्वास देखा जा सकता है -"एक नन्हा बीज मैं अज्ञात नवयुग का ,/आह कितना कुछ -सभी कुछ-न जाने क्या-क्या -समूचा विश्व होना चाहता हूँ !/भोर से पहले तुम्हारे द्वार -/तुम मुझे देखो न देखो -/कल उगूंगा मै !"(निराकार कि पुकार ,ती.स। १४९) इसके पहले दिग्विजय का अश्व में भी कवि कह चुकता है कि "तुम बराबर कहीं अगले मोड़ पर हो ,/और मैं चिल्ला रहा हूँ /आ रहा हूँ !आ रहा हूँ !/तुम जहाँ तक हो ,वहां तक /हाथ ये फैला रहा हूँ /आह ठहरो दिग्विजय के अश्व !"(पृष्ठ १४६)

जारी 

रामप्रकाश कुशवाहा