मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

साम्प्रदायिक घृणा का सांस्कृतिक अचेतन



साम्प्रदायिक घृणा का सांस्कृतिक अचेतन 


इस प्रश्न का ईमानदार उत्तर आप तभी पा सकते हैं, जब  धर्मों के पहले की मानवजाति की आप कल्पना कर सकें ।

संयोग से दोनों धर्मों के नेतृत्व में पुरोहितवंशी पृष्ठभूमि और मानसिकता छिपी है । मुहम्मद साहब स्वयं पुरोहित घराने से थे और उन्होंने इस्लाम के प्रवर्तन के समय जिन मूर्तियों को ध्वस्त किया था ,उनका परिवार ही उस मन्दिर का पुरोहित था । दूसरी ओर हिन्दू धर्म का नेतृत्व ब्राह्मण नाम की पुरोहित जाति करती है । पुरोहित व्यवस्था हर इन्सान और उसकी रूह को ईश्वर तक सीधे पहुंचने के अधिकार को प्रतिबन्धित करती है । इस्लाम में पुरोहित मानसिकता की अभिव्यक्ति-'मुहम्मद ही उसके रसूल हैं ' कथन से होती है । हिन्दू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक ब्राह्मणों के नियन्त्रण में है -ईश्वर तो है ही । इसका निहितार्थ यह हुआ कि मरने के बाद भी मुहम्मद साहब के बिना अल्लाह से कोई भी मुसलमान नहीं मिल सकता तथा कोई भी हिन्दू ब्राह्मणों के बिना ईश्वर तक पहुंचने का अधिकारी नही है । ये दोनो ही सामान्य मनुष्यों को दोयम दर्जे का सिद्ध करते हैं । मनुष्य को दो वर्गों मे विभाजित करते हैं -ईश्वर के प्रिय तथा ईश्वर से दूर के मनुष्यों में । स्पष्ट है कि परम्परागत धर्म अपनी अवधारणा मे ही भेदभावपूर्ण हैं ।

अब हम दोनों धर्मों के अनुयायियों मे व्याप्त परस्पर घृणा के मनोविज्ञान पर विचार करें । दोनों धर्मों का उद्भव स्थल प्राचीन काल की साधनहीनता को देखते हुए पर्याप्त दूर ही कहा जाएगा । भारत से बाहर मूर्ति पूजा वाला धर्म बुत यानी बुद्ध की मूर्तियों के रूप मे गया था । बुद्ध के लगभग पाॅच सौ वर्षों बाद ईसा मसीह और लगभग एक हजार वर्षों बाद मुहम्मद साहब आते हैं । सभी जानते हैं कि बौद्ध धर्म एक अनीश्वरवादी धर्म है । जीवन को दिव्य बनाने वाले बुद्ध के दर्शन को उनके जाने के हजार वर्षों बाद आयी तमाम विकृतियो के बाद सही-सही समझना संभव भी नहीं रहा होगा । हिन्दू धर्म के अन्य देवताओं की मूर्तियां जैसा कि इस्लाम के अनुयायी समझते हैं -ईश्वर की मूर्तियां नहीं होतीं । दिव्यता लोकोत्तर विशिष्टता कि पर्यायवाची होता है । हिन्दू धर्म के प्रायः सभी देवता अपना विशिष्ट चरित्र और आख्यान रखते हैं । सभी के चरित्र में कोई न कोई समाजोपयोगी आदर्श या प्रेरणादायी विशिष्टता होती है । अधिकांश देवता किसी न किसी पौराणिक आख्यान के चरित्र हैं । अवतारवाद को ही देखें तो वे ईश्वर के अंश एवं प्रतिनिधि ही माने जाते हैं-स्वयं ईश्वर नहीं । हिन्दू धर्म अनीश्वरवादी नहीं है । इस्लाम की काफिर वाली अवधारणा अनीश्वरवादी बौद्ध धर्म को लेकर बनी थी । हिन्दू धर्म मे वैष्णव मत पूरी तरह परोपकार का प्रचार करता है । हनुमान कि चरित्र भी प्रेरक और परोपकारी है । कहने का तात्पर्य यह है कि मुहम्मद साहब ने जिन्हें भी काफिर समझा होगा वह अनीश्वरवादी बौद्ध धर्म का हजार वर्षों बाद का विकृत स्वरूप रहा होगा । मध्यकाल मे जब इस्लाम के अनुयायियों का भारत पर आक्रमण हुआ तो उन्होने मूर्तिपूजा को बुतपरस्ती और सभी मूर्तिपूजको को काफिर मान लिया । यह वह घृणा है जो इस्लाम के अनुयायियों में हिन्दू धर्म के प्रति मिलती हैं । इस्लाम प्रेरित इस पूर्वाग्रह ने मूर्ति निर्माण जैसी महत्वपूर्ण सृजनात्मक कला को अभिशप्त कर दिया । मुसलमान मूर्ति निर्माण को ईश्वर का अपमान समझते हैं । उन्हें अपने अल्लाह को समझाना चाहिए कि जैसे अल्लाह या कुदरत ने सारी दुनिया बनायी वैसे ही यदि उसका बनाया इन्सान पत्थरों को तराश कर प्रतिमाएं गढता है तो वह भी तो अल्लाह द्वारा कुछ रचने की कला का अनुसरण या अनुकरण ही कर रहा है -फिर यह अपराध कैसे हुआ ?

मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं मे जो घृणा मिलती है -उसका एक कारण उनमें प्रचलित बलि- प्रथा और मांसाहार भी है । उल्लेखनीय है कि हिन्दुओं में बहुत सी जातियाँ मांसाहार नहीं करतीं । इनमें जैन , ब्राह्मण तथा बहुत सी अन्य किसान जातियां शामिल हैं । हमें ध्यान रखना चाहिए कि अरब और उसके निकटवर्ती अफ्रीका महाद्वीप मे शिकार आधारित जीवनयापन भी है । इस्लाम के अनुयायियों को सूअर को छोड़कर सभी जीवों का शिकार करने की छूट है जबकि कृषि प्रधान देश भारत में जन्मा सनातन धर्म कृषि मे सहायक बहुत से जीव-जन्तुओं को पवित्र और अबध्य मानता है । अन्त मे मै इस प्रश्न के सबसे जरूरी उत्तर को रखना चाहूॅगा । हिन्दू धर्म यज्ञ या हवन करने वाले और न करने वालों मे बंटा हुआ है । यज्ञ या हवन न करने वाली जातियों को ही शूद्र कहा जाता है । उच्च वर्ण के हिन्दुओं में शूद्र वर्ण के हिन्दुओं से एक सांस्कृतिक घृणा का अचेतन पहले से था । मुसलमान जब भारत में आए तो उच्च वर्ण के हिन्दुओं ने उन्हें शूद्रों से मिलते-जुलते एक नए धार्मिक समुदाय के रूप में देखा । कम से कम छुआ-छूत की नीति उच्च वर्ण के हिन्दुओं में शूद्रों और मुसलमानों के प्रति एक समान रही ।

हिन्दुओ के इस सामाजिक-सांस्कृतिक अचेतन का आधार प्पौराणिक काल की एक विशेष घटना से सम्बन्धित है । जब शिव की पहली पत्नी सती ने अपने पति को आमंत्रित न करने के कारण अपमानित होकर पिता दक्ष के यज्ञ कुण्ड में कूदकर आत्म-हत्या कर ली थी तो दक्ष के अनुयायियों और शिव के अनुयायियों के बीच एक भयानक दंगा हुआ । इस दंगे मे यज्ञ का विध्वंस तो हुआ ही, दक्ष सहित यज्ञकर्ता ॠषि- पुरोहित भी मारे गए । इस भयानक दंगे के बाद ही शिव को महादेव माना गया । यह सामूहिक रूप से तय हुआ कि मृत्यु के बाद अब से सती की भांति सभी अग्नि मे ही जलाए जाएंगे । ऐसे मे यज्ञ को शिव के अनुयायियों ने अपनी रानी सती के दाह एवं मृत्यु के कारण अपने लिए अशुभ एवं अपवित्र माना । यज्ञ या हवन आदि का बहिष्कार करने वाली यही जातियाँ कालान्तर में स्मृति लोप के कारण शूद्र मान ली गयीं । क्योकि ये यज्ञ कराने के लिए पुरोहितों को आमंत्रित नही करते थे इसलिए पुरोहित वर्ग इनके प्रति रोष और घृणा रखने लगे । मनुस्मृति के निर्माण के समय यानी पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में यज्ञ का बहिष्कार करने वाली जातियों को और बुद्ध के अनुयायियों को निम्न वर्ण शूद्र का मान लिया गया । इस्लाम की सत्ता स्थापित होने पर उन्हें भी शूद्रों के रूप में ही उच्च वर्ण के हिन्दुओं ने देखा । दोनों समुदायों की नासमझी और दंगों के ब्रिटिशकालीन उकसावे और भेदनीति तथा पाकिस्तान के निर्माण की ऐतिहासिक मांग ने मुसलमानों को भारत राष्ट्र के लिए खलनायक बना दिया है ।