जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
गुरुवार, 16 अप्रैल 2020
काशीनाथ सिंह का उपन्यास 'उपसंहार '
काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'उपसंहार 'को पढ़ते हुए मुझे लगातार नामवर सिंह याद आते रहे | मुझे लगता रहा कि काशीनाथ सिंह ने प्रसिद्धि की कीमत पर नामवर जी की गृह-कथा -अपने ही स्वजनों की असंतुष्टि और नाराजगी को कृष्ण कथा के माध्यम से आत्म -प्रक्षेपित किया है | हर सार्वजनिक व्यक्तित्व कहीं न कहीं पारिवारिक और निजी जीवन के मोर्चे पर हारता और स्वयं को घायल करता रहता है | 'उपसंहार' उपन्यास का सबसे कमजोर बिंदु यह है कि इसमें कुछ पौराणिक अंधविश्वासों का ज्यों का त्यों इश्तेमाल कर लिया गया है और सबसे ताकतवर पक्ष यही है कि इसमें कृष्ण के बहाने नामवर सिंह की प्रसिद्धि ,मनोदशा और नियति पर निवेश रूप में एक व्यंजनाधर्मी सूक्ष्म विश्वसनीय विमर्श उपस्थित है |दरअसल 'उपसंहार 'के कृष्ण (और वास्तविक जीवन में नामवर दोनों ही ) सामंती शैली की अभिजन श्रेष्ठता को जीते हैं और गणतंत्र /लोकतंत्र के बावजूद अपने समुदाय को अपने निर्णयों पर इतना आश्रित बनते जाते हैं कि अंत में लोगों को नालायक बनाता हुआ ईश्वरीय छवि में लिपटा व्यक्तिवाद बचता है | यह असम्वादी अभिजन व्यक्तिवाद ही कृष्ण का एकाकी अभिशप्त अकेलापन है (और हिन्दी साहित्य में संभवतः नामवर का भी ) इस उपन्यास में खुलकर तो नहीं लेकिन दबे सांकेतिक रूप में ब्राह्मणवादी छवि निर्माण पर रोचक टिप्पणियां उपलब्ध हैं | काशीनाथ सिंह के इस उपन्यास की इस दृष्टि से प्रशंसा की जानी चाहिए कि यह कृष्ण के लौकिक से लोकोत्तर बनने-बनाने की प्रक्रिया में कृष्ण के असमाजीकरण और अमानवीकरण का गंभीर एवं सजग चित्रण करते हैं | दुर्वासा द्वारा कृष्ण को नंगा होकर खीर पोतने का आदेश देना ऐसा ही ब्राह्मणीकरण करने वाला प्रसंग है ,जिसे कृष्ण व्यवस्था का अंग बन जाने के बाद निस्तेज भाव से किसी आज्ञाकारी शिशु की भांति स्वीकार करते हुए दिखाए गए हैं | कृष्ण के पूर्ववर्ती विद्रोही चरित्र को देखते हुए यह पौराणिक प्रसंग कूट रचित और प्रक्षेपित लगता है और इसका उद्देश्य वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण दुर्वासा को सामंती-अवतारी कृष्ण से भी सर्वोपरि सिद्ध करना रहा होगा | आखिर ईश्वर घोषित करने के पारिश्रमिक-पारितोषिक के रूप में इस प्रायोजक वर्ण-समूह को कुछ तो चाहिए ! आखिर ईश्वर बनाने और घोषित करने वाला वर्ण ईश्वर बनने वाले वर्ण से ऊपर और श्रेष्ठ होना ही चाहिए | कृष्ण यदि यहाँ विद्रोह कर देते या इनकार कर देते तो उनका ईश्वर पद छीन जाना तो तय ही था | फिर अवतारी कृष्ण को म्रत्यु जैसे घोर पार्थिव सत्य का भी सामना करना था | ब्राह्मण दुर्वासा द्वारा अमर बनाने वाली इस खीर के लेपन से कृष्ण का तलवा छूट जाता है और वहीँ से वे व्याघ्र द्वारा मार दिए जाते हैं | कोई चाहे तो दिव्य बनाने की इस इंजीनियरिंग को भी अपने विमर्श में शामिल कर सकता है |
-
अभिनव कदम - अंक २८ संपादक -जय प्रकाश धूमकेतु में प्रकाशित हिन्दी कविता में किसान-जीवन...
-
संवेद 54 जुलार्इ 2012 सम्पादक-किशन कालजयी .issn 2231.3885 Samved आज के समाजशास्त्रीय आलोचना के दौर में आत्मकथा की विधा आलोचकों...
-
पाखी के ज्ञानरंजन अंक सितम्बर 2012 में प्रकाशित ज्ञानरंजन की अधिकांश कहानियों के पाठकीय अनुभव की तुलना शाम को बाजार या पिफर किसी मे...