सोमवार, 19 नवंबर 2018

हंसता हुआ बाज़ार

समकालीन काव्यधारा के महत्वपूर्ण कवि आदरणीय रामप्रकाश कुशवाहा जी का सद्य प्रकाशित काव्य संग्रह ' हँसता हुआ बाज़ार' उत्तरआधुनिकता से उपजे बाज़ारवाद की स्थितियों के खतरे से आगाह ही नहीं करता वरन औपनिवेशिक मूल्यों की गहन पड़ताल भी करता है ।
वैचारिक और मनोवैज्ञानिक धरातल पर बेहद गंभीर रचनाओं को लेकर यह काव्य संग्रह आज की कविताओं से इतर हमें सोचने के लिए विवश करेंगी।
जल्द ही मेरी विस्तृत प्रतिक्रिया इस काव्य संग्रह पर आएगी ।
डॉ  शिव कुशवाहा शिव

मुक्तिबोध

मुक्तिबोध को लेकर आजकल फेसबुक पर चल रहे विवादित विमर्श मे मै थोडा हस्तक्षेप करना चाहूँगा। एकल जजमेन्ट भी एक घटना होती है, उसके बावजूद समाज उसे सही मानने या न मानने का अधिकार रखता है।  जैसे गोडसे द्वारा गांधी को गीली मारना एक व्यक्तिगत निर्णय या जजमेन्ट था । इसके बावजूद एक बड़ा समाज गांधी को पूरे सम्मान सहित जीवित रखे हुए है ।मुक्तिबोध एक बडे विचारक हैं।  वे क्रान्ति चाहते थे लेकिन उन्हे सत्ता द्वारा दण्डित किए जाने का भय भी था । उनकी  एक किताब प्रतिबन्धित भी शासन द्वारा की गयी थी ।उनकी सफलता इसमें है कि फैंटेसी शिल्प के प्रयोग और समाधान से उन्हे जो कहना था विपरीत सत्ता समय मे भी कह सके । अपने संप्रेष्य को व्यक्त करने के लिए  एक पहेलीनुमा दुर्बोध कविता संरचना का सहारा लेते है ।यह शिल्प उनकी जरूरत ,विवशता और सफलता है इसके लिए  उसकी निन्दा नही करनी चाहिए।
             मुक्तिबोध को पढना कविता के बीहड़ का रोमांच जीना है ।कबीर की तरह मुक्तिबोध का भी चिन्तक बडा है । वह हिन्दी कविता की एक भिन्न प्रारूप की संरचना के आविष्कारक कवि है। कोई कविता के अलग रास्ते से चलकर मुक्तिबोध से भी बडा कवि हो सकता है । वे क्रान्ति से सम्बन्धित  अपनी खतरनाक बातों को  सीधे सीधे कहने से बचना चाहते थे। इसीलिये उन्होनें फैंटेसी शैली मे कविताएँ लिखी। लेकिन उनके अपने काव्य सिद्धान्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हुए भी उनकी एकमात्र गपोड़ी और उबाने वाली पुनरुक्तिदोष की शिकार किताब "कामायनी : एक पुनविचार" है ।जिसमे वे जबरदस्ती अपनी अवधारणा को थोपते हुए से जयशंकर प्रसाद की प्रतिष्ठा को मटियामेट करने का प्रयास करते है। उल्लेखनीय है कि मिथक और फैण्टेसी मे अन्तर होता है । प्रसाद मनु के आख्यान को मिथकीय आख्यान के रूप मे लेते है जबकि मुक्तिबोध की आलोचना उसे आरम्भ से ही फैण्टेसी मानकर चलती है । प्रसाद की प्रवृत्ति क्या हुआ होगा  यानि इतिबोध के साथ भी आख्यान के उपयोग की थी जबकि फैण्टेसी कार अपनी सर्जना के लिए स्वतंत्र होता है और किसी की परवाह नही करता ।इस  पुस्तक मे अपने सिद्धांतों के प्रयोग के लिए असम्बद्ध होते हुए भी मुक्तिबोध ने प्रसाद को बलि का बकरा बनाने के लिए वकीलों से भी अधिक खींचतान की है । उन्ही के पदचिन्हों पर चलती हुई उनके विरूद्ध भी नयी पीढी के कुछ लोग उन्ही का अनुसरण करते दिख रहे है ।
            दरअसल  प्रसाद की कामायनी शुक्ल जी के मनोविकारों पर लिखे गए निबन्धो के समानान्तर है  ।मनु के माध्यम से वह वह द्वितीय विश्व युद्ध कालीन तानाशाह शासकों और सत्ता के चरित्र का क्रिटिक रचती  है । कामायनी का समकाल और वैश्विक क्षितिज 1917 का न था । द्वितीय विश्व युद्ध कालीन था । प्रसाद की चिन्ताओ से भिन्न निष्कर्ष मुक्तिबोध ने निकाले है । इस अन्तर्विरोध को देखते हुए ही उसे मै सैद्धांतिक किस्म की यूटोयियन समीक्षा मै मानता हूँ।  उस कृति का महत्व सिर्फ़ मुक्तिबोध के रचना संसार को समझने की दृष्टि से है , न कि प्रसाद  ।

हंसता हुआ बाज़ार

हँसता हुआ बाज़ार : समीक्षा के निकष पर
        
          आज सुबह सोकर जब उठा तो 'हँसता हुआ बाजार' सामने था। बाजारू व्यवस्था से उकताये, सहज और सरल रूप से साहित्य-साधना करने वाले चर्चित रचनाकार डॉ.रामप्रकाश कुशवाहा की बहुप्रतीक्षित कृति 'हँसता हुआ बाजार'।
         सोचता हूँ 'बाजार' किस पर हँस रहा है और क्यों हँस रहा है! अगले ही क्षण मन में विचार करता हूँ, कहीं हँसते हुए बाजार को देखकर, उसकी नकली हँसी को देखकर, उसमें हँसते नकली लोगों को देखकर रचनाकार तो नहीं हँस रहा है!
         याद आते हैं- 'लोकऋण', 'सोनामाटी' और 'नमामि ग्रामम्' जैसे प्रसिद्ध उपन्यासों के लेखक डॉ.विवेकी राय, जो लिखते हैं- दँवाई-कटाई के यंत्रों- थ्रेसर आदि की भड़भड़ाहट ने सीवान के स्थाई मनसायन को छीन लिया। कुछ देर के लिए लगता है कि यह तो विरोधाभासी बात हुई! कहाँ उसने सीवान के मनसायन को छीन लिया! आखिर वह भी तो भड़भड़ा रहा है! उस पर भी तो आदमी काम कर रहे हैं!
        फिर अचानक गाँव और गँवई संस्कृति, किसान संस्कृति याद आती है और तब गाँव का सन्दर्भ समझ में आता है कि विवेकी राय जी किस मनसायन के छिनने की बात कर रहे हैं। बन्द ए.सी. कमरों में बैठकर साहित्य-सृजन करने वालों को यह बात समझ में नहीं आयेगी।और सन्दर्भों को पकड़े बिना यंत्रों के भड़भड़ाहट की निस्सारता समझ में नहीं आयेगी।
         ठीक वैसे ही हँसते हुए बाजार की निर्जान और खोखली हँसी उन लोगों को समझ में नहीं आयेगी जो रिश्तों की खोज में बाजार में जाते हैं, जिनके लिए सारी संवेदनाएँ, सारी खुशी बाजार में ही उपलब्ध है। बड़े-बड़े शहरों के बड़े-बड़े मॉल (बिग बाजार) ने मनुष्य की जरूरतों को एक जगह उपलब्ध कराने का प्रयास तो किया है लेकिन उसी के साथ वह इस बात के लिए उन पर हँस भी रहा है कि इन विवेक-हीन और संवेदन-हीन मनुष्यों को कौन समझाये कि मैंने (बाजार ने) लोगों के आपसी सम्बन्ध, सामाजिक सहकार और भाईचारे को भी उनसे हमेशा-हमेशा के लिए छीन लिया है।
        आज सब कुछ की मण्डी लग रही है। बाजार लग रहा है। जहाँ सामान ही नहीं बिक रहे हैं, अपितु सब कुछ बिक रहा है। नेता बिक रहा है। शिक्षा बिक रही है। शिक्षक बिक रहा है। न्याय बिक रहा है। पुलिस बिक रही है। कानून बिक रहा है। डॉक्टर बिक रहा है। मंत्री बिक रहा है। सरकार बिक रही है। ईमान बिक रहा है। प्यार बिक रहा है। देह बिक रही है। सम्बन्ध बिक रहे हैं। संवेदनाएँ बिक रही हैं। आँसू बिक रहे हैं। व्यवस्था बिक रही है। लेखक बिक रहा है। प्रकाशक बिक रहा है। देश बिक रहा है। लज्जा बिक रही है। आबरू बिक रहा है। बिकने की जैसे होड़ लगी है। बिकने के लिए तरह-तरह का विज्ञापन हो रहा है।
          'बाज़ार में उत्सव' शीर्षक कविता में कवि कहता है-
'बाज़ार खुले को बन्द में बेच रहा है
और बन्द को खुले में
कम को अधिक में बेच रहा है
और अधिक को कम में
बाज़ार वह सब बेच रहा है
जो बेचा जा सकता है
बाज़ार से लोग वह सब खरीद रहे हैं
जो बिक सकता है बाज़ार में.....।'
           और अब तो बाज़ार में ईश्वर भी बिकने लगा है। रचनकार के शब्दों में- 'ईश्वर सापेक्ष होता है बाज़ार में..... बाज़ार का / वह खोने वाली जेब के लिए अशुभ / और दूसरों के खोये हुए को पाने वाली जेब के लिए / शुभ होता है।' ऐसे में बाजार खड़ा निर्लज्ज भाव से खरीद-फरोख्त कर रहे लोगों पर अट्टहास करता है। मानो ऐसा करते हुए वह संकेत कर रहा है कि यदि अब भी तुम नहीं सँभले तो तुम्हारी यह बाजारू-वृत्ति एक दिन तुम्हें लील जायेगी। सभ्यता और संस्कृति के इस डँड़मेर में संस्कृति एक दिन पूरी तरह विनष्ट हो जायेगी।    
        शायद इस खतरे को चौदहवीं शताब्दी में ही कबीर ने भाँप लिया था, जिससे उन्हें कहना पड़ा, 'कबिरा खड़ा बाजार में, माँगे सबकी खैर।' सबकी खैर की चिन्ता ने कबीर के हाथ में लुकाठी (लुआठी) तक पकड़ा दिया, बाजारवादी व्यवस्था को खत्म करने के लिए। जिसने अपने घर को जलाने के बाद इस पूरी भ्रष्ट व्यवस्था को जलाने का संकल्प लेकर लोगों को अपने साथ चलने का आह्वान किया और इतने पर भी जब लोगों को समझ में नहीं आया तो मोहभंग की स्थिति में लिखा- 'पूरा किया बिसाहुँणा, बहुरि न आवौं हट्ट।' तुलसी जैसे मर्यादावादी कवि को लिखना पड़ा -'अब लौं नसानी, अब न नसैहों/ राम कृपा भव निसा सिरानी, जागे पुनि न डसैहों।'
         लेकिन कहाँ फर्क पड़ा किसी पर! सन्त-महात्मा आते गये, जाते गये, कहते गये, लिखते गये और लोग अपने हिसाब से अर्थ लगाते गये, समझते गये और बाजार की व्यवस्था में बाजारू होते गये। ईमान, धर्म, मूल्य, इज्ज़त किसी की भी चिन्ता नहीं रही, ऐसे में बाजार तो हँसेगा ही।
          उसकी इस क्रूर हँसी पर, अट्टहास पर मानव और जीवन मूल्यों के पोषक रचनाकार का चिन्तित होना स्वाभाविक ही है। बाजार की इस खोखली हँसी से पीड़ित-व्यथित रचनकार के संवेदनशील मन से ठीक उसी तरह ये कविताएँ फूट पड़ी हैं, जैसे कभी क्रौंच पक्षी के बध के समय आदि कवि के मुख से पहला श्लोक फूट पड़ा था। इस बाजारू व्यवस्था से कवि पूरी तरह उकताया हुआ है, पुस्तक में संकलित कविताओं को पढ़ने के बाद यह बात दावे के साथ कही जा सकती है।
           कवि के शब्दों में कहें तो 'बाज़ार को मानवीय सृजनशीलता की अभिव्यक्ति और विनिमय का महामंच मानते हुए भी उसके दाँव-पेंच, घात-प्रतिघात तथा अर्थ की शिकारी वृत्ति में निहित संवेदनहीनता और क्रूरता के प्रति लोगों को सचेत करने की रचनात्मक चिन्ता का परिणाम है हँसता हुआ बाज़ार की कविताएँ। प्रसिद्ध आलोचक, समीक्षक एवं चिन्तक डॉ.पी.एन.सिंह जी इन कविताओं को थीम पोएट्री कहते हैं।
            बाज़ार की हर मुद्रा और व्यवहार का कवि के द्वारा सूक्ष्मता से किया गया निरीक्षण पाठक को निश्चित ही बाजारू व्यवस्था पर सोचने और चिन्तन करने के लिए मजबूर करता है। वह बाज़ार से गुजरता तो है, पर उसका खरीददार नहीं बनता। वह बाज़ार के उठने-गिरने और उस पर सरकार की सफाई तथा किसान, मजदूर, गरीब के मरने पर सरकार की चुप्पी से आहत है।
          पुस्तक के 'पहला पाठ' (बाज़ार से गुजरा हूँ ख़रीददार नहीं हूँ) शीर्षक के लेखक नलिन रंजन सिंह के शब्दों में कहें तो संग्रह की कविताएँ बाज़ार के सारे रंगों को, उसकी परिणति को, उसके हो-हल्ले को, उसकी ईश्वरीय आभा को, उसके विमर्श को सामने लाती हैं। यही कारण है कि संग्रह की छाछठ कविताओं में से सैंतालीस कविताओं के शीर्षक में ही बाज़ार है और शेष उन्नीस भी उसी की प्रतिकृति हैं। बाज़ार का यह सूक्ष्म पर्यवेक्षण उनकी 'आलोचकीय कविताओं' को जन्म देता है। ये कविताएँ नहीं, कवि के जीवनानुभव की 'मुकम्मल बयान' हैं। कवि स्पष्ट शब्दों में कहता है-

'बाज़ार में बच्चे जब सोच भी नहीं रहे होते हैं
हिन्दू या मुसलमान होने का मतलब
उन्हें हिन्दू या मुसलमान बना दिया जाता है।'

         बाज़ार की खोखली हँसी और झूठे प्रेम पर वह चेतावनी स्वरूप कहता है-

'बाज़ार में प्रेम एक शिकारी की भूमिका में होता है
जीतता रहता है एक-दूसरे को पूरी मौज में
बाज़ार में प्रेम ऊबता रहता है पुराने प्रेम से
और भटकता रहता है नये प्रेम की तलाश में।'

        लेकिन नये प्रेम की इस तलाश में उसे सर्वत्र निराशा ही हाथ लगती है, क्योंकि यहाँ अब प्रेम भी दिखावटी और नकली हो गया है। लगाव या प्यार भी पैसे के आधार पर कम या बेसी होने लगा है। भावनाएँ आहत हुई हैं और संवेदनाएँ चुकी हैं। रिश्तों की चूलें हिल उठी हैं। बकौल नलिन रंजन 'सेल्फी युग' में आत्ममुग्धता देह की तारीफ़ पर आ टिकी है। क्या स्त्री, क्या पुरुष, सभी बहुत जल्दी में हैं। उन्हें विपरीत देह बदलने में संकोच नहीं है। अब देह का मिलन ही प्रेम है। ......बाज़ार उसके लिए हर साल वैलेण्टाइन लेकर आता है, जहाँ विकल्प ही विकल्प है, प्रस्ताव ही प्रस्ताव हैं। प्रेम की पवित्रता बीते दिनों की बात है। वह अनदेखे-अनजाने से इनबॉक्स होते हुए व्हाट्सऐप के रास्ते मोबाइल पर है और सुख के अपने तरीके के 'पल' तलाश कर अपने-अपने शहर में व्यस्त है। ऐसा लगता है कि ऐसी ही स्थिति को देखकर घृणित भाव से प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी ने कभी कहा होगा-

"दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ,
बाज़ार से गुजरा हूँ खरीददार नहीं हूँ।"

       संग्रह की कविताओं में बाज़ार-दर्शन, हँसता हुआ बाज़ार, बाज़ार का अर्थशास्त्र, बाज़ार में बिकना, बाज़ार की मुद्रा, बाज़ार में इच्छाएँ, बाज़ार में ईश्वर, बाज़ार में घर, बाज़ार में ऊँट, लोकतंत्र और बाज़ार, बाज़ार में कवि, बाज़ार में आदतें, बाज़ार में नाक, बाज़ार में सही, बाज़ार में छायालोक, श्लील आकांक्षाएँ, बाज़ार में प्रेम, अस्तित्व का अर्थशास्त्र, बाज़ार में आदिमानव, जिधर लोग हैं, ज़हरखुरान, सड़क के शिकारी, बाज़ार का सूत्रधार, बाज़ार में महान, इच्छाएँ, बाज़ार और ईश्वर, बाज़ार में शिकारी, बाज़ार में खेल, भाषा-बाज़ार, बाज़ार में लड़की, बाज़ार में समय, बाज़ार में पशु-युग, कविता के बाज़ार में, समय और बाज़ार, अच्छे दिन और बाज़ार आदि कुछ ऐसी कविताएँ हैं, जो अपने को कई बार पढ़वाती हैं। सुखद आश्चर्य की बात यह है कि बाज़ार संज्ञक इतनी कविताओं के बावजूद पूरी पुस्तक में कहीं भी दुहराव नहीं है।
         पाठकीय आकर्षण से भरपूर इन कविताओं से कढ़ने वाला सन्देश पाठक को दूर तक और देर तक प्रभावित करता है। कहना असंगत नहीं होगा बाज़ार की चकाचौंध में दम घोंटती मानवता को बचाने और लोगों को सजग-सचेत कराने के लिए कृतसंकल्पित रचनाकार अपने उद्देश्यों में पूरी तरह सफल दिखता है। उम्मीद है कि 'हँसता हुआ बाज़ार' संज्ञक यह कृति पाठकों को पसन्द आयेगी, साथ ही साथ रचनाकार-व्यक्तित्व में चार चाँद लगायेगी।

डाॅ0  चन्द्र शेखर तिवारी

बुधवार, 14 नवंबर 2018

आत्म कथा

मैं जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र था तो सोवियत रूस मे मार्क्सवादी नौकरशाही  के असफल होने के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्र शेखर आजाद और भगतसिंह के अधूरे सपनों को पूरा करना चाहता था । इसी चक्कर मे देर तक शादी भी नहीं की एक बार देश सेवा के लिए विवेकानन्द की तरह घर छोड़ कर हमेशा के लिए निकल जाने की भी तैयारी कर ली धी ।(विवाह से पहले )। काफी मन्थन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि सन्यासी जीवन आम गृहस्थो के लिए सही आदर्श नहीं  हो सकता । 
        लोकतंत्र की संरचनात्मक संभावनाओं को भीतर से समझने के लिए प्रबन्ध तन्त्र द्वारा संचालित अत्यंत  चर्चित बडे महाविद्यालय कमला नेहरू भौतिक एवं सामाजिक  विज्ञान संस्थान, सुलतानपुर की नौकरी छोड़कर उतार प्रदेश की राजकीय उच्च शिक्षा सेवा में आया ।पहली नियुक्ति तत्कालीन अविभाजित उत्तर प्रदेश  यानि  उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद के भिकियासैण तहसील के अन्तर्गत स्यालदे घाटी स्थित राजकीय महाविद्यालय में हुई । वहाँ  समारोहक ,अनुशास्ता और राष्ट्रीय सेवा योजना के प्रभारी के रूप मे छात्रों के माध्यम से उस क्षेत्र में मैने जो महत्वपूर्ण कार्य कराए उसमें लगभग दस गावों को प्रभावित करने वाली, पहाड़ की चोटी पर गलत उंचाई पर लगाई गई 25000 गैलन की  पानी की टंकी को  इंजीनियर के निर्देशानुसार छात्रों के समूह द्वारा सही उंचाई पर उतरवाकर लगवाना, भूस्खलन  के  शिकार कई पहाड़ी गावो के सम्पर्क मार्ग की मरम्मत, पहाड़ काटकर स्कूल परिसरों का विस्तारीकरण जैसें महत्वपूर्ण कार्य कराकर विभाजन के उस दौर मे भी वहाँ की जनता से भी इतनी आत्मीयता और स्नेह प्राप्त कर चुका था कि बाद मे मैदानी संवर्ग मे होने के कारण मेरा जब शासन द्वारा युसुफपुर-मुहम्मदाबाद ,गाजीपुर के शहीद स्मारक राजकीय महाविद्यालय के लिए स्थानान्तरण हुआ तो वहाँ के स्थानीय नेताओं ने यह पता लगाने की असफल कोशिश की कि मेरा स्थानान्तरण रुकवाया जा सकता है क्या ?  मुझे  यह बताते हुए आनंद- स्मरण हो रहा है कि वहीं मुझे  एक अच्छे  समानधर्मी मित्र डाॅ सन्तोष मिश्र भी मिले जिन्होंने मेरी ही तरह रायबरेली के मैदानी क्षेत्र के होते हुए भी पहाड़ की जनता का काफी स्नेह और यश प्राप्त किया । समुद्र तल से 1300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित स्यालदे के महाविद्यालय मे मै एक नर्सरी और काफी लगवाएं गए पेड छोड़कर आया था ।  जनसेवा के अपने सक्रिय जीवन के कारण ही मैंने और मेरे माननीय अनुज सन्तोष मिश्र जी ने,जिनकी तैनाती आजकल हल्द्वानी में है, इतना स्नेह प्राप्त  तथा सार्थकता की अनुभूति देने वाला जीवन जिया है कि अब घरछोडुआ सन्यासी और क्रान्तिकारी न हो पाने का रंच मात्र भी मलाल नहीं रह गया है ।

( क्रमशः)

देवी

देवी

वह थकी हुई  है
शान्ति के लिए जा रही है
दुनिया के जंजालो से ऊब कर
विश्राम के लिए
पहाड़ के सबसे ऊंचे शिखर पर बसी
पत्थर की देवी के पास

अपनी स्वयं की रची हुई दुनिया
जिसे वह पीछे छोड आयी है
अब भी पुकार रही है उसे
किसी चुलबुले  बच्चे की तरह
बार- बार मचल कर घनघना रहा है
उसका मोबाइल फोन

क्या उसे पता होगा
कि सिरजनहार देवी की
वह  स्वयं भी है
एक साक्षात् प्रतिनिधि
जीवित प्रतिरूप !

रामप्रकाश कुशवाहा
17-10-2018

रविवार, 11 नवंबर 2018

कुत्ते

पूरा शहर बंट गया  है
कुत्तो की अलग-अलग टोलियों में
कुत्ते नहीं चाहते कि
उनके समूह मे कोई नया कुत्ता शामिल हो
वे हर नए आगन्तुक के विरुद्ध हैं
और टूट पड़ते हैं एक साथ
उसे अपनी सरहद से बाहर तक खदेड़ देने के लिए
सारा शहर बंटा गया है
कुत्तो की अलग-अलग टोलियों के नाम!

रामप्रकाश कुशवाहा
11/11/2018

हिन्दू

ऐसा धर्म कहाॅ मै पाऊँ
बिना शर्त  हिन्दू कहलाऊॅ
मन्दिर जाऊँ  या न जाऊँ
सुबह नहाऊॅ या न नहाऊॅ
पूजा करूँ  या ठर्रा  पीऊॅ
हॅसकर जिऊॅ  या घुटकर जीऊॅ
घूस भी लूं या घूस चढ़ाऊॅ
ऐसे धर्म पर बलि-बलि जाऊँ

गुरुवार, 8 नवंबर 2018

बौनापन

हम  धरती के घूमते विस्तार के सामने बौने हैं
हम पहाड़ के चरणों  मे
महसूस करते हैं
अपने अस्तित्व का बौनापन
हम समुद्र के दैत्याकार विस्तार
और उसकी हहकारती विशाल लहरों के आगे बौने हैं
हम अपनी प्रजाति के अनतहीन जीवित  विस्तार के आगे बौने हैं
हम अन्तरिक्ष की उन्मुक्त उन्नत उड़ान के आगे बौने हैं
अपनी सापेक्ष ऊंचाई के बावजूद  !

रामप्रकाश कुशवाहा
06/11/2018

धर्म और अधर्म

धर्म और अधर्म

सारी दिशाएं अपनी हैं
सारी धरती अपनी है
सारे लोग अपने हैं
और मै मनुष्य को
इतनी तरह से जीते हुए देखकर
आश्चर्य से भर गया हूँ

कितने रीतिरिवाजों
और कितनी प्रथाओं का सर्जक है आदमी
कितने शब्दों और कितने विश्वासों का रचनाकार!
कितने अन्धविश्वासों  और कितने झूठों का जीवनहार

और मै
उनके सारे कार्यों का अनुकरण करने मे समर्थ
मना किया गया कि क्या- क्या मुझे करना चाहिए
और क्या नहीं  !

इतनी शर्तो और
इतनी परतों में जी सकता है आदमी
जानने के बाद भी
वही-वही दुहराने की इच्छा
मेरी मर गयी है
ऊब गया हूँ मै
कर्मकाण्डो की दुरूहता
और बारम्बारता से

मै क्यो कुछ नया नहीं कर सकता ?
नहीं जी सकता नया 
और क्यो कुछ नया जीने की स्वतंत्रता
मुझे विधर्मी बना सकती है !
मै क्यों नहीं  बना सकता
सारी दुनिया की अच्छाइयों  का संग्रहालय  !
नहीं जी सकता अपनी समझ से चुना हुआ अच्छा
और क्यों- कोई तो मुझे बताए !

रामप्रकाश कुशवाहा
07/11/2018

मंगलवार, 6 नवंबर 2018

ईश्वर का मनोविज्ञान

भेड़ियों, कुत्तों ,बन्दरों और चींटियों की तरह मानव-प्रजाति का भी विकास  भयानक जंगलों की असुरक्षा मे हुआ है । अपने शिकारी प्रतिद्वंद्वियों के कारण समूह मे ही सुरक्षा थी । वह अपने साथियों के जागते रहने पर ही निर्भय होकर सो सकता है । इस सामूहिकता और सामाजिकता के लिए जैविक रूप से पूर्ण ईकाई होते हुए भी मानसिक  अपूर्णता- बोध जरूरी था । इसी तरह की अपूर्णता प्रजाति के लैंगिक विभाजन के कारण भी है। इस तरह कोई भी मनुष्य अकेले मे पूर्णता के लिए बना ही नहीं है । इस तरह सन्यासियों  का अहं ब्रह्मास्मि वाला अहंकार भी हमारे प्राकृतिक जी(व)न- स्वभाव के अनुरूप नहीं है । वैसे भी  तथाकथित सन्यासी सन्यासियों के समूह मे शामिल होकर पुनः छोड़ी गयी सामाजिकता को प्राप्त कर लेते हैं।  शैशवावस्था से पिता की स्मृतियाँ और अभिभावक अनुभव के अचेतन संस्कार को लेकर  हमारा ईश्वर भी प्रजाति से प्राप्त सांस्कृतिक विश्वास के रूप मे हमारे भीतर के इसी अधूरेपन को भरता है ।अधूरेपन के  इसी नेपथ्य मे सत्ता, व्यवस्था और समाज भी स्थित है । इसी अपूर्णता मे दूसरी का आवाहन, सम्मान, विनम्रता और उदारता की भावना का अस्तित्व और प्रवाह है । इस तरह ईश्वर की अवधारणा सिर्फ़ हमारी नैतिक-धार्मिक आस्था से ही नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक जरूरत से भी उपजी है । हमे अपने ईश्वर की अवधारणा को और परिष्कृत ,समझदार तथा निर्दोष बनाने की जरूरत है।
रामप्रकाश कुशवाहा
06/11/2018