सोमवार, 19 नवंबर 2018

मुक्तिबोध

मुक्तिबोध को लेकर आजकल फेसबुक पर चल रहे विवादित विमर्श मे मै थोडा हस्तक्षेप करना चाहूँगा। एकल जजमेन्ट भी एक घटना होती है, उसके बावजूद समाज उसे सही मानने या न मानने का अधिकार रखता है।  जैसे गोडसे द्वारा गांधी को गीली मारना एक व्यक्तिगत निर्णय या जजमेन्ट था । इसके बावजूद एक बड़ा समाज गांधी को पूरे सम्मान सहित जीवित रखे हुए है ।मुक्तिबोध एक बडे विचारक हैं।  वे क्रान्ति चाहते थे लेकिन उन्हे सत्ता द्वारा दण्डित किए जाने का भय भी था । उनकी  एक किताब प्रतिबन्धित भी शासन द्वारा की गयी थी ।उनकी सफलता इसमें है कि फैंटेसी शिल्प के प्रयोग और समाधान से उन्हे जो कहना था विपरीत सत्ता समय मे भी कह सके । अपने संप्रेष्य को व्यक्त करने के लिए  एक पहेलीनुमा दुर्बोध कविता संरचना का सहारा लेते है ।यह शिल्प उनकी जरूरत ,विवशता और सफलता है इसके लिए  उसकी निन्दा नही करनी चाहिए।
             मुक्तिबोध को पढना कविता के बीहड़ का रोमांच जीना है ।कबीर की तरह मुक्तिबोध का भी चिन्तक बडा है । वह हिन्दी कविता की एक भिन्न प्रारूप की संरचना के आविष्कारक कवि है। कोई कविता के अलग रास्ते से चलकर मुक्तिबोध से भी बडा कवि हो सकता है । वे क्रान्ति से सम्बन्धित  अपनी खतरनाक बातों को  सीधे सीधे कहने से बचना चाहते थे। इसीलिये उन्होनें फैंटेसी शैली मे कविताएँ लिखी। लेकिन उनके अपने काव्य सिद्धान्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हुए भी उनकी एकमात्र गपोड़ी और उबाने वाली पुनरुक्तिदोष की शिकार किताब "कामायनी : एक पुनविचार" है ।जिसमे वे जबरदस्ती अपनी अवधारणा को थोपते हुए से जयशंकर प्रसाद की प्रतिष्ठा को मटियामेट करने का प्रयास करते है। उल्लेखनीय है कि मिथक और फैण्टेसी मे अन्तर होता है । प्रसाद मनु के आख्यान को मिथकीय आख्यान के रूप मे लेते है जबकि मुक्तिबोध की आलोचना उसे आरम्भ से ही फैण्टेसी मानकर चलती है । प्रसाद की प्रवृत्ति क्या हुआ होगा  यानि इतिबोध के साथ भी आख्यान के उपयोग की थी जबकि फैण्टेसी कार अपनी सर्जना के लिए स्वतंत्र होता है और किसी की परवाह नही करता ।इस  पुस्तक मे अपने सिद्धांतों के प्रयोग के लिए असम्बद्ध होते हुए भी मुक्तिबोध ने प्रसाद को बलि का बकरा बनाने के लिए वकीलों से भी अधिक खींचतान की है । उन्ही के पदचिन्हों पर चलती हुई उनके विरूद्ध भी नयी पीढी के कुछ लोग उन्ही का अनुसरण करते दिख रहे है ।
            दरअसल  प्रसाद की कामायनी शुक्ल जी के मनोविकारों पर लिखे गए निबन्धो के समानान्तर है  ।मनु के माध्यम से वह वह द्वितीय विश्व युद्ध कालीन तानाशाह शासकों और सत्ता के चरित्र का क्रिटिक रचती  है । कामायनी का समकाल और वैश्विक क्षितिज 1917 का न था । द्वितीय विश्व युद्ध कालीन था । प्रसाद की चिन्ताओ से भिन्न निष्कर्ष मुक्तिबोध ने निकाले है । इस अन्तर्विरोध को देखते हुए ही उसे मै सैद्धांतिक किस्म की यूटोयियन समीक्षा मै मानता हूँ।  उस कृति का महत्व सिर्फ़ मुक्तिबोध के रचना संसार को समझने की दृष्टि से है , न कि प्रसाद  ।