भेड़ियों, कुत्तों ,बन्दरों और चींटियों की तरह मानव-प्रजाति का भी विकास भयानक जंगलों की असुरक्षा मे हुआ है । अपने शिकारी प्रतिद्वंद्वियों के कारण समूह मे ही सुरक्षा थी । वह अपने साथियों के जागते रहने पर ही निर्भय होकर सो सकता है । इस सामूहिकता और सामाजिकता के लिए जैविक रूप से पूर्ण ईकाई होते हुए भी मानसिक अपूर्णता- बोध जरूरी था । इसी तरह की अपूर्णता प्रजाति के लैंगिक विभाजन के कारण भी है। इस तरह कोई भी मनुष्य अकेले मे पूर्णता के लिए बना ही नहीं है । इस तरह सन्यासियों का अहं ब्रह्मास्मि वाला अहंकार भी हमारे प्राकृतिक जी(व)न- स्वभाव के अनुरूप नहीं है । वैसे भी तथाकथित सन्यासी सन्यासियों के समूह मे शामिल होकर पुनः छोड़ी गयी सामाजिकता को प्राप्त कर लेते हैं। शैशवावस्था से पिता की स्मृतियाँ और अभिभावक अनुभव के अचेतन संस्कार को लेकर हमारा ईश्वर भी प्रजाति से प्राप्त सांस्कृतिक विश्वास के रूप मे हमारे भीतर के इसी अधूरेपन को भरता है ।अधूरेपन के इसी नेपथ्य मे सत्ता, व्यवस्था और समाज भी स्थित है । इसी अपूर्णता मे दूसरी का आवाहन, सम्मान, विनम्रता और उदारता की भावना का अस्तित्व और प्रवाह है । इस तरह ईश्वर की अवधारणा सिर्फ़ हमारी नैतिक-धार्मिक आस्था से ही नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक जरूरत से भी उपजी है । हमे अपने ईश्वर की अवधारणा को और परिष्कृत ,समझदार तथा निर्दोष बनाने की जरूरत है।
रामप्रकाश कुशवाहा
06/11/2018
06/11/2018