हँसता हुआ बाज़ार : समीक्षा के निकष पर
आज सुबह सोकर जब उठा तो 'हँसता हुआ बाजार' सामने था। बाजारू व्यवस्था से उकताये, सहज और सरल रूप से साहित्य-साधना करने वाले चर्चित रचनाकार डॉ.रामप्रकाश कुशवाहा की बहुप्रतीक्षित कृति 'हँसता हुआ बाजार'।
सोचता हूँ 'बाजार' किस पर हँस रहा है और क्यों हँस रहा है! अगले ही क्षण मन में विचार करता हूँ, कहीं हँसते हुए बाजार को देखकर, उसकी नकली हँसी को देखकर, उसमें हँसते नकली लोगों को देखकर रचनाकार तो नहीं हँस रहा है!
याद आते हैं- 'लोकऋण', 'सोनामाटी' और 'नमामि ग्रामम्' जैसे प्रसिद्ध उपन्यासों के लेखक डॉ.विवेकी राय, जो लिखते हैं- दँवाई-कटाई के यंत्रों- थ्रेसर आदि की भड़भड़ाहट ने सीवान के स्थाई मनसायन को छीन लिया। कुछ देर के लिए लगता है कि यह तो विरोधाभासी बात हुई! कहाँ उसने सीवान के मनसायन को छीन लिया! आखिर वह भी तो भड़भड़ा रहा है! उस पर भी तो आदमी काम कर रहे हैं!
फिर अचानक गाँव और गँवई संस्कृति, किसान संस्कृति याद आती है और तब गाँव का सन्दर्भ समझ में आता है कि विवेकी राय जी किस मनसायन के छिनने की बात कर रहे हैं। बन्द ए.सी. कमरों में बैठकर साहित्य-सृजन करने वालों को यह बात समझ में नहीं आयेगी।और सन्दर्भों को पकड़े बिना यंत्रों के भड़भड़ाहट की निस्सारता समझ में नहीं आयेगी।
ठीक वैसे ही हँसते हुए बाजार की निर्जान और खोखली हँसी उन लोगों को समझ में नहीं आयेगी जो रिश्तों की खोज में बाजार में जाते हैं, जिनके लिए सारी संवेदनाएँ, सारी खुशी बाजार में ही उपलब्ध है। बड़े-बड़े शहरों के बड़े-बड़े मॉल (बिग बाजार) ने मनुष्य की जरूरतों को एक जगह उपलब्ध कराने का प्रयास तो किया है लेकिन उसी के साथ वह इस बात के लिए उन पर हँस भी रहा है कि इन विवेक-हीन और संवेदन-हीन मनुष्यों को कौन समझाये कि मैंने (बाजार ने) लोगों के आपसी सम्बन्ध, सामाजिक सहकार और भाईचारे को भी उनसे हमेशा-हमेशा के लिए छीन लिया है।
आज सब कुछ की मण्डी लग रही है। बाजार लग रहा है। जहाँ सामान ही नहीं बिक रहे हैं, अपितु सब कुछ बिक रहा है। नेता बिक रहा है। शिक्षा बिक रही है। शिक्षक बिक रहा है। न्याय बिक रहा है। पुलिस बिक रही है। कानून बिक रहा है। डॉक्टर बिक रहा है। मंत्री बिक रहा है। सरकार बिक रही है। ईमान बिक रहा है। प्यार बिक रहा है। देह बिक रही है। सम्बन्ध बिक रहे हैं। संवेदनाएँ बिक रही हैं। आँसू बिक रहे हैं। व्यवस्था बिक रही है। लेखक बिक रहा है। प्रकाशक बिक रहा है। देश बिक रहा है। लज्जा बिक रही है। आबरू बिक रहा है। बिकने की जैसे होड़ लगी है। बिकने के लिए तरह-तरह का विज्ञापन हो रहा है।
'बाज़ार में उत्सव' शीर्षक कविता में कवि कहता है-
'बाज़ार खुले को बन्द में बेच रहा है
और बन्द को खुले में
कम को अधिक में बेच रहा है
और अधिक को कम में
बाज़ार वह सब बेच रहा है
जो बेचा जा सकता है
बाज़ार से लोग वह सब खरीद रहे हैं
जो बिक सकता है बाज़ार में.....।'
और अब तो बाज़ार में ईश्वर भी बिकने लगा है। रचनकार के शब्दों में- 'ईश्वर सापेक्ष होता है बाज़ार में..... बाज़ार का / वह खोने वाली जेब के लिए अशुभ / और दूसरों के खोये हुए को पाने वाली जेब के लिए / शुभ होता है।' ऐसे में बाजार खड़ा निर्लज्ज भाव से खरीद-फरोख्त कर रहे लोगों पर अट्टहास करता है। मानो ऐसा करते हुए वह संकेत कर रहा है कि यदि अब भी तुम नहीं सँभले तो तुम्हारी यह बाजारू-वृत्ति एक दिन तुम्हें लील जायेगी। सभ्यता और संस्कृति के इस डँड़मेर में संस्कृति एक दिन पूरी तरह विनष्ट हो जायेगी।
शायद इस खतरे को चौदहवीं शताब्दी में ही कबीर ने भाँप लिया था, जिससे उन्हें कहना पड़ा, 'कबिरा खड़ा बाजार में, माँगे सबकी खैर।' सबकी खैर की चिन्ता ने कबीर के हाथ में लुकाठी (लुआठी) तक पकड़ा दिया, बाजारवादी व्यवस्था को खत्म करने के लिए। जिसने अपने घर को जलाने के बाद इस पूरी भ्रष्ट व्यवस्था को जलाने का संकल्प लेकर लोगों को अपने साथ चलने का आह्वान किया और इतने पर भी जब लोगों को समझ में नहीं आया तो मोहभंग की स्थिति में लिखा- 'पूरा किया बिसाहुँणा, बहुरि न आवौं हट्ट।' तुलसी जैसे मर्यादावादी कवि को लिखना पड़ा -'अब लौं नसानी, अब न नसैहों/ राम कृपा भव निसा सिरानी, जागे पुनि न डसैहों।'
लेकिन कहाँ फर्क पड़ा किसी पर! सन्त-महात्मा आते गये, जाते गये, कहते गये, लिखते गये और लोग अपने हिसाब से अर्थ लगाते गये, समझते गये और बाजार की व्यवस्था में बाजारू होते गये। ईमान, धर्म, मूल्य, इज्ज़त किसी की भी चिन्ता नहीं रही, ऐसे में बाजार तो हँसेगा ही।
उसकी इस क्रूर हँसी पर, अट्टहास पर मानव और जीवन मूल्यों के पोषक रचनाकार का चिन्तित होना स्वाभाविक ही है। बाजार की इस खोखली हँसी से पीड़ित-व्यथित रचनकार के संवेदनशील मन से ठीक उसी तरह ये कविताएँ फूट पड़ी हैं, जैसे कभी क्रौंच पक्षी के बध के समय आदि कवि के मुख से पहला श्लोक फूट पड़ा था। इस बाजारू व्यवस्था से कवि पूरी तरह उकताया हुआ है, पुस्तक में संकलित कविताओं को पढ़ने के बाद यह बात दावे के साथ कही जा सकती है।
कवि के शब्दों में कहें तो 'बाज़ार को मानवीय सृजनशीलता की अभिव्यक्ति और विनिमय का महामंच मानते हुए भी उसके दाँव-पेंच, घात-प्रतिघात तथा अर्थ की शिकारी वृत्ति में निहित संवेदनहीनता और क्रूरता के प्रति लोगों को सचेत करने की रचनात्मक चिन्ता का परिणाम है हँसता हुआ बाज़ार की कविताएँ। प्रसिद्ध आलोचक, समीक्षक एवं चिन्तक डॉ.पी.एन.सिंह जी इन कविताओं को थीम पोएट्री कहते हैं।
बाज़ार की हर मुद्रा और व्यवहार का कवि के द्वारा सूक्ष्मता से किया गया निरीक्षण पाठक को निश्चित ही बाजारू व्यवस्था पर सोचने और चिन्तन करने के लिए मजबूर करता है। वह बाज़ार से गुजरता तो है, पर उसका खरीददार नहीं बनता। वह बाज़ार के उठने-गिरने और उस पर सरकार की सफाई तथा किसान, मजदूर, गरीब के मरने पर सरकार की चुप्पी से आहत है।
पुस्तक के 'पहला पाठ' (बाज़ार से गुजरा हूँ ख़रीददार नहीं हूँ) शीर्षक के लेखक नलिन रंजन सिंह के शब्दों में कहें तो संग्रह की कविताएँ बाज़ार के सारे रंगों को, उसकी परिणति को, उसके हो-हल्ले को, उसकी ईश्वरीय आभा को, उसके विमर्श को सामने लाती हैं। यही कारण है कि संग्रह की छाछठ कविताओं में से सैंतालीस कविताओं के शीर्षक में ही बाज़ार है और शेष उन्नीस भी उसी की प्रतिकृति हैं। बाज़ार का यह सूक्ष्म पर्यवेक्षण उनकी 'आलोचकीय कविताओं' को जन्म देता है। ये कविताएँ नहीं, कवि के जीवनानुभव की 'मुकम्मल बयान' हैं। कवि स्पष्ट शब्दों में कहता है-
'बाज़ार में बच्चे जब सोच भी नहीं रहे होते हैं
हिन्दू या मुसलमान होने का मतलब
उन्हें हिन्दू या मुसलमान बना दिया जाता है।'
बाज़ार की खोखली हँसी और झूठे प्रेम पर वह चेतावनी स्वरूप कहता है-
'बाज़ार में प्रेम एक शिकारी की भूमिका में होता है
जीतता रहता है एक-दूसरे को पूरी मौज में
बाज़ार में प्रेम ऊबता रहता है पुराने प्रेम से
और भटकता रहता है नये प्रेम की तलाश में।'
लेकिन नये प्रेम की इस तलाश में उसे सर्वत्र निराशा ही हाथ लगती है, क्योंकि यहाँ अब प्रेम भी दिखावटी और नकली हो गया है। लगाव या प्यार भी पैसे के आधार पर कम या बेसी होने लगा है। भावनाएँ आहत हुई हैं और संवेदनाएँ चुकी हैं। रिश्तों की चूलें हिल उठी हैं। बकौल नलिन रंजन 'सेल्फी युग' में आत्ममुग्धता देह की तारीफ़ पर आ टिकी है। क्या स्त्री, क्या पुरुष, सभी बहुत जल्दी में हैं। उन्हें विपरीत देह बदलने में संकोच नहीं है। अब देह का मिलन ही प्रेम है। ......बाज़ार उसके लिए हर साल वैलेण्टाइन लेकर आता है, जहाँ विकल्प ही विकल्प है, प्रस्ताव ही प्रस्ताव हैं। प्रेम की पवित्रता बीते दिनों की बात है। वह अनदेखे-अनजाने से इनबॉक्स होते हुए व्हाट्सऐप के रास्ते मोबाइल पर है और सुख के अपने तरीके के 'पल' तलाश कर अपने-अपने शहर में व्यस्त है। ऐसा लगता है कि ऐसी ही स्थिति को देखकर घृणित भाव से प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी ने कभी कहा होगा-
"दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ,
बाज़ार से गुजरा हूँ खरीददार नहीं हूँ।"
संग्रह की कविताओं में बाज़ार-दर्शन, हँसता हुआ बाज़ार, बाज़ार का अर्थशास्त्र, बाज़ार में बिकना, बाज़ार की मुद्रा, बाज़ार में इच्छाएँ, बाज़ार में ईश्वर, बाज़ार में घर, बाज़ार में ऊँट, लोकतंत्र और बाज़ार, बाज़ार में कवि, बाज़ार में आदतें, बाज़ार में नाक, बाज़ार में सही, बाज़ार में छायालोक, श्लील आकांक्षाएँ, बाज़ार में प्रेम, अस्तित्व का अर्थशास्त्र, बाज़ार में आदिमानव, जिधर लोग हैं, ज़हरखुरान, सड़क के शिकारी, बाज़ार का सूत्रधार, बाज़ार में महान, इच्छाएँ, बाज़ार और ईश्वर, बाज़ार में शिकारी, बाज़ार में खेल, भाषा-बाज़ार, बाज़ार में लड़की, बाज़ार में समय, बाज़ार में पशु-युग, कविता के बाज़ार में, समय और बाज़ार, अच्छे दिन और बाज़ार आदि कुछ ऐसी कविताएँ हैं, जो अपने को कई बार पढ़वाती हैं। सुखद आश्चर्य की बात यह है कि बाज़ार संज्ञक इतनी कविताओं के बावजूद पूरी पुस्तक में कहीं भी दुहराव नहीं है।
पाठकीय आकर्षण से भरपूर इन कविताओं से कढ़ने वाला सन्देश पाठक को दूर तक और देर तक प्रभावित करता है। कहना असंगत नहीं होगा बाज़ार की चकाचौंध में दम घोंटती मानवता को बचाने और लोगों को सजग-सचेत कराने के लिए कृतसंकल्पित रचनाकार अपने उद्देश्यों में पूरी तरह सफल दिखता है। उम्मीद है कि 'हँसता हुआ बाज़ार' संज्ञक यह कृति पाठकों को पसन्द आयेगी, साथ ही साथ रचनाकार-व्यक्तित्व में चार चाँद लगायेगी।
डाॅ0 चन्द्र शेखर तिवारी