सोमवार, 15 अप्रैल 2024

निष्क्रमण

 

आत्मा से लेकर परमात्मा तक

सारा महिमामंडन एक तरफ
और मेरा होना दूसरी तरफ....
क्यों मैं ऐसा करूं कि
कुछ शब्द बचा कर रखूं और
कुछ शब्दों का जीवन भर विरोध करता रहूं
उनका खंडन करता रहूं
कुछ को मैं झूठ घोषित कर दूं और कुछ को
मैं सच की तरह विज्ञापित करूं
जबकि सारे महिमामंडन
सारे शब्द अस्तित्व के अनुवर्ती हैं
एक ही टकसाल से निकले हुए .....
भले ही वे अलग-अलग समय में
अलग-अलग मनुष्य द्वारा ईजाद किए गए....
हमें सच की खोज में एक दिन
भाषा तंत्र से भी बाहर निकलना
सीखना और पहचानना ही होगा -
अपना होना सही-सही जीने और जानने के लिए ....
कि हम तब भी होते हैं
जब हम कुछ भी नहीं बोलते
हम तब भी होते हैं
जब हम कुछ भी नहीं जानते
हम तब भी होते हैं
जब हम जान रहे होते हैं कि
क्या कुछ और किस तरह जान रहे हैं हम
और इस ज्ञान से बाहर निकलना क्यों जरूरी है !
कि आखिरी बंधन ज्ञान ही है
जिससे मुक्त होने तक
कोई स्वयं को
सुखी घोषित कैसे कर सकता है !
कि सारी छवियां सिर्फ एक श्रृंगार है
और व्यक्तित्व-
उपयोगी भूमिकाओं में बदले हुए संज्ञापद शब्द !
वह जो अपने होने से ही अभिभूत था
चमत्कृत था अपने होने के आश्चर्य को लेकर
अब जो चला भी गया है अपना सोचना छोड़कर
सिर्फ इतना ही पता चलता है कि
एक बूढ़ा ईश्वर भी
जो लगभग थक ही गया होगा
अपनें अस्तित्व और अपनी ईश्वरता को लेकर...
उसके समर्पण और संबोधन के केन्द्र में रहा है !
जैसे एक पुराना ईश्वर
जो हर कीमत पर आश्वस्त होना चाहता हो कि
कहीं कुछ भी बदलने नहीं जा रहा
और पूरी तरह अपनें प्रभुत्व की निरंतरता के साथ
सुरक्षित रहने के लिए आश्वस्त हो वह !
कुछ इसी तरह का संघर्ष चल रहा है
उसके पुरानें तन और नये तन के बीच !