किसी अलग वाले ईश्वर का होना मानने में एक दार्शनिक-मनोवैज्ञानिक किस्म की बाधा मुझे दिखती है । ईश्वर की (एकेश्वरवादी ) अवधारणा में सह- अस्तित्व की गुंजाइश नहीं है । जैसे ही आप ईश्वर के होने को स्वीकार करेंगे अपने होने की गौणता को भी स्वीकार करना पड़ेगा । यही कारण है कि अस्तित्व का चरमोत्कर्ष या तो नास्तिक तानाशाहों में दीख पड़ता है या फिर ऐसे आस्तिकों में जो स्वयं को ही ईश्वर समझते रहे । ध्यान से देखें तो राम कृष्ण और बुद्ध किसी को भी किसी दूसरे ईश्वर की आराधना करते नहीं दिखाया गया है । दरअसल शत-प्रतिशत जिम्मेदारी या आत्मनिर्भरता पूर्ण स्वावलंबन के बिना आ ही नहीं सकती । यह स्थिति किसी नास्तिक में हो सकती है या फिर किसी नास्तिक सदृश आस्तिक में ।
अब इस टिप्पणी पर सरल रूप में विचार करते हैं । भारतीय धार्मिक संस्कृति में बहुदेशीय, अद्वैतवाद, अनेकांतवाद तथा प्रकृति पूजा जो वेद काल से ही देखने को मिलती है - लोक परम्परा और धार्मिक पर्वों में गुंथे हुए से हैं । वर्ण -विभाजन , कार्य तथा कर्तव्य-विभाजन के कारण व्यवहार में धार्मिकता के अलग-अलग स्वरूप सामने आते हैं । सबसे अधिक मानने वाले अनुयायी मानसिकता को जीने वाले भक्ति संप्रदाय के हैं ।पुरोहितों की पूजा-पद्धति इसी समर्पणवादी आस्था का नेतृत्व करती है । यहां मैने सजग रूपसे पुरोहितों के लिए ब्राह्मण शब्द का प्रयोग नहीं किया है । ब्रह्म और ब्राह्मण की अवधारणा का संबंध औपनिषदिक दर्शन से है । योग और आध्यात्म सहित उन्नत जीवन पद्धति को लेकर सुव्यवस्थित चिंतन भी इसके पास है । श्रमण संस्कृति से लेकर बौद्ध ,जैन और सांख्य सभी के पास अपनी आध्यात्मिक जीवन और विचार की सैद्धांतिकी है । इसमें मध्यकाल के संत मत आन्दोलन को भी शामिल किया जा सकता है ।
पुरोहित धर्म कर्म के स्थान पर याचना, प्रार्थना , स्तुति,प्रशंसा ,कृपा, और करुणा आदि को महत्व देते हैं । एक अनुशासित विनम्र नागरिक समाज के प्रवृत्ति-निर्माण और पोषण में इस आराधना पद्धति का भी महत्व है । यह विरोध के स्थान पर सहयोग,अनुकूलन और सामंजस्य पर आधारित सांस्कृतिक समाज निर्मित कलता है । इस संस्कृति का नकारात्मक पक्ष यह है कि यह एक रीढविहीन समाज का निर्माण करता है । इसी संस्कृति के कारण भारत हजार वर्ष से गुलाम रहा । यह समाज परिस्थितियों को ईश्वर की इच्छा मानकर उसे बदलने का प्रयास नहीं करता । पुरोहित धार्मिक संस्कारों के प्रबल -प्रभाव के कारण ही भारतीय धार्मिक संस्कृति स्वाभिमान विरोधी और समर्पणवादी अनुयायी अर्थात प्रजा का निर्माण करती है । समाज और परिस्थितियां जैसी हैं उसे वैसे ही स्वीकार करने को कहती हैं । कंप्यूटर की भाषा में कहें तो यह एक नकारात्मक एवं हानिप्रद सांस्कृतिक साफ्टवेयर से संचालित सभ्यता का निर्माण करती है । धर्म और ईश्वर से रिश्ते के ऐसे ही बदलावों की संस्तुति है -"मैने अपना ईश्वर बदल दिया है "कृति । इस विनम्र स्वीकार के साथ कि हमारी धार्मिक अपर्याप्तता पर बहुत से प्रश्न आधुनिकता और विज्ञान नें लगाए हैं तो शिक्षा के व्यापक प्रसार के कारण लोकतंत्र का मूल आधार समानतापूरण व्यवहार की मांग करती राजनीतिक चेतना नें भी । जब दास्य भाव की भक्ति और उसकी अपरिहार्य हीनता ग्रन्थि अनावश्यक लगने लगी है ।
पुरोहिताई परम्परा में सिर्फ क्रोधी ॠषि परशुराम का स्वभाव ही इसका अपवाद है -वह भी इसलिए कि वे सामंती शासकों के उत्पीड़न को न्याय की प्रतीक्षा में ईश्वर के हवाले नहीं कर सकते थे । उनमें प्रतिशोध का जो स्वावलंबन है वही उन्हें अवतार कोटि में प्रतिष्ठित कराता है ।
वैसे दूसरी ओर देखें तो जीन के स्तर पर सबको संरचनात्मक निजता,मौलिकता और विशिष्टता प्राप्त है । ईश्वर की भूमिका वाला यानी उत्पादक-स्रष्टा ईश्वर का होना भी किसी दूसरे के होने की तरह ही होगा । यद्यपि वह भी इसी प्रकृति के पूर्व में बीत चुके भिन्न सृजन-काल में घटा है । जैसे हम अपने बचपन को इसी देह में वापस नहीं पा सकते वैसे ही प्रकृति के शैशवकाल को भी । यदि प्रयोगशाला में मनुष्य न दुहरा पाया तो । हम भी तो सृष्टि के उत्पाद ही ठहरे । वैसे सैद्धांतिक सुविधा के लिए उसे एक ऐसे अति बुद्धिमान मस्तिष्क के रूप में देखा जा सकता है जिससे हम मिले न हों लेकिन वह कहीं हो सकता है ।