एक विधा के
जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
रविवार, 17 नवंबर 2019
केदारनाथ सिंह कि कविता
रामप्रकाश कुशवाहा
केदारनाथ सिंह तीसरा सप्तक के कवि हैं । अज्ञेय द्वारा 1966 मे प्रकाशित तीसरा सप्तक के कवियों मे सम्मिलित किए जाने से पहले केदारनाथ सिंह का पहला काव्य-संग्रह ' अभी, बिल्कुल अभी' (1960) प्रकाशित हो चुका था । इसलिए उनके कवि की निर्मित को समझने के लिए यह संकलन महत्वपूर्ण है ।
तीसरा सप्तक की अनागत, नए पर्व के प्रति, कमरे का दानव,दीपदान,दिग्विजय का अश्व, बादल ओ ! तथा 'निराकार की पुकार ' आदि कविताएं उनके पहले काव्य-संग्रह 'अभी बिल्कुल अभी ' में भी है । इन कविताओं के अध्ययन से पता चलता है कि आम धारणा से अलग केदारनाथ सिंह मात्र बिम्बों के कवि नहीं हैं । यदि यह कहा जाय कि अपनी प्रारम्भिक यात्रा मे उनका महत्वाकांक्षी और युवा कवि अपनी कविताओं के शिल्प और स्वरूप को लेकर उनका किया गया आत्मसंघर्ष अपने समय तक हिन्दी-कविता के समस्त प्रयोगों और ध्रुवान्तों को लेकर किया गया है । उनका काव्य सौष्ठव और कविताओं में मिलने वाली मितभाषिता अज्ञेय को आदर्श बनाने की सूचना देती है तो उनकी कविताओं की आत्मा मे लोक के प्रति प्रेम, सम्मान तथा उसके जिए गए क्षणों की स्मृतियाँ और आख्यान छिपे हैं ।
केदारनाथ नाथ सिंह की कई कविताएं अज्ञेय की काव्य-भाषा की याद दिलाती हैं ।फ़र्क बस इतना ही है कि अज्ञेय की कविताओं का पारगमन ।'आंगन के पार द्वारा और ' देहरी को बाहर से घर के भीतर देखने की है तो केदारनाथ सिंह आंगन के भीतर से आंगन के पार द्वारे स्थित लोक के द्रष्टा हैं ।
कहने का तात्पर्य यह है कि कवि केदारनाथ सिंह की लोकोन्मुखता ही उन्हें दूसरा अज्ञेय बन जाने से रोकती है । संवेदना और कथ्य के धरातल पर केदारनाथ सिंह लोक के यायावर कवि हैं । वे लोकजीवी आस्वाद धर्मिता के कवि हैं । अज्ञेय के सागर-मुद्रा शब्द से उधार लेते हुए कहें तो कवि केदारनाथ सिंह लोकमुद्रा के कवि हैं लेकिन अज्ञेय से अचेतन प्रतिस्पर्धा और होड़ उन्हे आभिजात्यवर्गीय काव्यभाषा से जोड़े भी रहता है ।
'जो रोज दिखते हैं सड़क पर ' कविता जीवन के सामान्य अनुभव और दिनचर्या को भी एक महत्वपूर्ण घटना के रूप मे देखे जाने का विनम्र आग्रह करती है-
' कौन हैं ये लोग/जिनसे दूर-दूर तक/मेरा कोई रिश्ता नहीं/पर जिनके बिना/पृथ्वी पर हो जाऊंगाॅधी सबसे दरिद्र (उत्तर कबीर पृष्ठ 95)
आन्तरिक विस्थापन की स्मृतियाँ, संवेदनात्मक रिश्तों की पडताल एवं उनका विमर्शात्मक प्रत्यक्षीकरण केदारनाथ सिंह की अधिकांश रचनाओं का केन्द्रीय रचना-सूत्र है ।
उनकी लोरी कविता के पाठ मे उनके कवि की रचना-प्रक्रिया खा रहस्य खुलता है ।वे एक मूड,एक प्रसंग, एक संवेदनात्मक काव्य-वस्तु उठाते हैं और यथार्थ के ऊपर प्रत्याशित संभावनाओ के कल्पना-सृजित चौहान से या धुन्ध मे छिपा देते हैं । प्रायः वे अनुभवों और विचार की श्रंखला प्रस्तुत करते हुए अपने पाठकों को काव्यात्मक साक्षात्कार के एक ऐसी यात्रा पर ले जाते हैं जिसे पर्यटन या भ्रमण न कहकर टहलना कहना अधिक उचित होगा ।
तीसरा सप्तक की अनागत, नए पर्व के प्रति, कमरे का दानव,दीपदान,दिग्विजय का अश्व, बादल ओ ! तथा 'निराकार की पुकार ' आदि कविताएं उनके पहले काव्य-संग्रह 'अभी बिल्कुल अभी ' में भी है । इन कविताओं के अध्ययन से पता चलता है कि आम धारणा से अलग केदारनाथ सिंह मात्र बिम्बों के कवि नहीं हैं । यदि यह कहा जाय कि अपनी प्रारम्भिक यात्रा मे उनका महत्वाकांक्षी और युवा कवि अपनी कविताओं के शिल्प और स्वरूप को लेकर उनका किया गया आत्मसंघर्ष अपने समय तक हिन्दी-कविता के समस्त प्रयोगों और ध्रुवान्तों को लेकर किया गया है । उनका काव्य सौष्ठव और कविताओं में मिलने वाली मितभाषिता अज्ञेय को आदर्श बनाने की सूचना देती है तो उनकी कविताओं की आत्मा मे लोक के प्रति प्रेम, सम्मान तथा उसके जिए गए क्षणों की स्मृतियाँ और आख्यान छिपे हैं ।
केदारनाथ नाथ सिंह की कई कविताएं अज्ञेय की काव्य-भाषा की याद दिलाती हैं ।फ़र्क बस इतना ही है कि अज्ञेय की कविताओं का पारगमन ।'आंगन के पार द्वारा और ' देहरी को बाहर से घर के भीतर देखने की है तो केदारनाथ सिंह आंगन के भीतर से आंगन के पार द्वारे स्थित लोक के द्रष्टा हैं ।
कहने का तात्पर्य यह है कि कवि केदारनाथ सिंह की लोकोन्मुखता ही उन्हें दूसरा अज्ञेय बन जाने से रोकती है । संवेदना और कथ्य के धरातल पर केदारनाथ सिंह लोक के यायावर कवि हैं । वे लोकजीवी आस्वाद धर्मिता के कवि हैं । अज्ञेय के सागर-मुद्रा शब्द से उधार लेते हुए कहें तो कवि केदारनाथ सिंह लोकमुद्रा के कवि हैं लेकिन अज्ञेय से अचेतन प्रतिस्पर्धा और होड़ उन्हे आभिजात्यवर्गीय काव्यभाषा से जोड़े भी रहता है ।
'जो रोज दिखते हैं सड़क पर ' कविता जीवन के सामान्य अनुभव और दिनचर्या को भी एक महत्वपूर्ण घटना के रूप मे देखे जाने का विनम्र आग्रह करती है-
' कौन हैं ये लोग/जिनसे दूर-दूर तक/मेरा कोई रिश्ता नहीं/पर जिनके बिना/पृथ्वी पर हो जाऊंगाॅधी सबसे दरिद्र (उत्तर कबीर पृष्ठ 95)
आन्तरिक विस्थापन की स्मृतियाँ, संवेदनात्मक रिश्तों की पडताल एवं उनका विमर्शात्मक प्रत्यक्षीकरण केदारनाथ सिंह की अधिकांश रचनाओं का केन्द्रीय रचना-सूत्र है ।
उनकी लोरी कविता के पाठ मे उनके कवि की रचना-प्रक्रिया खा रहस्य खुलता है ।वे एक मूड,एक प्रसंग, एक संवेदनात्मक काव्य-वस्तु उठाते हैं और यथार्थ के ऊपर प्रत्याशित संभावनाओ के कल्पना-सृजित चौहान से या धुन्ध मे छिपा देते हैं । प्रायः वे अनुभवों और विचार की श्रंखला प्रस्तुत करते हुए अपने पाठकों को काव्यात्मक साक्षात्कार के एक ऐसी यात्रा पर ले जाते हैं जिसे पर्यटन या भ्रमण न कहकर टहलना कहना अधिक उचित होगा ।
" कि गूँजहीन शब्दों के इस घने अन्धकार में /मैं-/ अर्थ-परिवर्तन की /एक अबूझ प्रक्रिया हूँ "........जड़ें रोशनी में हैं /रोशनी गंध में ,/गंध विचारों में /विचार स्मृतियों में /स्मृतियाँ रंगों में "- अभी,बिलकुल अभी "संकलन की पहली ही कविता के पीछे एक सुचिंतित और गंभीर भाषा-विमर्श और ज्ञान उपस्थित है . दरअसल वास्तविकता यह है कि केदारनाथ सिंह की कविताएँ अनेक विषयों और अनुभूतियों पर संवेदनात्मक विमर्श से बनी हैं . वे घटित-संवेदित होने के क्षण-विशेष के गतिशील चित्र हैं .मनोविज्ञान की शब्दावली में इन्हें प्रत्यक्षीकरण का प्रयास और काव्यालोचना में काव्य-बिम्ब की सर्जना का प्रयास कहा जा सकता है .बाल-सुलभ एवं रहस्यात्मक उत्प्रेक्षण कवि केदारनाथ सिंह की सर्वाधिक प्रिय रचना-पद्धति है . वे घटनाविहीन समय में घटनाओं की आशंका और संभावना के चितेरे कवि हैं .
केदारनाथ सिंह की कविताएँ समकालीन राजनीतिक यथार्थ का अधिकतम सीमा तक बहिष्कार करती हैं .उनकी अनुपस्थिति सुनिश्चित कराती हुई विकल्प की खोज में भटकती हैं .एक सजग और सायास अन्देखापन है उनमें जिसे मुंह चुराना नहीं ,बल्कि मुंह फेरना कहना ही उचित होगा . यह उस विस्थापन और अनुपस्थिति का बदला है जिसे उनके समय कि गैजिम्मेदार राजनीति नें घटित किया है .
"अकाल में सारस "संग्रह की 'जिद ' कविता कवि के जीवन-a
केदारनाथ सिंह की कविताएँ समकालीन राजनीतिक यथार्थ का अधिकतम सीमा तक बहिष्कार करती हैं .उनकी अनुपस्थिति सुनिश्चित कराती हुई विकल्प की खोज में भटकती हैं .एक सजग और सायास अन्देखापन है उनमें जिसे मुंह चुराना नहीं ,बल्कि मुंह फेरना कहना ही उचित होगा . यह उस विस्थापन और अनुपस्थिति का बदला है जिसे उनके समय कि गैजिम्मेदार राजनीति नें घटित किया है .
"अकाल में सारस "संग्रह की 'जिद ' कविता कवि के जीवन-a
शनिवार, 16 नवंबर 2019
ति कुण्ठित लोगों को चिढा कर दुखी भी करती है।
उनका दुख भी दूना करतीं हैं।
इसलिए इससे यथासम्भव बचे रहना ठीक है।
इसके बावजूद यह लोगों को सामूहिक रूप से पसन्द करने,अपने आदर्श को चुनने और उसका अनुसरण कर एकरूप आचरण करने वाले समाज के निर्माण और विकास का आधार भी है । यह सामाजिक शक्ति के निर्माण का भी आधार है । इसी अर्थ में यह प्रसिद्धि यानी श्रेष्ठ सिद्धि है ।
उनका दुख भी दूना करतीं हैं।
इसलिए इससे यथासम्भव बचे रहना ठीक है।
इसके बावजूद यह लोगों को सामूहिक रूप से पसन्द करने,अपने आदर्श को चुनने और उसका अनुसरण कर एकरूप आचरण करने वाले समाज के निर्माण और विकास का आधार भी है । यह सामाजिक शक्ति के निर्माण का भी आधार है । इसी अर्थ में यह प्रसिद्धि यानी श्रेष्ठ सिद्धि है ।
रहना नहीं
बकौल कबीर
रहना नहीं देश बेगाना है
फिर काहे को इतराना है
जो है ,जहाँ है,जैसा है
सब छोड-छाडि चलि जाना है
सब समझि-बूझि कर गाना है
ज्यों सब संग मिलि परदेश रवाना है ।
रहना नहीं देश बेगाना है
फिर काहे को इतराना है
जो है ,जहाँ है,जैसा है
सब छोड-छाडि चलि जाना है
सब समझि-बूझि कर गाना है
ज्यों सब संग मिलि परदेश रवाना है ।
(टीका और व्याख्या सहित
ऐसे ही मन मे कौंध गया
अपराधियों के सुधार के लिए जरूरी
और औषधि तुल्य हो सकतीं हैं ये पंक्तियाँ ।)
ऐसे ही मन मे कौंध गया
अपराधियों के सुधार के लिए जरूरी
और औषधि तुल्य हो सकतीं हैं ये पंक्तियाँ ।)
धरती पर
जब-जब धरती पर
घाटी-सी कटान होगी
गहराइयाॅ बनेगी
तो पर्वत के कूबड़ तो अपने आप ही बन जाएंगे
जब-जब विषमता के खड्ढे बढ़ेंगे
तो बढेंगे धरती के भाग्यवान धनवान
बढेगी धरती पर भिखारियो की फ़ौज
तो यों ही कुछ न कुछ देते हुए इतराएंगे अन्नदाता
तालियों के बीच उपहार बटवाएंगे
सेल्फियाॅ खिचवाएंगे
अखबारों मे छपवाएंगे
घाटी-सी कटान होगी
गहराइयाॅ बनेगी
तो पर्वत के कूबड़ तो अपने आप ही बन जाएंगे
जब-जब विषमता के खड्ढे बढ़ेंगे
तो बढेंगे धरती के भाग्यवान धनवान
बढेगी धरती पर भिखारियो की फ़ौज
तो यों ही कुछ न कुछ देते हुए इतराएंगे अन्नदाता
तालियों के बीच उपहार बटवाएंगे
सेल्फियाॅ खिचवाएंगे
अखबारों मे छपवाएंगे
जब-जब महंगी और ध्वस्त शिक्षा के कारण
सामूहिक मूर्खो और अशिक्षितो की आबादी बढ़ेगी
और बढेंगे ज्ञानचक्षुओ को
बन्द और अपहृत करने वाले बबान
सामूहिक मूर्खो और अशिक्षितो की आबादी बढ़ेगी
और बढेंगे ज्ञानचक्षुओ को
बन्द और अपहृत करने वाले बबान
जब-जब बढेगी धरती पर विषमता
और बढेंगे लाचार
बढेंगे धरती पर धरती के प्रभु- भगवान
होगी ही तब-तब धरती पर
लोकतंत्र और समानता के धर्म की हानि !
और बढेंगे लाचार
बढेंगे धरती पर धरती के प्रभु- भगवान
होगी ही तब-तब धरती पर
लोकतंत्र और समानता के धर्म की हानि !
और तब तक
धरती पर सतयुग भी नहीं आएगा ।
धरती पर सतयुग भी नहीं आएगा ।
रामप्रकाश कुशवाहा
07/11/2019
07/11/2019
प्रशूद्र
सभी इतिहास-प्र-शूद्रों से
------------------------------------
------------------------------------
सब चारण थे
सब गुलाम थे
पराधीन और अपमानित
सभी शूद्र थे
सब गुलाम थे
पराधीन और अपमानित
सभी शूद्र थे
स्वाधीन होने से पूर्व
ऐतिहासिक दुर्दशा को प्राप्त
तलवे चाट गुलामों के थे वंशज सब
सिर्फ एक ही वर्ण के लोग बचे थे जम्बू द्वीप में
पराधीन, पद-कुचलित-मर्दित !
ऐतिहासिक दुर्दशा को प्राप्त
तलवे चाट गुलामों के थे वंशज सब
सिर्फ एक ही वर्ण के लोग बचे थे जम्बू द्वीप में
पराधीन, पद-कुचलित-मर्दित !
कैसे तब आग लगी थी पूरे जंगल में
और अपमान की अहर्निश आग में जलने से
बचने के लिए भाग रहे थे मारे-मारे
और अपमान की अहर्निश आग में जलने से
बचने के लिए भाग रहे थे मारे-मारे
क्षत्रप हत और क्षत्र भूलुण्ठित पडे थे
क्षत्रिय सभी मुँह छिपाए खडे थे
अपने पूर्वजों के तीर्थ को छोडकर
इधर-उधर भाग रहे थे पण्डे
पर्वतों और जंगलों की ओर
तब कोई भी नहीं बचा था श्रेष्ठ
सब क्षुद्र थे !
सब प्रशूद्र थे
क्षत्रिय सभी मुँह छिपाए खडे थे
अपने पूर्वजों के तीर्थ को छोडकर
इधर-उधर भाग रहे थे पण्डे
पर्वतों और जंगलों की ओर
तब कोई भी नहीं बचा था श्रेष्ठ
सब क्षुद्र थे !
सब प्रशूद्र थे
सिर्फ श्रेष्ठ शूद्र ही नहीं
अति-शूद्र अति-शूद्रतम !
अति-शूद्र अति-शूद्रतम !
हे काल-पराजित अतिक्षुद्रो!
हे इतिहास-प्रमाणित अतिशूद्रो!
समय,समाज, संस्कृति और सभ्यता ने
ख़ारिज किया है तुम्हे!
तुममें किसी मक्खी की तरह
फिर उसी घाव पर
फिर उठकर जा बैठने की
इतनी बेचैनी क्यों है ?
हे इतिहास-प्रमाणित अतिशूद्रो!
समय,समाज, संस्कृति और सभ्यता ने
ख़ारिज किया है तुम्हे!
तुममें किसी मक्खी की तरह
फिर उसी घाव पर
फिर उठकर जा बैठने की
इतनी बेचैनी क्यों है ?
संकट की उस निर्णायक घड़ी में
तब तुम स्वयं को
सिर्फ और सिर्फ इन्सान ही घोषित करते हुए
नहीं अघाते थे
स्वयं को कहते रहने के लिए बाध्य थे
वही कहो !
तब तुम स्वयं को
सिर्फ और सिर्फ इन्सान ही घोषित करते हुए
नहीं अघाते थे
स्वयं को कहते रहने के लिए बाध्य थे
वही कहो !
अब भी उसी एकता को जियो
जो अनेकता की भयानक अराजकता और
मूर्खतापूर्ण दुर्घटनाओं की समझदारी के रूप मै
प्राप्त हुई है !
जो अनेकता की भयानक अराजकता और
मूर्खतापूर्ण दुर्घटनाओं की समझदारी के रूप मै
प्राप्त हुई है !
उसी विरासत को अब भी
जानने और जीने की ज़रूरत है
जानने और जीने की ज़रूरत है
(दिनांक 03/03/2016 के
डाायरी के पन्नो पर प्राप्त)
डाायरी के पन्नो पर प्राप्त)
रामप्रकाश कुशवाहा
सुदामा पाण्डेय धूमिल
09 नवम्बर 1936 को वाराणसी के खेवली गाॅधी मे आज ही जनकवि सुदामा पाण्डेय धूमिल जी का जन्म हुआ था । खेवली मुझे केवटावली यानि मल्लाहो की बस्ती का तद्भव लगता है । अब जा ही रहा हूँ तो पता करॅगा कि मल्लाहो की आदिम बस्ती वहां है भी या नहीं । खेवली वरुणा का निकटवर्ती गाॅव है और समकालीन हिन्दी कविता के खेवनहार धूमिल का भी ।
मुक्तिबोध जहाँ साम्यवादी व्यवस्था के स्वप्नदर्शी कवि हैं तो धूमिल लोकतांत्रिक भारत के विचारक एवं जमीनी पडताल के कवि । धूमिल ने स्वतंत्रता के बाद की वर्तमान व्यवस्था की जिस नकारात्मक भूमिका का साक्षात्कार किया है ,वह आरोप अब भी विचारणीय और गम्भीर है । एक आम नागरिक की नियति को वे कैदी की नियति और व्यवस्था को कारागार की भूमिका मे पाते हैं । उनकी लम्बी कविता पटकथा की अन्तिम निष्कर्षात्मक अभिव्यक्ति यही है-
हर तरफ
शब्दबेधी सन्नाटा है ।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूॅथता हुआ । घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है ।
मुक्तिबोध जहाँ साम्यवादी व्यवस्था के स्वप्नदर्शी कवि हैं तो धूमिल लोकतांत्रिक भारत के विचारक एवं जमीनी पडताल के कवि । धूमिल ने स्वतंत्रता के बाद की वर्तमान व्यवस्था की जिस नकारात्मक भूमिका का साक्षात्कार किया है ,वह आरोप अब भी विचारणीय और गम्भीर है । एक आम नागरिक की नियति को वे कैदी की नियति और व्यवस्था को कारागार की भूमिका मे पाते हैं । उनकी लम्बी कविता पटकथा की अन्तिम निष्कर्षात्मक अभिव्यक्ति यही है-
हर तरफ
शब्दबेधी सन्नाटा है ।
दरिद्र की व्यथा की तरह
उचाट और कूॅथता हुआ । घृणा में
डूबा हुआ सारा का सारा देश
पहले की तरह आज भी
मेरा कारागार है ।
धूमिल की कविताएं भारतीय लोकतंत्र के लिए प्रतिरोध के भाषिक हथियार बनाती हैं ।
हत्यारों संभावनाओ के नीचे
सहनशीलता का नाम
आज भी हथियारों की सूची मे नहीं है ।
सहनशीलता का नाम
आज भी हथियारों की सूची मे नहीं है ।
सभ्य नागरिक होना सम्मान से जीने की प्रक्रिया और पर्यावरण नहीं बल्कि सतत निरस्तिकरण की कार्यवाही है -
हर आदमी
भीतर की बत्तियां बुझाकर
पडे-पड़े सोता है
क्योंकि वह समझता है
कि दिन की शुरुआत का ढंग
सिर्फ हारने के लिए होता है
भीतर की बत्तियां बुझाकर
पडे-पड़े सोता है
क्योंकि वह समझता है
कि दिन की शुरुआत का ढंग
सिर्फ हारने के लिए होता है
(हत्यारी संभावनाओ के नीचे )
थूमिल के पास अविश्वास और व्यंग्य की व्यंजना के लिए अब तक की सर्वोत्तम और प्रभावी काव्या भाषा है । धूमिल जैसा मिजाज और भंगिमा भी किसी के पास नहीं है। शुक्ल जी होते तो वाग्वैदग्ध्य और व्यंग्य के लिए सूर और कबीर के बाद सबसे बडा कवि धूमिल को ही घोषित करते । धूमिल की दृष्टि मे देश मे -
ऐसा जनतंत्र है जिसमें
जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को
एक जैसी छूट है
जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को
एक जैसी छूट है
राजनयिक की चिन्ता देश के जीवित मनुष्य के लिए नहीं बल्कि अतीत के प्रतीकों के लिए है-
देश डूबता है तो डूबे
लोग ऊबते हैं तो ऊबे
जनता लट्टू हो
चाहे तटस्थ रहे
बहरहाल, वह सिर्फ यह चाहता है
कि उसका 'स्वस्तिक'-
स्वस्थ रहे
(भाषा की रात कविता )
लोग ऊबते हैं तो ऊबे
जनता लट्टू हो
चाहे तटस्थ रहे
बहरहाल, वह सिर्फ यह चाहता है
कि उसका 'स्वस्तिक'-
स्वस्थ रहे
(भाषा की रात कविता )
धूमिल की कविताएं व्यवस्था से असंतोष के बावजूद सभ्य नागरिक बने रहने की नियति और यातना के विरुद्ध एकालापी बयान हैं -
जब हमारे भीतर तरबूज कट रहे है
मगर हमारे सिर तकियो पर
पत्थर हो गए हैं
मगर हमारे सिर तकियो पर
पत्थर हो गए हैं
धूमिल बोनसाई और दमित नागरिकता को बार-बार प्रश्नाकित करते हैं और उनके कारणों की पडताल भी प्रस्तुत करते हैं-
दलदल की बगल मे जंगल होना
आदमी की आदत नही अद्धा लाचारी है
और मेरे भीतर एक कायर दिमाग है
जो मेरी रक्षा करता है और वही
मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है ।
आदमी की आदत नही अद्धा लाचारी है
और मेरे भीतर एक कायर दिमाग है
जो मेरी रक्षा करता है और वही
मेरी बटनों का उत्तराधिकारी है ।
'जनतंत्र के सूर्योदय मे कविता मै वे लिखते है कि
जहाँ रात मे
संविधान की धाराएं
नाराज आदमी की परछाई को
देश के नक्शे मे
बदल देती हैं
संविधान की धाराएं
नाराज आदमी की परछाई को
देश के नक्शे मे
बदल देती हैं
पूरे आकाश को
दो हिस्सों में काटती हुई
दो हिस्सों में काटती हुई
और हत्या अब लोगों की रुचि नही -
आदत बन चुकी है
---------------
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव मे
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है ।
(कविता)
धूमिल की कविताएं जीवन की जड़ता के विरुद्ध जीवित रहने का जुझारू स्पन्दन हैं । वे लोकतांत्रिक व्यवस्था को पाखण्डमुक्त और पारदर्शी देखने की अदम्य रचनात्मक आकांक्षा और संकल्प का परिणाम हैं ।
आदत बन चुकी है
---------------
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव मे
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है ।
(कविता)
धूमिल की कविताएं जीवन की जड़ता के विरुद्ध जीवित रहने का जुझारू स्पन्दन हैं । वे लोकतांत्रिक व्यवस्था को पाखण्डमुक्त और पारदर्शी देखने की अदम्य रचनात्मक आकांक्षा और संकल्प का परिणाम हैं ।
जानवर बनने के लिए
कितने सब्र की जरूरत होती है
( बीस साल बाद)
कितने सब्र की जरूरत होती है
( बीस साल बाद)
और अब, मै एक शरीफ आदमी हूँ
पूरी नागरिक सौम्यता के साथ ।
पूरी नागरिक सौम्यता के साथ ।
धूमिल हिन्दी के पहले समाज-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण दृष्टि से सम्पन्न कवि हैं । यद्यपि उनकी समझदारी की कौंधो को उनके द्वारा प्रयुक्त बिम्बों और प्रतीकों में पढना पडता है । जैसे कि कुत्ते कविता समकालीन भारतीय मनुष्य का चारित्रिक रेखांकन प्रस्तुत करती है-
और वहाँ, हददर्जे की लचक है
लोच है
नर्मी है
मगर मत भूलो कि इन सबसे बड़ी चीज
वह बेशर्मी है
जो अनत मे
तुम्हे भी उसी रास्ते पर लाती है
जहाँ भूख-
उस वहशी को
पालतू बनाती है । (कुत्ता' कविता )
लोच है
नर्मी है
मगर मत भूलो कि इन सबसे बड़ी चीज
वह बेशर्मी है
जो अनत मे
तुम्हे भी उसी रास्ते पर लाती है
जहाँ भूख-
उस वहशी को
पालतू बनाती है । (कुत्ता' कविता )
ऐसे चिरप्रासंगिक चिर युवा कवि को उनके जन्मदिन पर सादर नमन ।
रामप्रकाश कुशवाहा
09/11/2019
09/11/2019
मानव-जाति
क्योंकि सभी धर्मों और विचारधाराओं के
मुखौटों के पीछे छिपी है मानव-जाति
हर आतताई समूह अपनी हिंसा से
दूसरे समूह को संक्रमित करता है
और विजय के उन्माद मे
अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए
घृणा और प्रतिशोध का
संतप्त उपहार छोड़ जाता है ।
मुखौटों के पीछे छिपी है मानव-जाति
हर आतताई समूह अपनी हिंसा से
दूसरे समूह को संक्रमित करता है
और विजय के उन्माद मे
अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए
घृणा और प्रतिशोध का
संतप्त उपहार छोड़ जाता है ।
जैसा कि विज्ञान का नियम है कि
हर संक्रमण प्रतिरोध को जन्म देता है
हर महायुद्ध के बाद
धरती पर बच जाने हैं
सिर्फ दुष्ट,जिद्दी और खूंखार बेहये !
हर संक्रमण प्रतिरोध को जन्म देता है
हर महायुद्ध के बाद
धरती पर बच जाने हैं
सिर्फ दुष्ट,जिद्दी और खूंखार बेहये !
सबसे अंन्त मे पुनश्चः
थकी-हारी-पछताती मानवजाति
अपने-अपने धर्म और विचारधारा के लिए
करती सभी को शर्मसार!
थकी-हारी-पछताती मानवजाति
अपने-अपने धर्म और विचारधारा के लिए
करती सभी को शर्मसार!
शब्द
शब्द तो हर किसी के पास होते हैं
लेकिन उन शब्दों की हैसियत
सभी के यहाँ
एक समान नहीं होती !
यानि कि शब्दों की अर्थवत्ता
सभी के यहाँ
एक समान नहीं होती !
यानि कि शब्दों की अर्थवत्ता
किसी राष्ट्राध्यक्ष के भी
बचकाने हो सकते हैं शब्द
जबकि उसी देश के किसी गुमनाम -अनाम से
बच्चे के शब्द सयाने।
बचकाने हो सकते हैं शब्द
जबकि उसी देश के किसी गुमनाम -अनाम से
बच्चे के शब्द सयाने।
कभी शब्द आगे और ऊपर निकल जाते है व्यक्ति से
कभी भूलुण्ठित गिरे-पडे सिर धुनते है शब्द
शब्द ऐसे ही नहीं ब्रह्म है
ब्रह्म हैं कभी भी अपने प्रयोक्ता सवार को
सहसा गिरा देने की स्वतंत्रता के कारण
नौ दो ग्यारह हो जाने की शक्ति के कारण
हो जाते हैं गालियाँ बकने वाले के ही विरुद्ध
कि देखो लोगों
सबसे अश्लीलतम मनुष्य
यहाँ खड़ा बोल रहा है
इसके गन्दे दिमाग के प्रति सभी
सूचित संज्ञानित और अवगत हो !
कभी भूलुण्ठित गिरे-पडे सिर धुनते है शब्द
शब्द ऐसे ही नहीं ब्रह्म है
ब्रह्म हैं कभी भी अपने प्रयोक्ता सवार को
सहसा गिरा देने की स्वतंत्रता के कारण
नौ दो ग्यारह हो जाने की शक्ति के कारण
हो जाते हैं गालियाँ बकने वाले के ही विरुद्ध
कि देखो लोगों
सबसे अश्लीलतम मनुष्य
यहाँ खड़ा बोल रहा है
इसके गन्दे दिमाग के प्रति सभी
सूचित संज्ञानित और अवगत हो !
शब्दों को उनके अर्थ और प्रभाव के लिए
तौला नहीं जा सकता किसी बटखरे से
उनका वजन सिर्फ उनके प्रयोक्ता के वजन
वजूद,आचरण और व्यवहार से ही जाना जा सकता है।
तौला नहीं जा सकता किसी बटखरे से
उनका वजन सिर्फ उनके प्रयोक्ता के वजन
वजूद,आचरण और व्यवहार से ही जाना जा सकता है।
शब्द सदैव किसी ईमानदार सटीक जासूसी कुत्ते की तरह
सारी दुनिया छोड़कर
अपने मालिक का सही पता बता जाते हैं ।
सारी दुनिया छोड़कर
अपने मालिक का सही पता बता जाते हैं ।
रामप्रकाश कुशवाहा
14/011/2019
14/011/2019
शुक्रवार, 15 नवंबर 2019
बुद्ध एक पुनर्विचार
बुद्ध एक पुनर्विचार
आस्था और विश्वास के साथ सबसे बड़ा खतरा यही होता है कि कभी भी धोखा हो सकता है ।बुद्ध इस धोखाधडी से बचना चाहते थे । इसीलिए उन्होंने अपने सच से ईश्वर को भी बाहर रखा । एक प्रजाति के रूप मे मानवजाति को सुखी और सुरक्षित करने के लिए सिर्फ करुणा ही पर्याप्त है। यहां तक तक कि उसकी करुणा मे मार्क्सवाद को भी समाहित देखा जा सकता है ।
बौद्ध धर्म ने मानव-चित्त और व्यक्तित्व को लेकर बिल्कुल स्वावलंबी और विशिष्ट सांस्कृतिक सौन्दर्यबोध उत्पन्न किया। मनुष्य मे अन्तर्निहित महानता की सम्भावना प्रदर्शित करने के लिए ही उनके अनुयायियों ने बुद्घ की विशाल बनवायी ।
बौद्ध देशों में मिलने वाली विशेष ढंग की बौद्धिक सभ्यता अन्य धर्म के अनुयायियों की तुलना मे उन्हें श्रेष्ठतर प्रमाणित करती है । यह अजीब पर्यवेक्षण है कि ईश्वर को केन्द्र में रखकर विकसित धर्म एक विकलांग और परजीवी मनुष्यता को जन्म देते है । ऐसे धर्म ईश्वर की कृपा प्राप्त रूप मे व्यक्ति - पूजा को बढ़ावा देते है । इसी संस्कार के कारण भारतीय लोकतंत्र भी व्यक्ति, वंश और परिवार केन्द्रित हो गया है ।
प्राचीन गणतंत्र से सम्बंधित होने के कारण बुद्ध का दर्शन स्वाभाविक रूप से आधुनिक लोकतंत्र के लिए प्रासंगिक और अनुरूप है जबकि सनातन धर्म राजतंत्र की स्वाभाविक व्युत्पत्ति होने के कारण रीढ़ विहीन चाटुकारिता की पोषक , सामन्ती विशिष्टता और भेदभाव को मान्यता देने वाली और लोकतांत्रिक समानता की विरोधी है ।
बौद्ध धर्म ने मानव-चित्त और व्यक्तित्व को लेकर बिल्कुल स्वावलंबी और विशिष्ट सांस्कृतिक सौन्दर्यबोध उत्पन्न किया। मनुष्य मे अन्तर्निहित महानता की सम्भावना प्रदर्शित करने के लिए ही उनके अनुयायियों ने बुद्घ की विशाल बनवायी ।
बौद्ध देशों में मिलने वाली विशेष ढंग की बौद्धिक सभ्यता अन्य धर्म के अनुयायियों की तुलना मे उन्हें श्रेष्ठतर प्रमाणित करती है । यह अजीब पर्यवेक्षण है कि ईश्वर को केन्द्र में रखकर विकसित धर्म एक विकलांग और परजीवी मनुष्यता को जन्म देते है । ऐसे धर्म ईश्वर की कृपा प्राप्त रूप मे व्यक्ति - पूजा को बढ़ावा देते है । इसी संस्कार के कारण भारतीय लोकतंत्र भी व्यक्ति, वंश और परिवार केन्द्रित हो गया है ।
प्राचीन गणतंत्र से सम्बंधित होने के कारण बुद्ध का दर्शन स्वाभाविक रूप से आधुनिक लोकतंत्र के लिए प्रासंगिक और अनुरूप है जबकि सनातन धर्म राजतंत्र की स्वाभाविक व्युत्पत्ति होने के कारण रीढ़ विहीन चाटुकारिता की पोषक , सामन्ती विशिष्टता और भेदभाव को मान्यता देने वाली और लोकतांत्रिक समानता की विरोधी है ।
(बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर गौतम बुद्ध को याद करते हुए )
रामप्रकाश कुशवाहा
30/04/2018
30/04/2018
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
-
अभिनव कदम - अंक २८ संपादक -जय प्रकाश धूमकेतु में प्रकाशित हिन्दी कविता में किसान-जीवन...
-
संवेद 54 जुलार्इ 2012 सम्पादक-किशन कालजयी .issn 2231.3885 Samved आज के समाजशास्त्रीय आलोचना के दौर में आत्मकथा की विधा आलोचकों...
-
पाखी के ज्ञानरंजन अंक सितम्बर 2012 में प्रकाशित ज्ञानरंजन की अधिकांश कहानियों के पाठकीय अनुभव की तुलना शाम को बाजार या पिफर किसी मे...