गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

अच्छे दिन और ...

क्या बिकना इतना जरुरी है कि
बिना बिके जिया ही न जाय !
या जीने के लिए ही बिकना बहुत जरुरी है ?
हम जीने के लिए हांफते रहें या बिकने के लिए ...
तुम रोज गिनते हो कि इतने लोग बिके
वह रोज गिनता है कि वह आज भी बिकने से बच गया
यह जरुरी नहीं है कि जो न बिके वह ख़राब माल ही हो
बहुत कीमती चीजें भी बिकने से रह जाया करती हैं
अपने सबसे महंगे खरीदार की प्रतीक्षा में
और जिसने बिकने से इंकार कर दिया हो
और जो मूल्यांकन के लिए भी उपलब्ध नहीं है
बिकाऊ नहीं है जो
पड़ा है किसी घर में बाजार से दूर
बाजार से बाहर
क्या वह समय में नहीं है ?
सिर्फ प्रतीक्षा करो चचा !
अपने अच्छे दिन आने की
प्रार्थना करो कि उसके बुरे दिन जल्दी आए
या फिर परिस्थितियों की घेराबंदी में वह घुटने टेक दे
कि किसी सुबह तुम दूकान खोलो
और वह बिकने के लिए हाजिर दिखे तुम्हारी देहरी पर !
दूकान खोलकर बैठे रहो चचा !
उसे अभी बिकना नहीं हैं
न ही किसी को खरीदने जाना है बाजार ...
                                                                   रामप्रकाश कुशवाहा की कविताएँ 
पत्नी के सम्मान में
( राग - बंध -अंध )

पत्नी के सम्मान में    
वापस लौट आये दुनिया के सारे अन्धविश्वास
वे भी जिन्हें  कभी मैंने  नापसन्द किया था 
जिनसे मै असहमत हुआ और जिन्हें अपने विवाहपूर्व काल में 
निर्णायक और घोषित रूप में कभी ख़ारिज भी  !

पत्नी को मेरी सारी निरीह्ताओं का पता है 
जैसे कि मै अपना ईश्वर बदल सकता हूँ लेकिन बोंस नहीं 
कि मध्यवर्ग का हर पुरुष अपनी दृश्य -अदृश्य मूँछ के साथ 
यथा -अवसर हिलाने के लिए एक अह्लाद्वर्धक पूँछ भी रखता है 
बेंत के विकल्प में सहलाना-क्रिया जैसे !

उन्हें चाहिए सुरक्षा का जोखिम-मुक्त आश्वासन 
जो मेरे हाथ में बिलकुल ही नहीं है 
क्या मै सुबह का घर से निकला शाम को सही-सलामत 
परिवार में वापस आ सकता हूँ !

क्या दूसरो के झूठ और शरारतों को पकड़ने वाला 
एंटीवायरस साफ्टवेयर है मेरे पास
क्या मुझमे बजट की बारीकियों और मंहगाई के आपसी रिश्तों  की 
थोड़ी भी समझ है !
और एक समझदार पूर्वानुमान के साथ बचत की सतर्कता भी 

पत्नी  ही हैं जो इस दुनिया में  सिर्फ एकमात्र मुझे ही सुधार सकती हैं 
और सबसे अधिक दुनिया की सुधार वाले मेरे असमभव सपनों से ही 
डरती है 
उन्हें मेरी निरपेक्ष और अकेली बहादुरी से डर लगता है 

सुनो जी ! तुम सारे बूद्धि-जीवी ही कटे -कटे रहते हो 
बिना जुड़े और जोड़े न  डकैत बना  जा सकता है न नेता 
जेबकतरे भी सामूहिक अभिनय से लोगो को लूट लेते हैं 
अकेली समझदारी तो मूर्खों के गैंग द्वारा भी रौंद कर मारी जा सकती है

मुझे कोई भ्रम नहीं है 
मै जानता हूँ इस दुनिया में जीवित लोगों की तुलना में 
मरे हुओ से सहमत होना अधिक आसान होता है 
असहमति अकेला बनाती है और असामाजिक भी 

मेरी पत्नी जो सामाजिक धोखा-धड़ी अपराध और दुर्घटना की शिकार
एक डरे हुए परिवार से है 
मुझे पूरी सावधानी और समझदारी के साथ उन्ही को जीना है 
उनके अविश्वासो और आशंकाओं के साथ अनुत्तरित 

घूस और पैरवी दोनो ही न देने -करने के स्वाभिमानी पागलपन में
योग्य होते हुए भी मैंने और इस समाज ने मिलकर उन्हें रखा है बेरोजगार
इसे तिकड़म की अभियांत्रिकी की अयोग्यता कहें या ईश्वर की इच्छा !

यह जरुरी तो नहीं कि मै जिस तरह सोच और समझ रहा हूँ 
उसी तरह सोचें और समझें आप
अभी जो भक्तिसंगीत का रिंगटोन बज रहा है
उसे बिना किसी अन्यथा और टिप्पणी के फ़िलहाल धैर्यपूर्वक  सुने !  


वैसे भी मै अभी नौकरी कर रहा हूँ समझे  आप !
कोई भी पार्टी न बनाने के  संवैधानिक अनुबंध के साथ

प्रेम के बादशाह शाहजहाँ  के लिए



उसकी प्रेम की सत्ता है या एक  सत्ताधारी  का प्रेम 
प्रदर्शन संकोच और अभिजात्य की पूरी गरिमा से ढंका हुआ 
सुरक्षा और प्रतीक्षा की चाहरदीवारी में बंद मनों की 
दिन -दिन तड़पती मुक्ति-उडान 

सत्ता की वर्जनाओं ने उन्हें एक अभिशाप की तरह छिपाकर रखा है 
उसका प्रेम और उसके परिवार की स्त्रियाँ 
सभी एक प्रतिष्ठित समूह की सुंदरियाँ थीं 

कम सुन्दर होते हुए भी कुलीनता की गरिमा से युक्त  और असाधारण 
विशिष्टता का अभिशाप लिए 
जहाँआरा कुँवारियाँ जिन्हें सत्ता की मर्यादा की रक्षा के लिए 
अदृश्य यानि पर्दानशीं कर रखा गया था 


प्रेम का बादशाह अपनी बेगम के साथ अब भी सोया है शान से 
पूरी अदब और सुरक्षा के साथ 
वह समयातीत और सत्ता से बेदखल होने के बावजूद 
एक जीवंत और शानदार उपस्थिति है 
औरन्गजेब की कैद के बावजूद उसकी आत्मा मुक्त रही लोकोत्तर प्रेम के लिए 
वह  उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सका 

प्रेम का बादशाह आज भी भर रहा है आगरे की जनता का पेट 
उसने अपनी सत्ता को कितना सुन्दर बना दिया था 
तबले की संगत पर 
आज भी उसके लिए मुँह से निकलता है-आह ताज!वाह ताज !


बादशाह-दो 

(बादशाह अकबर के लिए)


सब विश्वास में हैं 
और बादशाह भी 
विश्वास करने  के बादशाह को
विश्वास करने वाली प्रजा ही चाहिए 

हर तलवार चलाने वाला बादशाह चाहता है कि
उसके तलवार चलाने के दिनों को भुला दिया जाय 

बादशाह-तीन 

(बाबर के लिए )


उनके लिए जीतना बहुत ही जरुरी था 
वे आपने घर से उजड़े हुए लोग थे 
उन्हें कहीं बसने के लिए 
जीतना बहुत ही जरुरी था 
क्योंकि वे लड रहे थे 
आपनी मुक्ति और पुनर्जीवन के लिए

शब्दोत्सव में

कुछ शब्दों को दुहाराएंगे 
कुछ को नया बनाएँगे
कुछ को अगली बार रचेंगे 
कह-सुनकर मुस्काएंगे 

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

माताओं का सृजन-लोक

सम्पूर्ण सृष्टि में माँ का स्थान बहुत ऊंचा है . सच तो यही है कि जीवन और मृत्यु के आर-पार फैले हुए रिश्ते का नाम ही है माँ .माँ  सिर्फ  हमारे  अस्तित्व की ही नहीं बल्कि हमारी सामाजिकता की भी जननी हैं . किसी भी प्राणी का अपनी माँ और उसकी संतान के बीच का अटूट रिश्ता ,उसके जन्म के पहले ही उसके गर्भकाल से ही शुरू हो जाता है .हर प्राणी के लिए यह समय भी उसके अचेतन-अविकसित अस्तित्व को सुरक्षा का अव्यक्त अहसास सौंपता है .
        मैं कभी कभी मौज में ऐसा भी सोचता हूँ कि बच्चे अपनी माँ से डर न जाएँ ऐसा सोचकर ही प्रकृति नें स्त्रियों को दाढ़ी नहीं दी होगी . इसके विपरीत पुरुषों को इसलिए दाढ़ी दी होगी कि वह दूसरे प्रजाति के पशुओं और यहाँ तक कि बबर शेरो को भी डरा सके .एक प्रजाति के जैविक अस्तित्व को संभव करने से लेकर उसके संरक्षण तक के समस्त दायित्व प्रकृति नें स्त्री जाति को ही मुक्त होकर सौंपे हैं .यहाँ तक कि दुनिया के सभी महापुरुष दया ,ममता ,करुणा आदि स्त्रियोचित गुणों से समृद्ध होने के कारण ही महापुरुष बन पाए .अन्यथा पुरुष हारमोन का चरित्र, स्वभाव और प्रभाव तो हिंसक ही है .उसे संभवतः प्रकृति नें अपनी प्रजाति की रक्षा के लिए लड़ने और मरने के लिए ही बनाया है जैसा कि पशु-जगत  में भी देखा जाता  है .
बंदरिया माँ के लिए तो लोक में यह मान्यता और कहावत ही है कि बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को भी सीने से लगाए हुए  घूमती है . माँ के वात्सल्य के लिए एक दृष्टान्त ही बंदरिया का दिया जाता  है , स्तनधारियों के अतिरिक्त अंडज जिनमें सरीसृप और पक्षी-वर्ग दोनों ही शामिल हैं; माता को अपनी संतति रक्षा में जिसप्रकार संलग्न देखा जाता है वह ममता और मातृत्व के मामले में कई बार मानवी माओं को भी पीछे छोड़ने वाला होता है .
       यद्यपि अपनी प्रजाति की चिंता तो सभी जातियों के नरों में भी पाई जाती   है लेकिन तुलना में गर्भधारण से लेकर स्तनपान करने और  शैशव की असहायावस्था से निकलकर वयस्क बनने तक माँ की भूमिका, पिता की भूमिका से कुछ अधिक ही गहरी और निर्णायक होती है . वैसे भी अपनी सौ वर्ष लम्बी आयु और लगभग बीस वर्ष के लम्बे विकासकाल के साथ मनुष्य का बचपन कुछ अधिक और पर्याप्त लम्बा अभिभावकीय संरक्षण मांगता है .
          पशु जगत में भी  लकडबग्घों और हाथियों का परिवार तो माँ-प्रधान ही होता है . दरअसल सामाजिकता का आधार भी माँ और संतान के बीच के रिश्ते हैं .  विद्वानों की यह भी धारणा है कि आदिम मानव का परिवार भी मातृ-प्रधान समाज ही रहा होगा . मार्क्स के अनुसार तो पूँजी और संपत्ति के विकास नें ही मानव-सभ्यता को पुरुष-प्रधान समाज में बदल दिया .संतान की उत्पत्ति और उसके पालन में लगी रहने के कारण स्त्री जाति पिछड़ती चली गयी .इसके बावजूद परिवार संस्था की पुरातन संरचना में स्त्री का केन्द्रीय महत्त्व मध्यकाल में भी सुरक्षित ही रहा है .
         संतानों के पालन-पोषण में मातृ-मात्र का निवेश शरीर से लेकर मन और आत्मा के स्तर तक देखा जा सकता है . गर्भधारण से लेकर दुग्धपान तक तो माँ की देह का ही आश्रय है .यद्यपि पशुपालन के साथ इस आश्रय का वृत्त गाय माता से लेकर भैंस मौसी तक और उससे भी आगे मातृभूमि तक भी चला गया है .इस तरह सारी पृथ्वी ही हमारी माँ है .यह जननी महाभाव का विस्तार है .जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसीका भाव-आधार भी यही है . यद्यपि पुरुष-प्रधान आध्यात्म ममता-मोह की काफी भर्त्सना करता  है ; लेकिन सच्चाई यही है कि स्त्री ही सारी सृष्टि  के जैविक अस्तित्व ,समुदाय और सामाजिकता का भी आधार  है . मध्यकालीन भारतीय समाज ममत्व का जिसप्रकार निष्ठुरता की सीमा तक भर्त्सना करता रहता था वह मानवीय दृष्टि से उचित नहीं था.यह मुझे उसी प्रकार वास्तविक सत्य को छिपाने और भ्रमित करने वाला लगता  है ,जैसा कि भिक्षा और दान माँगने वाला भिक्षा देने वाले को सब कुछ को मिटटी और व्यर्थ होने का उपदेश देता  है . इस तथ्य और सत्य को छिपा कर कि यदि सब व्यर्थ है तो तुम मांग क्यों रहे हो भाई . दरअसल गृहस्थ ही सभी धार्मिक व्यापारों का भी आधार है और गृह का केंद्र है नारी का मातृ रूप . उसी को केंद्र में रखकर सभ्यता की संपूर्ण ईकाइयों का विकास हुआ है .
     वस्तुतः मानवीय चेतना सामान्यीकरण और विशेषीकरण के दो सीमांतों को स्पर्श करते हुए प्रवाहित होती है . इसे व्याकरण की भाषा में जातिवाचक संज्ञा और व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं . जातिवाचक संज्ञा हमारे सामान्य बोध की उपज है और व्यक्तिवाचक संज्ञा हमारे विशेष बोध की उपज . यह देखा जाता है कि जंगल में पशुओं के बच्चे भी अपनी माँ की विशेष पहचान रखते हैं . यह विशेषता मानव-शिशुओं में भी होती है . वे अपनी माँ और दूसरी स्त्री में फर्क करने लगते हैं . अपरिचित स्त्री चहरे को देखकर शिशुओं का रोने लगना बोध के विशेषीकरण से ही संभव होता है . श्रीकृष्ण की कथा में तो  शिशु श्रीकृष्ण अपरिचित स्तन को देखकर ही उन्हें विषाक्त दूध पिलाने आयी पूतना को दांत गड़ाकर मार ही डालते हैं .यह दूसरी बात है कि पूतना शब्द भी प्रतीकात्मक और सांकेतिक है और वह संतानहीन स्त्रियों में मिलने वाले ईर्ष्या-भाव के प्रति ही हमें सजग करता है . अपने पुत्र-प्राप्ति के लिए दूसरे के पुत्रों की बलि जैसी घटनाएँ तो पिछड़े समुदायों से आज भी सुनने को मिलती हैं .
       मुझे तो श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व का मनोवैज्ञानिक रहस्य भी जन्म देने वाली देवकी माँ से अलग यशोदा माँ के त्यागपूर्ण मातृत्व में ही दिखता है . कहते हैं कि इस दम्पति नें श्रीकृष्ण को बचाने के लिए अपनी नवजात पुत्री ही कंस के हाथों में सौंप दी थी . सिर्फ देवकी के श्रीकृष्ण तो एक सामान्य राजपुत्र बनकर ही रह जाते लेकिन श्रीकृष्ण का सामान्य प्रजा में से एक लोक- माँ यशोदा का पुत्र होना भी उन्हें लोक से न सिर्फ जोड़ता है बल्कि ऐसा ऋणी बना देता है कि वे जीवन भर उसका कर्ज उतारते हुए ही भगवान की कोटि तक पहुँच जाते हैं . मैं यहाँ जानबूझकर उन्हें पुराणों की तरह पहले से भगवान मानकर नहीं चल रहा हूँ .क्योंकि उन्हें भी भगवान होना प्रमाणित करने के लिए जीवन भर परीक्षा देनी पड़ी थी .यह परीक्षा लोक नें ली थी ,कंस नें ली थी और अंत में उन्हें ग्वाल कहने और समझने वाले दुर्योधन नें भी ली थी . श्रीकृष्ण इसीलिए दिव्य शिशु हैं कि वे दो माओं का मातृत्व पाने और जीने वाले असामान्य शिशु हैं . यह असामान्यता ही उनकी विशिष्टता है .यही सौभाग्य ही उन्हें लोकोत्तर और दिव्य शिशु बनाता  है . वे नन्द गोप के पूरे कबीले द्वारा संरक्षित और पाले गए शिशु हैं . वे ब्रज की संपूर्ण महिलाओं द्वारा स्नेह-सिंचित शिशु हैं . यह तथ्य आज भी देखा जा सकता है कि जिन शिशुओं को अधिक से अधिक हाथों में पलने और स्नेह पाने का अवसर मिलता है वे तुलना में उन शिशुओं से अधिक सामाजिक होते हैं जिन्हें सिर्फ अपनी माँ का ही स्नेह मिला होता है .
       दो माओं का मातृत्व पाने वाले श्रीकृष्ण की तुलना में अपनी आँखों पर पट्टी बांधने वाली गांधारी के असामान्य मातृत्व नें जिस जिद्दी और खलनायक संतान का विकास किया वह दुर्योधन है . कल्पना किया जा सकता है कि गांधारी नें कभी अपने शिशु की आँखों में झांक कर देखा ही नहीं होगा . दुर्योधन मातृत्व की दृष्टि से एक अभिशप्त ,दुर्घटनाग्रस्त और लावारिस बच्चा ही था .  माली यदि अपने लगाए उपवन से उदासीन हो जाए तो वह उपवन एक दिन वन में बदल जाएगा . अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर गांधारी माँ नें चाहे अपने पतिव्रता होने का असाधारण  आदर्श उपस्थित किया हो लेकिन उसके उस आदर्श में उसके पुत्र के लिए जगह नहीं थी .ऐसे मातृ-स्नेह से वंचित अतृप्त शिशु को एक दिन दुर्योधन ही होना था . मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने पर भीष्म का शैशव भी ऐसा ही विकलांग शैशव है . यद्यपि अपने पूर्व शिशुओं की हत्या से क्षुब्ध शांतनु अपनी प्रेयसी गंगा को शिशु भीष्म को नहीं मारने देते . गंगा उन्हें पालती भी हैं लेकिन एक हठधर्मी क्रूरता का माँ से मिला उत्तराधिकार ,युवा पुत्र की चिंता करने के स्थान पर स्वयं के प्रेम को जीने वाले पिता के प्रति वितृष्णा (याद करें सत्यवती और शांतनु का वह प्रसंग जिसकी शर्तों को पूरा करने के लिए भीष्म को आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ी) तथा गंगा जैसी माँ ; जो भीष्म को शांतनु को सौंपने के बाद कभी उनकी जिंदगी में वापस लौटी ही नहीं भीष्म की प्रतिज्ञा भी अपने भाइयों की हत्यारिन एवं उदासीन माँ के प्रति उसी प्रकार अनुभव जन्य घृणा एवं विरक्ति का परिणाम है जैसा कि राम नें कभी तीन रानियों वाले पिता दशरथ के पारिवारिक जीवन का हश्र देखकर सिर्फ एक ही पत्नी से संतोष किया यहाँ तक कि अपनी इकलौती पत्नी सीता को गवां कर भी दूसरी शादी का दृष्टान्त उपस्थित नहीं किया . इस तरह वे एकल दांपत्य के प्रेरक और प्रवर्तक आदर्श पूर्वज बनें . राम का चरित्र भी अपनी माँ कौशल्या के चरित्र की तरह ही अंतर्मुखी और दूसरों के जीवन में अनुचित हस्तक्षेप न करने वाला है . इससे भी माँ की महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता है .
     रामकथा के अनुसार राम को बचपन में ही विश्वामित्र द्वारा मांगे जाने पर पिता दशरथ ही नहीं बल्कि अपनी माँ कौशल्या से भी दूर जाना पड़ा था . आगे चलकर सीता के त्याग और शम्बूक वध के प्रसंग में राम में जो चारित्रिक क्रूरता और संवेदनहीनता मिलती है ,उसका सम्बन्ध असमय तोड़े गए पुष्प की तरह माँ से कम आयु में ही अलग कर दिए गए राम के इसी वात्सल्य कुपोषण में मिलता है .स्वाभाविक है कि अपनी माँ के बिना जीना सीख लेने वाला बच्चा वयस्क होने पर अपनी पत्नी सीता के बिना भी जी सकता  है .
           स्पष्ट है कि माँ सिर्फ धरती की प्रतीक और उसकी प्रतिनिधि ही नहीं है बल्कि उसका गुण-धर्म ,प्रभाव और महत्त्व भी धरती के सामान ही हैं .जैसे धरती का उचित पोषण एक स्वस्थ पौधे का विकास करता है उसीप्रकार माँ के स्नेह एवं स्वस्थ मातृत्व की छत्रछाया में ही स्वस्थ मनुष्य का विकास होता है .आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान भी यह मानता है कि व्यक्ति जो कुछ भी बनता है उसके पीछे उसके बचपन के रिश्तों और संबंधों के स्वरूप से निश्चित सम्बन्ध होता है . सभी अपराधी बचपन में अपनी माँ द्वारा उपेक्षित संताने ही हैं ,चाहे यह कुपोषण अधिक संतानों की भीड़ के कारण ही क्यों न हुआ हो . कौरवों के बुरा और लड़ाकू होने का यह भी एक मनोवैज्ञानिक कारण रहा होगा . आखिर सौ पुत्रों की भीड़ कोई कम तो नहीं होती !




गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

दो कविताएँ

1 .
जो कि मैं हूँ !

वह नीले तरल-सा पसरा आसमान
वह क्षितिजों का मोहक सौन्दर्य
वह अंधियारे परदे में टके ग्रहन्ताराओं की उजली चमक,
वह अन्तहीन सागर रोशनी सूरज की
झरनों की झर-झर, सर-सर हवाओं की
क्या वह मैं नहीं हूं।
या कि बस इतना ही हूं मैं
कदमों पर रेंगती हुई नन्हीं काया-छाया
तलवों से हथेलियों तक चेहरे से चुड़ी
एक रुढ़ पहचान के रूप में
अपनी सिमटी निजता पर घबराया.....
या कि झूठ है सब! वह अहं वह पहचान
क्योंकि समूची धरती नहीं है वह
नहीं है भरा-पूरा संसार
एक ओर अखण्ड
जो कि मै हूं।









२.
दूसरा जन्म

मैं लौट रहा हूँ
अपने उस विशाल साम्राज्य की ओर
जो संकीर्ण स्वार्थ की तात्कालिकताओं में बन्द नहीं है
अपरिचित है मेरा स्वत्व
अन्तहीन है मेरा आत्म
विलक्षण है मेरा जीवित स्पन्दन
मैं अपने उस आदिम आश्चर्य की ओर
पुन: लौट रहा हूँ वापस
जो अपने होने का आत्महन्ता अवमूल्यन
नहीं करता..............
हां मैं लौट रहा हूँ
उस अनन्तधर्मा विस्मय की ओर
जो संज्ञानों की जड़ता से मुक्त
जीवन का दूसरा जन्म है

बुधवार, 16 नवंबर 2016

अर्थशास्त्र










कुछ कहते हैं कि यह देश चल रहा ईश्वर के भरोसे
मैं कहता हूँ कि नहीं अब भी इसे चला रही करोड़ों परिवार संस्थाएं
उसी के ही जिम्मे है घर में जन्में मानसिक विकलांगों
एवं पागलों का भी भरण-पोषण
वही पालती है देश में जन्में बेरोजगारों को
घर ,खेत संपत्ति बेचकर भी करती रहती है बीमारों का इलाज
कि अब भी बूढ़ों के लिए परिवार ही अंतिम शरणालय है
न कि हमारी 'रकारें ...
अब भी बहुत से गाँव अँधेरे में डूबे हुए हैं
अब भी बहुत सी बस्तियों में सड़कें पहुंचना नहीं चाहती
अब भी बहुत से लोग अपनी जेब पर हाथ रखे शांति से मर जाना पसंद करते हैं
मंहगे अस्पतालों में इलाज के लिए जाने के स्थान पर
अब भी अभिभावक मरीज इलाज में मरते हुए घर को बचाने के लिए
बिना किसी को बताए निकाल भागते हैं घर के एकांत की ओर
अब भी 'रकारों को मालूम नहीं है कि
परिवार संस्था के बजट में शामिल रहता है
घर के उन सारे निकम्मों और निठल्लों का भोजन
जिनका पंजीकरण 'रकार के किसी भी रजिस्टर में नहीं रहता
'रकारों को अब भी नहीं मालूम कि
दिखाती हुई आय के बावजूद भी गरीब हो सकता है किसी घर का मुखिया
कि अमीरी सिर्फ रुपयों के आने से ही नहीं बल्कि
रुपयों के जाने से भी तय होनी चाहिए
तय होनी चाहिए अभिभावक आयकरदाता के दायित्वों
और उस परिवार के सदस्यों की संख्या के आधार पर भी
सड़क ,बिजली ,पानी ,दवाएं और शिक्षा न दे पाने वाली 'रकारे
मानती और जानती ही नहीं कि भारत में
परिवारों की ही होती है आय व्यक्ति की नहीं
और आय और व्यय के निर्धारण में
इन सांस्कृतिक -सामाजिक जमीनी सच्चाइयों को भी शामिल करना चाहिए
न कि लागू करना चाहिए पश्चिम का व्यक्तिवादी अर्थशास्त्र !
अब तक की अपनी सारी जानकारी ,समझदारी
प्राप्त शिक्षाओं और अर्जित उपाधियों के आधार पर
पूरी ईमानदारी और देशभक्ति के साथ
जनहित में मैं यह सत्यापित करता हूँ कि
अभी भी हमारा लोकतान्त्रिक शासन-तंत्र
जगह-जगह अनुपस्थित है और अनभि्ज्ञ है अपनें ही तमाम दायित्वों से
अभी हमारी 'रकारों को तो ठीक से 'रकार भी होना नहीं आया ....
न ही वहां उपस्थित होना आया जहाँ उन्हें उपस्थित होना ही चाहिए
( न ही नेताओं को ठीक से नेता होना भी !)
('रकारों से क्षमा याचना सहित )

बुधवार, 2 नवंबर 2016

हिन्दी की साहित्यिक चिंताएं

(पूर्व में प्रकाशित एक लेख का प्रासंगिक अंश )

हिन्दी के समकालीन सहित्यिक परिदृश्य का ईमानदार विश्लेषण , उसकी सृजनशीलता को दुष्प्रभावित करने वाले ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सही ढंग से समझे बिना संभव ही नहीं है । हिन्दी जाति के अपने यथार्थ के अनुसार उसकी सृजनात्मक समस्याएं और चुनौतियाॅं क्या हैं ? किन सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों से हिन्दी का लेखक वैश्विक धरातल पर कोई बड़ी साहित्यिक कृति देने में अब तक असफल रहा है ? वे कौन से सामूहिक एवं सापेक्षिक भटकाव हैं ,जिनके कारण विकास के अपेक्षाकृत अपने छोटे से काल में अनेक प्रायोजित वाद और विवाद पैदा करके भी वैश्विक धरातल पर कोई भी महत्त्वपूर्ण सृजनात्मक चुनौती देने में हिन्दी जगत प्रायः असमर्थ रहा है ? आत्ममूल्यांकन की प्रक्रिया में ऐसे बहुत से प्रश्न सामने आ सकते हैं । कुछ ऐसे भी कि ‘क्या यह सच नहीं है कि पूर्व में भी आधुनिक हिन्दी कविता का स्वर्ण युग कहे जाने वाले छायावाद के कवियों की भरपूर प्रशंसा भी हम उनके प्रभावकों जैसे रवीन्द्रनाथ टैगोर,शेली,कीट्स आदि का नाम छिपाकर ही कर पाते हैं ! क्या यह सच नहीं है कि जोखिम से बचने एवं जातीय सुरक्षा पाने की अभ्यस्त हिन्दी जाति और उसके सम्पादक ,अपने लेखकों से प्रायः बिरादराना प्रभाव एवं अनुशासन में लिखी गयी रचनाओं की ही मांग करते हंै ?
क्या यह एक ईमानदार तथ्य नहीं है कि पश्चिम की तरह हिन्दी में सृजन की सामाजिकता को , मात्र स्कूल बनाने की प्रवृत्ति के रूप में ही नहीं देखा जा सकता ! पश्चिम की मौलिक सृजनशीलता से अलग हिन्दी का साहित्यिक समाज ‘जातीय’(समूह-अनुमोदित) रचनाधर्मिता को ही अचेतन रूप से बढ़ावा देता रहा है । स्पष्ट रूप से यहाॅं मेरा आशय डाॅ0 रामविलास शर्मा की हिन्दी जाति से नहीं है ,बल्कि मौलिक एवं विशिष्ट सृजन की विरोधी सर्वमान्य-सामान्य को सृजित करने के उस अघोषित मनोवैज्ञानिक दबाव से है, जिसके कारण हर नए लेखक को अपनी ही तरह का नहीं लिखना पड़ता है बल्कि वैसा कुछ लिखना पड़ता है, जैसा लिखना दूसरों को बदलने की अधिक चुनौती न देता हो और जैसा लिखने पर लिखे हुए की स्वीकृति की संभावनाएं बढ़ जाती है। इस प्रवृत्ति की व्याख्या बाजार के मांग एवं पूर्ति के नियम से भी नहीं की जा सकती है ,क्योंकि यह सृजन की सामाजिक अनुकूलता यानि दूसरों जैसा होने की होड़ को प्रोत्साहित करती प्रतीत होती है । हजारों वर्षों से प्राप्त जाति-जीवी होने का संस्कार हिन्दी सृजनशीलता कोे पूर्ण मौलिक विकल्प की खोज करने ही नहीं देता। इसे और स्पष्ट करते हुए कहें तो प्रकाशित होने और समर्थन पाने के अचेतन मानसिक दबाव में हम वैसा कुछ भी नहीं लिख और रच सकते , जो हिन्दी बिरादरी के संस्कार,सोच और मुहावरे से बाहर की उपस्थिति हो ।
इस तरह अपनी रूढ़िवादी पृष्ठभूमि और पारम्परिक संस्कार के कारण ;जाति में जीवित और सुखी रह पाने के अपने अचेतन असुरक्षा बोध के कारण हिन्दी मनीषा बहुत जल्दी ही जाति बनाने लग जाती है । उसका अधिकांश लेखन तर्ज की मर्ज का शिकार है । हिन्दी में ऐसी कई पत्रिकाएं हैं ,जिनके स्वनामधन्य सम्पादकों की कृति-आस्वाद की आदतें एवं उनके मानक तीस वर्षों से भी नहीं बदले । ऐसी पत्रिकाओं ने अपने प्रभाव-क्षेत्र के लेखकों और उनके लेखन से प्रभावित होकर पढ़ती-लिखती आ रही परवर्ती पीढ़ी को कुछ इस प्रकार अपनी रुचि,सोच, पसन्द-नापसन्द, स्वीकार-अस्वीकार की निजी बौद्धिक सीमा में नियन्त्रित और निर्देशित किया है कि हर पत्रिका और उसके द्वारा प्रकाशित साहित्य अपने अनुप्रभावित लेखक-समूह के साथ एक अलग जातीय स्कूल में बदल गए हैं ।
हिन्दी पाठकों और लेखकों को सृजन की पृष्ठभूमि के रूप में प्राप्त सामाजिक यथार्थ को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो उन्नीसवीं शताब्दी के औद्याोगिक क्रान्ति से लेकर, बीसवीं शताब्दी के कम्प्यूटर क्रान्ति तक, उसके अर्थ-तन्त्र एवं समाज नें स्वरूप बदला है । व्यापक उपभोक्ता वर्ग तक पहुॅंचने के लिए विकसित विपणन तन्त्र ने मजदूरों को कारखानों से निकालकर सर्विस सेन्टरों एवं शो रूमों के प्रशिक्षित कर्मचारियों एवं कुलियों में बदल दिया है । आधुनिक आटोमेटिक मशीनों ने कारखानों से मजदूरों की भीड़ को बाहर कर दिया है । अब उनके लिए सेल्स मैन की भूमिका ही बची है । पूंजीपतियों की गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा और उपभोक्ताओं को आकर्षित करने अर्थ-युद्ध के बीच अतिरिक्त मूल्य एक काल्पनिक अवधारणा बन गयी है और उसके स्थान पर मध्यवर्गीय जीवन को पालने में सहायक विनिमय मूल्य एवं दलाल संस्कृति निर्णायक प्रमाणित हुई है । इस सैद्धान्तिक अन्तर्विरोध से आंखे चुराते हुए भारतीय वामपन्थ पहले भारतीय किसानों की ओर बढ़ा फिर बढ़ती हुई जनसंख्या और बंटती जमीनों के यथार्थ से पलायन कर वन-विभाग सम्बन्धी कानूनों से भूमि के सरकारी अधिग्रहण के विरुद्ध उपजे असन्तोष को हवा देने के लिए जंगलों की ओर निकल गया । एक समग्र एवं आदर्श साम्यवादी व्यवस्था और समाज के निर्माण में आने वाली चुनौतियों से मुॅंह चुराते हुए ,वैश्विक एवं औद्योगिक पूंजीवाद से बचते-बचाते भारत में सर्वहारा की खोज आदिवासियों को वामपन्थ में दीक्षित करने के रूप में पूरी हुई है या बनते हुए बाधों से हुए विस्थापितों के पुनर्वास की चिन्ता और संघर्ष के रूप में । भारतीय सामाजिक यथार्थ और उसके बुद्धिजीवियों के ऐसे ही कुछ वैचारिक सीमान्त है।
सच तो यह है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हिन्दी का साहित्यकार, गांधीवाद और माक्र्सवाद की आदर्शवादिता से प्रभावित रहने के कारण वस्तुनिष्ठ हो ही नहीं पाता है । वह किसी नए प्रस्थान के लिए असमर्थ ,पराश्रित और मोहाच्छन्न है । उस समय तक जाति और सम्प्रदाय जैसी समस्याओं कांे विमर्श का विषय बनानें में वह अपनी हेठी समझता है । कुटुम्बीय परिवार की पृष्ठभूमि तथा जातीय समाज की मनोरचना के कारण, स्त्री-स्वातन्त्र्य एवं विमर्श का पाश्चात्य स्वरूप यहाॅं आ ही नहीं सका ; क्योंकि आर्थिक वर्गान्तरण से जातीय वर्गान्तरण, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अधिक जटिल और संघर्षपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है । पश्चिम में जाति से अधिक कुलीनता-अकुलीनता की अवधारणा नें वर्गान्तर किया है । इसलिए वर्ग-विभाजन का आर्थिक आधार ही उनके लिए पर्याप्त था । इसके अतिरिक्त अपनी पिरामिडीय संरचना के कारण पूॅंजीवादी व्यवस्था का अधिकार-तन्त्र निम्नस्तरीय एवं अकुशल व्यक्तियों को भी शोषण के बावजूद उनका इस्तेमाल करते हुए उन्हें संरक्षित भी करता था । संभवतः जटिल विकास के इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से बचने के लिए भारतीय वामपन्थ नें वन-विभाग से शोषितों के रूप में आदिवासियों एवं जनजातियों की खोज की । हिन्दी के अधिकांश प्रगतिशील साहित्यकार ,भारतीय वामपन्थ के विकास ,शोषण एवं संघर्ष की मुख्य भूमि को छोड़कर ,सशस्त्र संघर्ष के बावजूद नक्सलवाद की वैचारिक पलायनवादिता को सृजन एवं विचार की चुनौती के रूप में देखते ही नहीं ।
अपनी भोली-ईमानदार प्रतिबद्धता एवं संवेदनशीलता के साथ हिन्दी में माक्र्सवादी सिद्धान्तों और वामपन्थी क्रान्ति के सपनों पर आधारित प्रगतिशील साहित्य एक ऐतिहासिक सच्चाई है ; लेकिन इस सच्चाई ने जिस प्रतिगामी साहित्यिक सच्चाई को जन्म दिया है ,वह है सामाजिक यथार्थ का साहित्यिक यथार्थ में रूपान्तरण न कर पाने की विफलता । एक अवरुद्ध समाज अपने यथार्थ को देर तक परिवर्तित नहीं कर पाता । ऐसे में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के कथाकार प्रेमचन्द का , इक्कीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक प्रासंगिक बने रहना , उनकी प्रतिभा की महानता को जितना प्रमाणित करता है ,उससे अधिक भारतीय समाज के अवरूद्ध यथार्थ की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है । हिन्दी क्षेत्र के अपरिवर्तित यथार्थ नें उसके बहुआयामी साहित्यिक उपयोग की सम्भावना को सीमित किया है । यदि कथा-साहित्य को लें तो यथार्थ की अपरिवर्तनीयता नें लम्बे समय से हिन्दी की कथात्मक सृजनशीलता को औसत और आवृत्तिपरक बनाए रखा है । लम्बे समय तक कुण्ठित यथार्थ के चित्रण से हिन्दी के पाठकों एवं लेखकों का बौद्धिक अन्तराल घट रहा है । लेखक ऐसा नहीं लिख पा रहा है कि उसका लिखा पाठक को पढ़ने की चुनौती दे । वास्तविक घटनाएं जो लिखित रूप में ही समाचार-पत्रों और दृश्य मीडिया के माध्यम से पहुॅंचती हैं ,वह तेजी से बढ़ते विकास के साथ अधिक लांेमहर्षक और अविश्वसनीय होती जाती हैं । आखिर समकालीन यथार्थ भी समकालीन समाज के मनुष्यों की सामूहिक सृजनशीलता का परिणाम अर्थात् मानवीय उत्पाद ही है , चाहे वह अपराध या भ्रष्टाचार ही क्यों न हो !
सैद्धान्तिक दृष्टि से साहित्यिक सृजनशीलता भी अनुपस्थित को उपस्थित करने की कला है और इस प्रकार कोई भी सृजन सदैव ही पृष्ठभूमि का अतिक्रमण है । वह वर्तमान के यथार्थ का उपयोग करते हुए भी उपलब्ध वर्तमान का अतिक्रमण है । वह चाहे आदर्शपरक हो या यथार्थपरक सृजित यथार्थ सदैव ही मनुष्य की चेतना द्वारा पूर्व यथार्थ के अतिक्रमण के रूप में घटित होता है। यह अतिक्रमण न घटित कर पाने के कारण ही हिन्दी में प्रकाशित यथार्थवादी कहानियों की एक बड़ी संख्या अपने समकालीन यथार्थ की भाषिक अभिव्यक्ति मात्र हैं । वे सामाजिक यथार्थ का साहित्यिक यथार्थ में सफल रूपान्तरण नहीं कर पातीं ,क्योंकि साहित्यिक यथार्थ एक सृजित यथार्थ होता है ।
अपने समकालीन यथार्थ का साहित्यिक सृजनशीलता में भी अतिक्रमण न कर पाने की अपनी ऐतिहासिक एवं प्रवृत्तिगत सीमाओं तथा विशुद्ध भारतीय शैली के बिरादराना चयन के बावजूद , व्यावसायिक दबाव न होने से लघु पत्रिकाओं नें कई मौलिक एवं प्रयोगधर्मी रचनाएं भी प्रकाशित कीं । उनमें सच को और निर्भयता से प्रस्तुत करने का गैर-व्यावसायिक साहस भी दिखा; लेकिन, यह भी सच है कि हर दौर में लघु पत्रिकाओं के सम्पादको में एक बड़ी संख्या साहित्यकार बनने के अभिलाषी नवोदित साहित्यकारों की ही रही है । स्वयं साहित्यकार न होते हुए भी ऐसे सम्पादक साहित्यिक रचनाओं के लिए मेजबान की भूमिका में थे । एक देश द्वारा दूसरे देश को मान्यता देने की शैली में-दूसरी साहित्यिक लघु-पत्रिकाओं को अपने साथ नाम-पते विज्ञप्ति करने की अच्छी प्रथा नें हिन्दी में लघु-पत्रिकाओं के आन्दोलन को एक लोकतान्त्रिक साहित्यिक संस्कृति का निर्माता बना दिया । लघु-पत्रिकाओं ने नवोदित साहित्यकारों के लिए न सिर्फ आरम्भी मंच उपलब्ध कराया बल्कि उनके प्रशिक्षण-केन्द्र के रूप में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है । इसी साहित्यिक परिदृश्य का एक दूसरा पहलू यह है कि सम्पादकीय दृष्टिहीनता के कारण हिन्दी का साहित्यिक परिदृश्य सामान्य रचनाओं से पट गया है। स्थगित सामाजिक यथार्थ से टकराते-टकराते हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य और साहित्यकार भी स्थगित साहित्यिक यथार्थ का निर्माता और चितेरा बन गया है । उसके द्वारा सृजित कथा-वस्तु, उठाई गई समस्याएं और विचार सभी कुछ पुनरावर्ती हो गए हैं ।
व्यावसायिक पूंजी के दबाव से मुक्त होने के कारण , हिन्दी की लघु-पत्रिकाओं नें समानान्तर सिनेमा की तरह ही एक समानान्तर साहित्यिक पाठक-वर्ग भी पैदा किया है । अलग-अलग ग्रहों को केन्द्र में रखकर जैसे अन्तरिक्षीय पदार्थ एकत्रित होकर अनेक सूर्य बना देते हैं ; हिन्दी के अनेक प्रतिभाशाली साहित्यकारों के नाम से जुडी साहित्यिक पत्रिकाएं अपना नियमित पाठकवर्ग एवं आर्थिक संसाधन विकसित कर चुकी हैं । उनसे जुड़े साहित्यकार एवं प्रशंसक भी उनकी ताकत हैंे। कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं तो लेखकों का अलग स्कूल ही बना रही हैं । इसे स्थानीयता का प्रभाव कहें या आंचलिकता का - हिन्दी की कई पत्रिकाओं नें निजी लेखक टीम विकसित कर ली है । ऐसी पत्रिकाओं ने अपने पाठकों को भी विशेषीकृत किया है । मनोविज्ञान का एक निष्कर्ष है कि जुड़वा बालकों का सही विकास नहीं होता क्योंकि वे एक-दूसरे का ही अनुकरण करते रह जाते हैं । किसी तीसरे के प्रति बिल्कुल उदासीन रहने के कारण कुछ नया नहीं सीख पाते । हिन्दी की अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी प्रायोजित लेखन का शिकार होकर अपने अलग वैचारिक साहित्यिक पूर्वाग्रह विकसित कर लिए हैं । साहित्य के इतिहास पर चढ़ाई करने वाले अलग साहित्यिक गिरोह के रूप में सम्पादकीय आत्मश्लाधा एवं महत्त्वपूर्ण होने के भ्रम के साथ सिर्फ वार्द्धक्य ही नहीं, बल्कि मौलिक एवं नई सृजनशीलता की दृष्टि से मृत्यु की ओर भी बढ़ रही हंै। इसे हिन्दी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उसकी शीर्ष साहित्यिक पत्रिकाएं भी किसी दल या व्यक्ति-विशेष का साहित्यिक ‘फ्रण्ट’ नजर आने लगी हैं । निजी जीवन में चरित्रहीनता के आरोपों का सामना कर रहे कुछ सम्पादकों नें तो किसी अन्धे-बहरे की तरह व्यापक सहित्यिक समाज और सरोकारों से स्वयं को काट लिया है । वे अपने ऊपर लगे आरोपों के मानसिक प्रतिरोध में निर्लज्ज ,असंवादी ,सीमित ,संकीर्ण एवं असामान्य हो गए हैं । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीति की सभी बुराइयों के प्रतिनिधि व्यवहार, हिन्दी-साहित्य की रचनाधर्मिता और विकास के परिदृश्य को भी विद्रूपित कर रहे हैं ।
एक सीमा तक हिन्दी-साहित्य के वर्तमान परिदृश्य को , उसके राजनीतिक यथार्थ का ही साहित्यिक रूपक कहा जा सकता हैं । यथार्थ की अनुकूल या प्रतिकूल सृजनात्मक सम्भावनाओं पर विचार करने के स्थान पर उसका साहित्यकार प्रायः अपने समकालीन इतिहास और यथार्थ का साहित्यिक रूपान्तरण प्रस्तुत करता है । इससे उसके लेखन में मानवीय सृजनशीलता के अन्य आयाम नहीं उभर पाते । उसका अधिकांश साहित्य सम्पूर्ण मानव-जाति के नाम सृजित ,सम्बोधित और सम्प्रेषित भी नहीं है । वह कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों के नाम सम्बोधित निजी पत्र बनकर रह गया है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हिन्दी का साहित्यकार जिन मूल्यांकन-मानों की कल्पना कर साहित्य सृजित करता है , उसकी हैसियत मात्र एक स्कूल की ही है । एक आंचलिक या क्षेत्रीय सच्चाई की तरह उसके साहित्यिक समाज नें सराहना और समीक्षा के नाम पर मूल्यांकन-मान के रूप में जो फतवे जारी किए है-वे काफी बचकाने अथवा नीरस है।
हिन्दी-साहित्य में भी वर्चस्व और प्रभुत्त्व के कांग्रेसनुमा सत्ता-केन्द्रों के साथ , अनेक क्षेत्रीय शक्तियाॅं और क्षत्रप काबिज हो गए हैं या काबिज होने का प्रयास कर रहें हैं । कुछ पुराने उजड़े हुए साहित्यिक-केन्द पुनःः संगठित हो रहे है। कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने अपनी उपेक्षा से आहत मन की प्रतिक्रिया में साहित्यिक पत्रिकाएं निकाल ली हैं । हिन्दी का साहित्यिक चरित्र भारतीय राजनीति के चरित्र का ही अनुकरण करता प्रतीत होता है । जिस प्रकार नेहरू और शास्त्री के बाद आपात काल के कांग्रेस नें सत्ता और इतिहास को बन्धक बनाने के प्रायोजित प्रयास में , काल-पात्र गड़वाने से लेकर प्रतिभा-नियोजन के लिए पार्टी से योग्यों का निष्कासन किया -व्यक्तित्व और चरित्र से हीन चाटुकारों को मुख्यमंत्री बनाकर जनता के ऊपर थोपने का असफल एवं आत्मघाती प्रयास किया और जिसका ही प्रतिक्रियात्म्क परिणाम यह हुआ कि तिरस्कृत-निष्कासित प्रतिभाओं ने अलग पार्टी ही बना ली और आगे चलकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक बने । इतिहास और सत्ता का मुख्य राजमार्ग साजिशन बन्द कर दिए जाने से समर्थ प्रतिभाओं ने स्वतंत्रता,प्रतिरोध और विकल्प के लिए क्षेत्रीय पार्टियाॅं बनायीं । कुछ-कुछ वैसा ही -व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा,राग-द्वेष,उपेक्षा तथा स्थापन-विस्थापन के भितरघातों के प्रतिक्रियात्मक सन्तुलन नें हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य को बहुवैकल्पिक एवं विविधतापूर्ण बना दिया है ।
इस रूढ़िवादी देश में जैसे आजादी के पूर्व कुछ ही नेताओं ने मिलकर भारत-’पाकिस्तान के रूप में कई करोड़ भारतीयों का भविष्य और वर्तमान बिगाड़ दिया ,वैसे ही हिन्दी के साहित्यिक इतिहास को कुछ गिने-चुने वर्चस्वशाली मस्तिष्क ही बना-बिगाड़ और बांट रहे है। सम्बन्धों एवं रुचियों पर आधारित उनकी स्मृतियाॅं एवं उनका प्रायोजित चयन ही हिन्दी साहित्य के मानक इतिहास के रूप में विज्ञापित हो रहा है । इधर इस आरोप का प्रतिपक्ष भी देखने में आ रहा है -स्कूलों और विश्वविद्यालयों तक के पाठ्यक्रमों में गैर-मानक साहित्य और साहित्यकारों की अराजक प्रविष्टि के रूप में । लघु पत्रिकाओं की बढ़ती हुई संख्या के पीछे साहित्य में सक्रिय प्रायोजित सृजनशीलता तथा वर्चस्व के यथार्थ से असहमत साहित्यिक विपक्ष और प्रतिरोध की समानान्तर साहित्यिक संस्कृति के निर्माण का संघर्ष भी है।
‘समकालीन सोच’ के प्रवेशांक (जून 1989) में व्यक्त डाॅ0 पी0एन0सिंह की इस विचारपूर्ण समझ का विस्तार करना भी हिन्दी समाज और साहित्य के विश्लेषण में सहायक होगा कि ‘ अभी हमारी सामाजिक चित्ति मुख्यतः मध्ययुगीन है,जिसमें आदिम अवशेषों की भी कमी नहीं है । हमारा वैज्ञानिक और ऐतिहासिक ज्ञान हमारी सामाजिक चेतना एवं आचरण की वस्तु नहीं है , अभी यह मात्र सूचना की चीज है । हमारे वैज्ञानिक एवं विद्वान सामाजिक संवेदना के स्तर पर अपढ़ हैं । हमारे यहाॅं शास्त्रज्ञों का नहीं ,बल्कि बुद्धिधर्मियों का हमेशा अभाव रहा है ।’ इस अभाव की पूर्ति हिन्दी समाज अन्तर्निभरता और अन्तर्सहमति से करता है । उसके जातीय या प्रवृत्तिपरक सृजनधर्मिता का राज भी यही है । इसके कारण ही वह प्रायः प्रतिभा-स्वातंत्र्य को एक विजातीय एवं विपक्षी तत्त्व के रूप में देखता है । नए लेखकों को एक पूर्वनिर्धारित द्रैक पर चलकर आने का अग्रिम प्रस्ताव भेजता है । लेखन में नव-रीतिवादी आवृत्ति की परिस्थितियाॅं पैदा करता है ।
इस जड़ता को तोड़ने के लिए सभ्यता के विकास-क्रम में सामने आयीं अद्यतन सूचनाओं को हिन्दी के आम लेखकों-पाठकों तक उपलब्ध कराने की जरूरत है । अधिक से अधिक विदेशी साहित्य को हिन्दी भाषा में उपलब्ध कराने की भी जरूरत है । हिन्दी के ऐसे साहित्यिक परिदृश्य पर यह सुझावपरक टिप्पणी की जा सकती है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की उच्चस्तरीय पाठ्य-सामग्री सर्वसुलभ न होने के कारण हिन्दी मनीषा के सृजनात्मक उत्पाद भी किसी अपढ़ एवं अप्रशिक्षित मस्तिष्क की उपज की तरह सामनें आते हैं । क्योंकि सामाजिक यथार्थ के साहित्यिक यथार्थ एवं कृति में रूपान्तरण की प्रक्रिया रचनाकार के बौद्धिक श्रम ,सोच , दृष्टि एवं ज्ञान के समन्वय के पश्चात् ही किसी विशिष्ट कृति के सृजन के रूप में पूरी हो पाती है ।
हिन्दी के सहित्यिक परिदृश्य के समाज-वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए हिन्दी सिनेमा से उधार लिए गए व्यावसायिक और समानान्तर जैसे शब्दों से बेहतर विशेषण मुझे दूसरे नहीं दीखते। व्यवसायिक के स्थान पर लोकप्रिय शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है ;लेकिन, हिन्दी में भारतेन्दु ,देवकीनन्दन खत्री ,प्रेमचन्द,दुष्यन्त और हरिवंशराय बच्चन जैसे गिने-चुने लेखकों को छोड़कर किसी को लोकप्रिय साहित्यकार कहना भी इस शब्द का अपमान करना ही होगा । व्यावसायिकता से मेरा प्रयोजन पेशेवर रूप से प्रायोजित साहित्य से है । लोकप्रिय में प्रभावी नेतृत्त्व उपभोक्ता या पाठक वर्ग का रहता है जबकि व्यावसायिक में व्यवसायी का-यद्यपि वह अपनी सारी रीति एवं नीति उपभोक्ता या पाठक को केन्द्र में रखकर ही बनाता है, लेकिन बाजार पर निर्भर रहने के कारण प्रायः पाठक वर्ग उसकी सृजनशीलता एवं श्रम पर आश्रित तथा प्रतीक्षा में ही रहता है । एक बार बिकाऊ माल की सही पहचान हो जाने के बाद साहित्यिक प्रवृत्तियाॅं आवृत्ति या व्यसन के रूप में, रूप बदल-बदलकर थोड़े हेर-फेर के साथ पाठकों तक पहुॅंचने लगती है । यही कारण है कि व्यावसायिक पत्रिकाएं प्रायः यथा-स्थितिवादी होती हैं ;रूप ,सौन्दर्य एवं आस्वादधर्मी होती हैं।
सामान्यतः लघु पत्रिकाओं के आन्दोलन को बाजारवाद और उपभोक्ता-संस्कृति के समानान्तर रचनात्मक प्रतिरोध की संस्कृति के रूप में देखा जाता है । इस देखने का ठोस आधार भी है । उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव से विकृत रचनाशीलता का सबसे प्रामाणिक उदाहरण हिन्दी फिल्मों की वर्तमान दशा-दिशा है । लोकप्रियता के अर्थशास्त्र नें उसे नुस्खों के अजायबघर में बदल दिया है । हिट-पिट के उसके लम्बे इतिहास नें उसकी व्यावसायिकता को एक कला-संस्कृति में बदल दिया है । हिन्दी की व्यावसायिक पत्रिकाओं ने भी साहित्यिक सृजनशीलता को एक अलग कलात्मक रूढ़ि दी है । इस रूढ़ि की एक कलात्मक उपलब्धि है- हिन्दी में गीत और नवगीत लेखन की निरन्तरता तथा पारिवारिक कहानियों की आवृत्तिपूर्ण उपस्थिति आदि ; लेकिन हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य में विचारहीन विचारशीलता अथवा अवरुद्ध विचारशीलता के यथार्थ का भी ठोस ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है ।
इस परिदृश्य को देखते हुए आश्चर्य नहीं कि हिन्दी की मुक्त विचारशीलता का अधिकांश हिस्सा लघु-पत्रिकाओं में छपकर ही सामने आता है । हिन्दी का प्रबुद्ध पाठक वर्ग लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित साहित्य को समानान्तर साहित्य के रूप में स्वीकार करता है । साहित्यिक सृजनशीलता के अधिक ईमानदार और बहुआयामी स्वरूप लघु-पत्रिकाओं के माध्यम से ही हिन्दी में सामने आ रहा है । व्यावसायिकता के दबावों से मुक्त गम्भीर विचारशीलता एवं प्रतिरोध की साहित्यिक संस्कृति को जन्म देने के कारण हिन्दी का समानान्तर साहित्य , बौद्धिक स्वातंन्न्य का असंगठित क्षेत्र बनकर भी उभरा है । असंगटित इसलिए कि एक-दूसरे को महत्त्व एवं स्वीकृति देने के बावजूद हिन्दी का यह साहित्यिक परिदृश्य अन्तरिक्ष में फैले तारों अथवा भारतीय राजनीति में सक्रिय क्षेत्रीय दलों की तरह इतना बिखरा हुआ है कि यदि वैयक्तिक ग्राहक न हो तो हिन्दी क्षेत्र के अधिकांश शहरों और कस्बों में इन पत्रिकाओं की सार्वजनिक उपस्थिति देखने को नहीं मिलती । बुक स्टालों पर इनकी अनुपस्थितिं एक सामान्य पाठक के लिए समकालीन सृजनशीलता के इतिहास से भी अनुपस्थित करती है । व्यावसायिक पत्रिकाओं के बीच स्थानीय लघु-पत्रिकाएं ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं ; फिर भी ये लघु-पत्रिकाएं हिन्दी-क्षेत्र एवं हिन्दी क्षेत्र से बाहर भी साहित्यिक सृजनशीलता का सार्थक परिवेश एवं उपनिवेश निर्मित करती हैं ।
गम्भीरता से देखा जाय तो सम्पादक साहित्यिक इतिहास के निर्माण का प्रथम द्वार ही है ।
वह रचना का प्रथम किन्तु मौन समीक्षक होता है । वह रचना का प्रस्तावक होता है । इधर हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में यह भूमिका किसी व्यक्ति-विशेष की नहीं बल्कि व्यक्ति-समूह की होने लगी है । यह चेहरा-विहीन सम्पादन का दौर है । अब यदि कोई रचना अस्वीकृत होती है तो सम्पादकीय टीम में शामिल पता नहीं किसने किया । अब इतिहास में वैसा आरोप नहीं लगाया जा सकता , जैसा कि निराला की ‘जुही की कली’ कविता न छापने पर महावीर प्रसाद द्विवेद्वी के सठियाने की बात ध्यान में आती है । इधर कई साहित्यिक पत्रिकाएं एक साझे मंच में बदल गई हैं और ‘खण्डे-खण्डे सम्पादक भिन्ना ’ जैसी स्थिति हो गई है । अतिथि सम्पादक , चयन सम्पादक ,कार्यकारी सम्पादक और वैधानिक सम्पादक जैसी अनेक कोटियाॅं बन गई है । सम्पादन में ‘अन्य-पुरुष’ के प्रचलन नें आहत लेखक द्वारा सम्पादक को गाली दिए जाने की सम्भावना ही समाप्त कर दी है । पत्रिकाओं और लेखकों की भीड़ में रचना की स्थिति कन्या जैसी हो गयी है ।
एक जगह से खेद सहित वाला जवाब मिल गया तो प्रकाशन रूपी विवाह के लिए दूसरी पत्रिका का दरवाजा देखिए। अधिक चिन्ता की कोई बात नहीं -क्योंकि जो पढ़ रहा है वही पढ़ रहा है और वह कहीं भी पढ़ लेगा । हिन्दी का नए दौर का जो साहित्यिक परिदृश्य है उसमें लेखक ही पाठक है और पाठक ही लेखक । व्यसनी है तो छपने की लालच में खरीदेगा ही और पढेगा ही । छपेगा तो लेखक कहलाएगा नहीं तो पत्र लिखेगा कि अगली बार जब वह छपे तो उसके छपने पर भी पत्र लिखने वाले रहें । अन्यथा नाराज होने पर सभी मौन साध लेंगे ।
सच तो यह है कि भारत के लिए प्रगतिशीलता का एक ही सही तात्पर्य हो सकता है-अपनी सृजनशीलता के माध्यम से अतीत के यथार्थ में परिवर्तनकारी हस्तक्षेप । इस दृष्टि से मैं उन्हीं सम्पादकों का सम्पादन-कर्म सार्थक मानता हूॅं , जो किसी न किसी रूप में अतीत से मुक्त होने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते हैं । यह प्रक्रिया बेहतर भविष्य के सपने के साथ बेहतर विकल्प की तलाश के बिना सम्भव ही नहीं है । एक सार्थक साहित्यिक सृजन इसी यात्रा में ही घटित हो सकता है ।


रामप्रकाश कुशवाहा

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

कुछ सूक्तियां मैंने भी रची हैं -

जिंदगी के पक्ष में होना 
बहती हुई नदी के पक्ष में होना है 
अभी बिलकुल अभी के जीवित वर्त्तमान के पक्ष में होना है 
एक जलते हुए जीवन के बुझने की चिंता के साथ जीना है 
करना है आँधियों से सीधा संवाद 
अन्धकार में डूबे एवं अपने गंतव्य को जाते रास्ते से चिपके रहना है
उजाला होने तक या बिना उजाले के भी
चलते जाना है अपनी चुनी हुई राह
जिन्दगी के पक्ष में होना
अतीत की सूखी हुई नदी के गीत गाना नहीं है
जिंदगी के पक्ष में होना
ताजी और भीगी हुई नदी से सीधे बात करना है .






कुछ सूक्तियां मैंने भी रची हैं -


० यदि स्वर्ग का कोई रास्ता है तो वह कठोर परिश्रम के नरक से होकर ही गुजरता है .
० दुर्भाग्य को नहीं होतीं आँखें कि वह
 निरंतर असफलताएँ देने के लिए मनुष्य के भाग्य की निगरानी करता रहे .
० बौड़म दास की कुटिया 
दुनिया हुई गजेडी
                                                                                                                 रामप्रकाश कुशवाहा







...

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

माओं का सृजन-लोक

सम्पूर्ण सृष्टि में माँ का स्थान बहुत ऊंचा है . सच तो यही है कि जीवन और मृत्यु के आर-पार फैले हुए रिश्ते का नाम ही है माँ .माँ  सिर्फ  हमारे  अस्तित्व की ही नहीं बल्कि हमारी सामाजिकता की भी जननी हैं . किसी भी प्राणी का अपनी माँ और उसकी संतान के बीच का अटूट रिश्ता ,उसके जन्म के पहले ही उसके गर्भकाल से ही शुरू हो जाता है .हर प्राणी के लिए यह समय भी उसके अचेतन-अविकसित अस्तित्व को सुरक्षा का अव्यक्त अहसास सौंपता है .
        मैं कभी –कभी मौज में ऐसा भी सोचता हूँ कि बच्चे अपनी माँ से डर न जाएँ ऐसा सोचकर ही प्रकृति नें स्त्रियों को दाढ़ी नहीं दी होगी . इसके विपरीत पुरुषों को इसलिए दाढ़ी दी होगी कि वह दूसरे प्रजाति के पशुओं और यहाँ तक कि बबर शेरो को भी डरा सके .एक प्रजाति के जैविक अस्तित्व को संभव करने से लेकर उसके संरक्षण तक के समस्त दायित्व प्रकृति नें स्त्री जाति को ही मुक्त होकर सौंपे हैं .यहाँ तक कि दुनिया के सभी महापुरुष दया ,ममता ,करुणा आदि स्त्रियोचित गुणों से समृद्ध होने के कारण ही महापुरुष बन पाए .अन्यथा पुरुष हारमोन का चरित्र, स्वभाव और प्रभाव तो हिंसक ही है .उसे संभवतः प्रकृति नें अपनी प्रजाति की रक्षा के लिए लड़ने और मरने के लिए ही बनाया है –जैसा कि पशु-जगत  में भी देखा जाता  है .
बंदरिया माँ के लिए तो लोक में यह मान्यता और कहावत ही है कि बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को भी सीने से लगाए हुए  घूमती है . माँ के वात्सल्य के लिए एक दृष्टान्त ही बंदरिया का दिया जाता  है , स्तनधारियों के अतिरिक्त अंडज –जिनमें सरीसृप और पक्षी-वर्ग दोनों ही शामिल हैं; माता को अपनी संतति रक्षा में जिसप्रकार संलग्न देखा जाता है –वह ममता और मातृत्व के मामले में कई बार मानवी माओं को भी पीछे छोड़ने वाला होता है .
       यद्यपि अपनी प्रजाति की चिंता तो सभी जातियों के नरों में भी पाई जाती   है लेकिन तुलना में गर्भधारण से लेकर स्तनपान करने और  शैशव की असहायावस्था से निकलकर वयस्क बनने तक माँ की भूमिका, पिता की भूमिका से कुछ अधिक ही गहरी और निर्णायक होती है . वैसे भी अपनी सौ वर्ष लम्बी आयु और लगभग बीस वर्ष के लम्बे विकासकाल के साथ मनुष्य का बचपन कुछ अधिक और पर्याप्त लम्बा अभिभावकीय संरक्षण मांगता है .
          पशु जगत में भी  लकडबग्घों और हाथियों का परिवार तो माँ-प्रधान ही होता है . दरअसल सामाजिकता का आधार भी माँ और संतान के बीच के रिश्ते हैं .  विद्वानों की यह भी धारणा है कि आदिम मानव का परिवार भी मातृ-प्रधान समाज ही रहा होगा . मार्क्स के अनुसार तो पूँजी और संपत्ति के विकास नें ही मानव-सभ्यता को पुरुष-प्रधान समाज में बदल दिया .संतान की उत्पत्ति और उसके पालन में लगी रहने के कारण स्त्री जाति पिछड़ती चली गयी .इसके बावजूद परिवार संस्था की पुरातन संरचना में स्त्री का केन्द्रीय महत्त्व मध्यकाल में भी सुरक्षित ही रहा है .
         संतानों के पालन-पोषण में मातृ-मात्र का निवेश शरीर से लेकर मन और आत्मा के स्तर तक देखा जा सकता है . गर्भधारण से लेकर दुग्धपान तक तो माँ की देह का ही आश्रय है .यद्यपि पशुपालन के साथ इस आश्रय का वृत्त गाय माता से लेकर भैंस मौसी तक और उससे भी आगे मातृभूमि तक भी चला गया है .इस तरह सारी पृथ्वी ही हमारी माँ है .यह जननी महाभाव का विस्तार है .’जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” का भाव-आधार भी यही है . यद्यपि पुरुष-प्रधान आध्यात्म ममता-मोह की काफी भर्त्सना करता  है ; लेकिन सच्चाई यही है कि स्त्री ही सारी सृष्टि  के जैविक अस्तित्व ,समुदाय और सामाजिकता का भी आधार  है . मध्यकालीन भारतीय समाज ममत्व का जिसप्रकार निष्ठुरता की सीमा तक भर्त्सना करता रहता था वह मानवीय दृष्टि से उचित नहीं था.यह मुझे उसी प्रकार वास्तविक सत्य को छिपाने और भ्रमित करने वाला लगता  है ,जैसा कि भिक्षा और दान माँगने वाला भिक्षा देने वाले को सब कुछ को मिटटी और व्यर्थ होने का उपदेश देता  है . इस तथ्य और सत्य को छिपा कर कि यदि सब व्यर्थ है तो तुम मांग क्यों रहे हो भाई . दरअसल गृहस्थ ही सभी धार्मिक व्यापारों का भी आधार है और गृह का केंद्र है नारी का मातृ रूप . उसी को केंद्र में रखकर सभ्यता की संपूर्ण ईकाइयों का विकास हुआ है .
     वस्तुतः मानवीय चेतना सामान्यीकरण और विशेषीकरण के दो सीमांतों को स्पर्श करते हुए प्रवाहित होती है . इसे व्याकरण की भाषा में जातिवाचक संज्ञा और व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं . जातिवाचक संज्ञा हमारे सामान्य बोध की उपज है और व्यक्तिवाचक संज्ञा हमारे विशेष बोध की उपज . यह देखा जाता है कि जंगल में पशुओं के बच्चे भी अपनी माँ की विशेष पहचान रखते हैं . यह विशेषता मानव-शिशुओं में भी होती है . वे अपनी माँ और दूसरी स्त्री में फर्क करने लगते हैं . अपरिचित स्त्री चहरे को देखकर शिशुओं का रोने लगना बोध के विशेषीकरण से ही संभव होता है . श्रीकृष्ण की कथा में तो  शिशु श्रीकृष्ण अपरिचित स्तन को देखकर ही उन्हें विषाक्त दूध पिलाने आयी पूतना को दांत गड़ाकर मार ही डालते हैं .यह दूसरी बात है कि पूतना शब्द भी प्रतीकात्मक और सांकेतिक है और वह संतानहीन स्त्रियों में मिलने वाले ईर्ष्या-भाव के प्रति ही हमें सजग करता है . अपने पुत्र-प्राप्ति के लिए दूसरे के पुत्रों की बलि जैसी घटनाएँ तो पिछड़े समुदायों से आज भी सुनने को मिलती हैं .
       मुझे तो श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व का मनोवैज्ञानिक रहस्य भी जन्म देने वाली देवकी माँ से अलग यशोदा माँ के त्यागपूर्ण मातृत्व में ही दिखता है . कहते हैं कि इस दम्पति नें श्रीकृष्ण को बचाने के लिए अपनी नवजात पुत्री ही कंस के हाथों में सौंप दी थी . सिर्फ देवकी के श्रीकृष्ण तो एक सामान्य राजपुत्र बनकर ही रह जाते लेकिन श्रीकृष्ण का सामान्य प्रजा में से एक लोक- माँ यशोदा का पुत्र होना भी उन्हें लोक से न सिर्फ जोड़ता है बल्कि ऐसा ऋणी बना देता है कि वे जीवन भर उसका कर्ज उतारते हुए ही भगवान की कोटि तक पहुँच जाते हैं . मैं यहाँ जानबूझकर उन्हें पुराणों की तरह पहले से भगवान मानकर नहीं चल रहा हूँ .क्योंकि उन्हें भी भगवान होना प्रमाणित करने के लिए जीवन भर परीक्षा देनी पड़ी थी .यह परीक्षा लोक नें ली थी ,कंस नें ली थी और अंत में उन्हें ग्वाल कहने और समझने वाले दुर्योधन नें भी ली थी . श्रीकृष्ण इसीलिए दिव्य शिशु हैं कि वे दो माओं का मातृत्व पाने और जीने वाले असामान्य शिशु हैं . यह असामान्यता ही उनकी विशिष्टता है .यही सौभाग्य ही उन्हें लोकोत्तर और दिव्य शिशु बनाता  है . वे नन्द गोप के पूरे कबीले द्वारा संरक्षित और पाले गए शिशु हैं . वे ब्रज की संपूर्ण महिलाओं द्वारा स्नेह-सिंचित शिशु हैं . यह तथ्य आज भी देखा जा सकता है कि जिन शिशुओं को अधिक से अधिक हाथों में पलने और स्नेह पाने का अवसर मिलता है –वे तुलना में उन शिशुओं से अधिक सामाजिक होते हैं जिन्हें सिर्फ अपनी माँ का ही स्नेह मिला होता है .
       दो माओं का मातृत्व पाने वाले श्रीकृष्ण की तुलना में अपनी आँखों पर पट्टी बांधने वाली गांधारी के असामान्य मातृत्व नें जिस जिद्दी और खलनायक संतान का विकास किया वह दुर्योधन है . कल्पना किया जा सकता है कि गांधारी नें कभी अपने शिशु की आँखों में झांक कर देखा ही नहीं होगा . दुर्योधन मातृत्व की दृष्टि से एक अभिशप्त ,दुर्घटनाग्रस्त और लावारिस बच्चा ही था .  माली यदि अपने लगाए उपवन से उदासीन हो जाए तो वह उपवन एक दिन वन में बदल जाएगा . अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर गांधारी माँ नें चाहे अपने पतिव्रता होने का असाधारण  आदर्श उपस्थित किया हो लेकिन उसके उस आदर्श में उसके पुत्र के लिए जगह नहीं थी .ऐसे मातृ-स्नेह से वंचित अतृप्त शिशु को एक दिन दुर्योधन ही होना था . मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने पर भीष्म का शैशव भी ऐसा ही विकलांग शैशव है . यद्यपि अपने पूर्व शिशुओं की हत्या से क्षुब्ध शांतनु अपनी प्रेयसी गंगा को शिशु भीष्म को नहीं मारने देते . गंगा उन्हें पालती भी हैं लेकिन एक हठधर्मी क्रूरता का माँ से मिला उत्तराधिकार ,युवा पुत्र की चिंता करने के स्थान पर स्वयं के प्रेम को जीने वाले पिता के प्रति वितृष्णा (याद करें सत्यवती और शांतनु का वह प्रसंग जिसकी शर्तों को पूरा करने के लिए भीष्म को आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ी) तथा गंगा जैसी माँ ; जो भीष्म को शांतनु को सौंपने के बाद कभी उनकी जिंदगी में वापस लौटी ही नहीं – भीष्म की प्रतिज्ञा भी अपने भाइयों की हत्यारिन एवं उदासीन माँ के प्रति उसी प्रकार अनुभव जन्य घृणा एवं विरक्ति का परिणाम है जैसा कि राम नें कभी तीन रानियों वाले पिता दशरथ के पारिवारिक जीवन का हश्र देखकर सिर्फ एक ही पत्नी से संतोष किया – यहाँ तक कि अपनी इकलौती पत्नी सीता को गवां कर भी दूसरी शादी का दृष्टान्त उपस्थित नहीं किया . इस तरह वे एकल दांपत्य के प्रेरक और प्रवर्तक आदर्श पूर्वज बनें . राम का चरित्र भी अपनी माँ कौशल्या के चरित्र की तरह ही अंतर्मुखी और दूसरों के जीवन में अनुचित हस्तक्षेप न करने वाला है . इससे भी माँ की महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता है .
     रामकथा के अनुसार राम को बचपन में ही विश्वामित्र द्वारा मांगे जाने पर पिता दशरथ ही नहीं बल्कि अपनी माँ कौशल्या से भी दूर जाना पड़ा था . आगे चलकर सीता के त्याग और शम्बूक वध के प्रसंग में राम में जो चारित्रिक क्रूरता और संवेदनहीनता मिलती है ,उसका सम्बन्ध असमय तोड़े गए पुष्प की तरह माँ से कम आयु में ही अलग कर दिए गए राम के इसी वात्सल्य कुपोषण में मिलता है .स्वाभाविक है कि अपनी माँ के बिना जीना सीख लेने वाला बच्चा वयस्क होने पर अपनी पत्नी सीता के बिना भी जी सकता  है .
           स्पष्ट है कि माँ सिर्फ धरती की प्रतीक और उसकी प्रतिनिधि ही नहीं है बल्कि उसका गुण-धर्म ,प्रभाव और महत्त्व भी धरती के सामान ही हैं .जैसे धरती का उचित पोषण एक स्वस्थ पौधे का विकास करता है उसीप्रकार माँ के स्नेह एवं स्वस्थ मातृत्व की छत्रछाया में ही स्वस्थ मनुष्य का विकास होता है .आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान भी यह मानता है कि व्यक्ति जो कुछ भी बनता है उसके पीछे उसके बचपन के रिश्तों और संबंधों के स्वरूप से निश्चित सम्बन्ध होता है . सभी अपराधी बचपन में अपनी माँ द्वारा उपेक्षित संताने ही हैं ,चाहे यह कुपोषण अधिक संतानों की भीड़ के कारण ही क्यों न हुआ हो . कौरवों के बुरा और लड़ाकू होने का यह भी एक मनोवैज्ञानिक कारण रहा होगा . आखिर सौ पुत्रों की भीड़ कोई कम तो नहीं होती ! 

शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

त्रिलोचन

मैंने भी कवि त्रिलोचन को जिया है
००००००००००००००००००००००००
सीधा-सादा कवि किसान-छवि
कवियों के मुखिया जैसा
कविता की पगडंडी पर हो पैदल चलता
जीवन के सच्चे टुकड़ों से कविता बुनता
इतना सहज कि कभी कहीं से कवि न लगता
कवियों के बीच शुद्ध सच्चाई जैसी
सच्चे कवि प्रिय त्रिलोचन की कमाई ऐसी....

( बांदा में आयोजित केदार सम्मान कार्यक्रम में दो दिनों तक मैंने उन्हें जिया था.
उनके काव्य में बहुत सी छवियाँ उनके ननिहाल (डोभी क्षेत्र,जौनपुर) की भी थी,
इसे उन्होंने बातचीत में स्वीकार किया था.
मैं उनके ननिहाल का हूँ यह जानकर वे अति प्रसन्न हुए थे)

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

महानता

पहली बार महान आते हैं स्वतःस्फूर्त
प्रतिरोधी समय से संघर्ष करते और उसे जीतते हुए
दूसरी बार आते हैं महानता के विशेषज्ञ
तीसरी बार महानता के प्रायोजक
चौथी बार महानता के विपणक
पांचवी बार आते हैं महानता के विक्रेता
फिर महानता घर-घर पहुँच जाती है
उसके बाद
बार-बार आतेे हैं
आते ही रहते हैं महानता के नकलची
महानता का शास्त्र रच दिए जाने के बाद ....

शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

भगदड़

उनके सोचने के सारे दरवाजों पर
लगे हुए थे दूसरों के ताले
उनके निकालने के सारे रस्ते बंद कर दिए गए थे ....

उनसे  छीन लिया गया था उनका चेहरा
उनकी निरीह  सामाजिकता  को
एक बड़ी भीड़  के रूप में वापस सौंपकर
उतर दिया गया था बाजार  की सडकों पर
एक जैसे लिखे गए नाम और तख्तियों के साथ ....

भगदड़  के बाद भी
कुचले जा चुके लोगों के हाथ में
सही-सलामत पड़ी  थीं  जो .

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

असभ्य भाषा और असमानतावादी वैचारिकी का सामाजिक तंत्र

हिंदी समाज की सबसे बड़ी समस्या मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो वह वनमानुष या औरंगउटान है जो जब तब हमारी बोलचाल की भाषा में हमारी अचेतन आदत का हिस्सा बना बाहर आ ही जाता है . भाषा का सबसे असभ्यतम हिस्सा उन गालियों का है.जो स्त्री जाति की लैंगिक समानता और सम्मान पर आधारित न होकर असमानता और अपमान पर आधारित हैं. उनमें कुछ ऐसा अचेतन छिपा है जैसे स्त्री होना दूसरे दर्जे का नागरिक होना है और अपमान की विषय-वस्तु है.भाषा में शब्दों के बाद भेद-भाव वाली भाषा की अभियांत्रिकी व्याकरण के स्तर पर मिलती है.प्राचीन काल जब भारत में स्त्री-पुरुष असमानता का भेद-भाव बहुत नहीं था तब भाषा भी बहुत विभेदकारी नहीं थी और राम तथा सीता दोनों के साथ 'गच्छति लग सकता था. मध्यकाल में इस्लाम के भेदकारी संस्कार नें राम और सीता को अलग-अलग 'जाता-जाती' कर दिया.
हिंदी में भाषिक असमानता,अपमान और अमानवीयता का सर्जक कबाड़ जातीय पूर्वाग्रहों के प्रचारक शब्दों में भी छिपा है.जिसे मानसिक रूप से कुछ पिछड़े लोग लज्जित होने के स्थान पर समूह-आपराधिक ढंग से अगड़ा होने का साधन समझते हैं.क्योंकि कुछ लोग ऐसी अनैतिक विरासत से असभ्यी सुख-लाभ करना चाहते हैं .इसलिए अवैध हथियारों की तरह उनका इश्तेमाल करना गर्व की वस्तु समझते हैं. राजनीति के अतिरिक्त भाषा ही इस विषमता की सबसे सशक्त प्रचारक है. ये वर्जित, निन्दित और घृणित शब्द यथार्थ में तो नहीं किन्तु आभासी रूप में असमनातावादी श्रेष्ठता का भ्रम सृजित करते रहते हैं.
यह दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य है कि एशियाई मूल कीहिन्दू और मुसलमान दोनों ही जातियों के धर्म अन्त:;उपस्थित पुरोहितवादी सामूहिक अचेतन के कारण अपनी जाति और व्यक्ति केन्द्रित महिमामंडन के सांप्रदायिक प्रयास में सम्पूर्ण मानव-जाति की सृजन और अस्तित्वपरक संभावनाओं का मजाक उड़ाते हैं और उनकेप्रति अनास्था व्यक्त करते हैं.बहुत से लोग जो पिछले ज़माने के आध्यात्म के सामंती पृष्ठभूमि को नहीं समझ पाते वे नहीं समझ पाते कि उनके आध्यात्म का भी कोई आपराधिक चेहरा हो सकता है और वह उनके महान ईश्वर को ही अप्रतिष्ठित करता है .उदहारण के लिए शूद्र भी एक आध्यात्मिक श्रेष्ठता की अवधारणा का ही अवधारणात्मक और वैचारिक प्रति-पक्ष है. ईश्वर के नाम पर विकसित यह जातीय दंभ भी दूसरों में हीनता का प्रचार कर स्वयं को अनैतिक रूप से महिमा-मंडित करता है. हिदुत्व केसाथ-साथ इस्लाम भी ऐसी ही आध्यात्मिकता को लेकर मानवता विरोधी होने का अभिशाप झेल रहा है..हिन्दुओं में जहाँ सत्य (और ईश्वर को भी ) को जाति का बंधुआ बनाया गया है वहीँ इस्लाम सिर्फ एक ही महान व्यक्ति की गवाही पर आधारित है .इस अवधारणा में किसीदूसरे मनुष्य की संभावित महानता का निषेध भी छिपा है. मेरी दृष्टि में यह संरचना श्रद्धेय के परिवार की पुरोहितीय पृष्ठभूमि के कारण ही है.जिसके कारण भावी मानव जाति के भी किसी भी मनुष्य की ईश्वर से साक्षात्कार की सैद्धांतिक गुंजाइश नहीं बचती. मेरा मानना है कि व्यक्तिगत रूप से कोई कितना भी बुद्धिमान हो ले उसे अपनी बुद्धिमानी की सृष्टि के लिए और भविष्य की बुद्धिमानी के लिए भी मानवजाति की सृजनात्मक संभावनाओं पर आस्था रखनी ही चाहिए. किसी एक व्यक्ति की तुलना में सम्पूर्ण मानव-जाति अधिक श्रद्धास्पद और महिमाशाली अस्तित्व है.
हिंदी में मिलने वाले बहुत से अपशब्द तो आध्यात्मिक मूल के धातु एवं अर्थों को छिपाए हुए हैं- जैसे चूतिया शब्द को ही लें तो इसके पीछे संस्कृत का च्युत शब्द है जिसका अर्थ है गिरा हुआ या पतित लेकिन अर्थ-परिवर्तन से यह आध्यात्मिक पतन कराने वाली स्त्री से जोड़ दिया गया है . इसी तरह दो- तीन दिन पूर्व मेरे एक अभिन्न मित्र नें मेरे शब्द - ज्ञान में यह कहकर इजाफा किया कि जिस छक्का को मैं छ: से बना मानता हूँ वह अपने पीछे हिजड़े का अर्थ भी छिपाए हुए है . यह सच है कि इस अर्थ के लिए भी हिंदी समाज ही जिम्मेदार है - लेकिन यदि ऐसा एक असभ्य समाज नें दिया है तो हमें उसके प्रचलन का निषेध करना चाहिए. लेकिन इस ज्ञानार्जन में एक बात मुझे खटकी. वह यह कि जैविक हीनता याजीनेटिक विकृति के शिकार किसी लैंगिक विकलांग को उसकी हीनता के लिए इसप्रकार अपमानित करना चाहिए जिस प्रकार हिजड़ा शब्द का प्रयोग करते हुए हम करते हैं. मित्र में भी मुझे हिजड़ा को हिकारती दृष्टि से देखने वाला परंपरागत असावधान मध्ययुगीन अचेतन व्यक्तहोता दिखा .
मुझे अष्ट्रावक्र ऋषि याद् आए जिन पर जनक के दरबार में उनकी विकलांगता पर हंसा गया था और उन्होंने प्राकृतिक विकलांगता पर हंसने वालों को मूर्ख कहा था . अपने एकाक्षी होने पर हंसने या उपहास करने वालों को जायसी ने भी ठीक नहीं माना . उनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं - मोहि पर हंसहु या हंसहु कुम्हारहू. अर्थात तुम मुझ पर हंस रहे हो या मुझको बनाने वाले कुम्हार पर !
यही सोचकर मैंने अपनी एक कविता में जो' नया-ज्ञानोदय में प्रभाकर श्रोत्रिय जी के समय छपी थी नपुंसक लिंगियों के लिए' अंतज' शब्द प्रस्तावित किया था- जिसका तात्पर्य था सबसे अंत में पैदा होने वाला. क्योंकि उनसे वंश - परंपरा आगे नहीं चल पाती इस लिए उन्हें अंतज कहा था. अन्यथा एक मनुष्य के रूप में जीवित उपस्थिति तो वे भी हैं ! हम एक संवेदनशील मानवीय समाज की रचना से कितने दूर हैं अब भी?

रामप्रकाश कुशवाहा
१२.१०.१६

गुरुवार, 22 सितंबर 2016

जाति-दंश

(सुनील यादव के लिए)




कट्टरता पड़ोस में बची रहेगी 
तो तुममें भी लौट आएगी एक दिन
एक दिन आक्रामक क्रोध का सामना करते-करते हो जाओगे हिंसक
पडोसी जीते हुए अपनी जाति और धर्मएक दिन शोधेगा खोदेगा पूछेगा
उस दिन अतीत से पूछकर तुम्हें बतानी ही होगी अपनी जाति
और वह जाति मनुष्यता की न होकर
किसी जानवर के नाम पर होगी !
इस देश में जन्मे हो तो भागकर कहाँ तक जाओगे अपनी जाति छोड़कर
अपने जातीय नायकों को तलाशो
नहीं मिले जाति का कोई यशस्वी प्रेत
तो दंड-बैठक करो और करो कुछ ऐसा कि
तुम्हारी जाति में भी जातीय नायक पैदा हो सकें ....
अधिक शरमाने और भरमाने की जरुरत नहीं है
आदर्श,क्रांति और प्रतिशीलता के नाम पर
यूटोपिया के आसमान से गिरने पर
अटकने के लिए खजूर तलाशो
ताकि आसमान से गिरो तो खजूर पर अटक सको
न कि सीधे गिर पड़ो जमीन पर
तलाशो अपना विकल्प
क्योंकि मूर्खता का बचा हुआ एक भी रोगी
सारी दुनिया में संक्रामक मूर्खता फैला सकता है
उनके नारों को सुनते हुए भी
क्रांति हो जाने के भुलावे में भूखा मत सोओ
खोमचा लगाकर भी बचो और बचाओ अपना अस्तित्व
ताकि परिवर्तन के दर्शकों और कर्णधारों में तुम भी हो सको शामिल....
जाति –प्रथा समाप्त हो जाए तो ठीक
समाप्त न होने तक रचो अपना स्वाभिमान
अपनी उपलब्धियां अपनी कहानियां
ताकि सारी रात चलने वाली कहानियां
सुबह होने तक भी ख़त्म न हों
थक जाएँ कहानियां सुनाकर तुममें हीनता-ग्रंथि उपजाने वाले
सृजित कर लो प्रतिरोध की इतनी गालियाँ
कि उन्हें गाते हुए पहुंचा जा सके नयी सभ्यता के निर्माण तक !