गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

दो कविताएँ

1 .
जो कि मैं हूँ !

वह नीले तरल-सा पसरा आसमान
वह क्षितिजों का मोहक सौन्दर्य
वह अंधियारे परदे में टके ग्रहन्ताराओं की उजली चमक,
वह अन्तहीन सागर रोशनी सूरज की
झरनों की झर-झर, सर-सर हवाओं की
क्या वह मैं नहीं हूं।
या कि बस इतना ही हूं मैं
कदमों पर रेंगती हुई नन्हीं काया-छाया
तलवों से हथेलियों तक चेहरे से चुड़ी
एक रुढ़ पहचान के रूप में
अपनी सिमटी निजता पर घबराया.....
या कि झूठ है सब! वह अहं वह पहचान
क्योंकि समूची धरती नहीं है वह
नहीं है भरा-पूरा संसार
एक ओर अखण्ड
जो कि मै हूं।









२.
दूसरा जन्म

मैं लौट रहा हूँ
अपने उस विशाल साम्राज्य की ओर
जो संकीर्ण स्वार्थ की तात्कालिकताओं में बन्द नहीं है
अपरिचित है मेरा स्वत्व
अन्तहीन है मेरा आत्म
विलक्षण है मेरा जीवित स्पन्दन
मैं अपने उस आदिम आश्चर्य की ओर
पुन: लौट रहा हूँ वापस
जो अपने होने का आत्महन्ता अवमूल्यन
नहीं करता..............
हां मैं लौट रहा हूँ
उस अनन्तधर्मा विस्मय की ओर
जो संज्ञानों की जड़ता से मुक्त
जीवन का दूसरा जन्म है