गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

मुद्रा-विमर्श : आर्थिक लोकतंत्र के पक्ष में

इस बात से सहमत होते हुए कि काला धन एक महत्वपूर्ण समस्या एवं बाधा ही नहीं बल्कि एक बदनुमा दाग या कलंक है देशवासियों के चरित्र के लिए ..हममें से अधिकांश ईमानदारी से आयकर घोषित करने के प्रति एवं उसे देने के प्रति उदासीन रहते हैं .इससे कोई भो सृजनशील सरकार कुंठित हो सकती है -क्योंकि इसका सीधा असर बजट पर पड़ता है और उन परियोजनाओं पर भी जिन्हें शासन पूरा करना चाहता है .इसके बावजूद इस बात का धयान रखना होगा कि काला-धन संचय का मनोवैज्ञानिक आधार वह असुरक्षा भी है जिसे पूंजीवादी व्यवस्था और उदासीन सरकारें पैदा करती हैं .जब व्यक्ति को अकेला जीने-मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा तो वह अर्थ-संचय द्वारा ही स्वयं को सुरक्षित समझेगा | प्रायः लोग अपनी आवश्यकताओं या विवशताओं या फिर महत्वाकांक्षाओं के कारण आयकर में चोरी करते हुए धनी होने का प्रयास करते हैं |
                प्राचीन काल से ही राजा लोग अपनी प्रजा से कुछ कर वसूली करते रहे हैं | प्राचीन काल में यह कर-वसूली वस्तुओं या अन्न के रूप में भी होती थी और मुद्रा के रूप में भी |प्राचीन काल में आज की तरह प्रतीकात्मक मुद्रा नहीं थी .|स्वर्ण-मुद्राएँ वास्तव में सोने ,चंडी और तांबे की होने के कारण वास्तविक मूल्य भी रखती थीं |राजा चाह कर भी किसी स्वर्ण-मुद्रा में उपस्थित सोने को अपनी घोषणा द्वारा गायब या निरस्त नहीं कर सकता था | आज के शासक को यह सुविधा प्रतीकात्मक या आभासी कागजी मुद्रा नें ही दी है कि वह कागजी मुद्रा के मूल्य को निरस्त कर सके | ऐसा इसलिए कि मुद्रा प्रचलन के समय वास्तविक सोना वह अपने पास रखती है | उपभोक्ता इस आधुनिक व्यवस्था में प्राचीन-काल की तरह स्वर्ण-मुद्राओं को गलाकर वास्तविक सोने की तरह नहीं बेच सकता |निरस्त करते ही मुद्राएँ रद्दी का कागज बन जाएंगी |
             एक वैधानिक प्रश्न यह है कि रिजर्व बैंक का गवर्नर धारक को जो उतना मूल्य चुकने का वचन देता है वह किसी सरकार कि ओर से नहीं बल्कि राष्ट्र के एक संवैधानिक निकाय के प्रधान के रूप में देता है |सेवा-निवृत्ति के पश्चात् भी उसकी वैधानिकता और जवाबदेही उसके उत्तराधिकारी पदाधिकारी की ओर से बनी रहेगी और वह यह नहीं कह सकता कि यह वचन भूतपूर्व गवर्नर नें दिया था और उसका पालन करने के लिए वर्त्तमान गवर्नर बाघ्य नहीं है | इसलिए वचन की गरिमा का पालन भी संवैधानिक कर्तव्य का एक हिस्सा है | वर्तमान केंद्र सरकार नें काले धन वालों को कम समय देने के लिए जिसतरह अकस्मात् निरस्त किया -वह यदि जरुरी भी रहा हो तो अर्थशास्त्र की उस निरंतरता और परंपरा के खिलाफ है | यद्यपि अतीत में भी ऐसी स्थितियां राजाओं के मारे जाने या फिर किसी शत्रु राजा द्वारा जीत लिए जाने पर पड़ती होंगी |उससमय प्रचालन समाप्त होने के बावजूद उस मुद्रा की आधार-सामग्री धातु का मूल्य सुरक्षित एवं बचा रहता था .| तात्पर्य यह कि राजा के बदलने पर भी प्रजा की पूंजी सुरक्षित रहती थी और उसका मूल्य भी बचा रहता था | जबकि आज की आभासी या प्रतीकात्मक मुद्रा वास्तव में शासन द्वारा दिया गया एक प्रमाण-पत्र ही है | मोदी सरकार नें उसी प्रमाण-पत्र को निरस्त किया तथा उसके मूल्य को सशर्त कर दिया | वह यह मानकर चली कि जनता नें जो मुद्रा अपने पास रखा है उसमें आयकर न चुकाया हुआ उसका भी बड़ा हिस्सा हो सकता है |यह न चुकाया हुआ आयकर ही काला धन है | मुद्रा को निरस्त करना और उसके परिवर्तन को सशर्त करना निश्चय ही एक क्रांतिकारी कदम था लेकिन जो कमियां दिखीं उनमें
                    (१) इसे पर्याप्त संख्या में छाप लिए जाने के बाद ही घोषित करना था |
                    (२) धयान देना था कि आयकर की छूट सीमा में आने वाले लोग अकारण परेशांन हों .
                    (3) आयकर दाताओं को बिना किसी बाधा के मुद्रा-व्यवहार करने देना था
                    (4 )नोट चुनाव-व्यवस्था की तरह सेना या अन्य प्रशासनिक माध्यमों से भी जनता के बीच वितरित कराए जा सकते थे |
               यद्यपि आज भी लोग मोदी सरकार की नोटबंदी के निर्णय को सही मानने वाले बहुत से लोग हैं |कल सुबह ही एक प्रशंसक मिला जिसकी प्रशसा मुझे अतिरेकपूर्ण लगी |  प्रशासनिक सृजनशीलता के समानान्तर सामाजिक-व्यवसायिक सृजनशीलता के महत्त्व को देखते हुए मुझे उसकी एकपक्षीय प्रशंसा कई कारणों से असंगत लगी | जैसा कि हर निर्णय के अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते हैं |.मैंने उन भक्त जन से पूछा -राज्य का सबसे पहला कार्य है आर्थिक व्यवहार और वस्तु=विनिमय के लिए मुद्रा जारी करना ,जब यही प्राथमिक कार्य ही राज्य सफलतापूर्वक नहीं कर पा रहा है तो इतनी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा क्यों ? मैंने उनसे यह भी  पूछा कि यदि सरकारें लगभग लावारिस अवस्था में ही अपने नागरिकों को छोड़ कर शासन कर रही है तो वह अपने नागरिकों से इतना हिसाब क्यों मांग रही है |  यदि पश्चिमी देशों की तरह हिसाब मांगना चाहती है तो उनकी तरह जन-सुविधाएँ भी उपलब्ध कराना भी सीखें|.लोकतान्त्रिक देश है तो सरकार से हिसाब मांगने का अधिकार जनता को भी तो है .
              मैंने उनसे पूछा कि आप इतनी प्रशंसा किए जा रहे हैं -यदि सभी काम सरकार ही कर पाती तो फिर आपको दूध लेने अजय पाल के यहाँ क्यों आना पड़ा ! सरकार जब हर कार्य नहीं कर पा रही है तो नौकरशाही आधारित सरकारी विकास के महिमामंडन के आगे सामजिक अर्थतंत्र को खलनायक मानकर उस पर इतने कुठाराघात और प्रहार क्यों कर रही है ! मैं इस व्यहार को इसलिए प्रश्नांकित कर रहा हूँ -क्योंकि मुझे मुझे नौकरशाही या सरकारी तंत्र आधारित इस कार्य-शैली में कम्युनिस्ट इतिहास और परिणाम दुहराने का स्पष्ट खतरा दिख रहा है .देश को केन्द्रीयकरण शैली के तंत्र की गुलामी और निर्भरता वाली कृत्रिम आर्थिक तानाशाही की ओर बढ़ाना ठीक नहीं |
           वैसे भी अपना देश भी विचारधाराओं की खिचड़ी पकाने वाला देश है | पूंजीवाद अपना रखा है और गांधीवाद से उसे हांकना चाहता है .आप अपनी तरह फकीर बनाएँगे सभी को तो सभी कंजूस और संतोषी हो जाएँगे | इससे सभी की आर्थिक सृजनशीलता प्रतिबंधित और प्रभावित होगी और कुछ देर बाद लोग मनोरोगी होकर कमाना भी भूल जाएँगे | ऐसा भी नहीं है कि सभी प्रधानमंत्री बनकर स्वयं को सार्थक कर सकें |
          एक और खतरा है भ्रष्ट नौकरशाही के बल पर रामराज्य लाने का -वह है पूरी विचारधारा और समर्पण के बावजूद पूर्व सोवियत रूस की तरह फेल हो जाने का .हर नया क़ानून नौकरशाही को और अधिक भ्रष्ट होने तथा कमाने का नया हथियार सौंपता है .
              वैसे सच्चाई तो यह है कि अभी तक राज्य को राज्य होना ही नहीं आया .आज एक ट्रेन की सामान्य बोगी में बैठकर गाजीपुर से वाराणसी के बीच कुल अस्सी किमी की यात्रा नें ऐसी सजा देने वाली सीट का अनुभव कराया -जिसे अंग्रेजों नें काले भारतीयों को अपमानित करने के लिए बनाया था .मंहगे लोहे का प्रयोग करने वाला रेल विभाग अपनी जनता-विरोधी परंपरागत मानसिकता के कारण रबर की आरामदायक गददी तक नहीं लगा सकता.| सामान्य बोगियों को आपस में क्यों नहीं मेट्रो की तरह जोड़ा जा सकता ! आखिर उसमें भी तो स्वतन्त्र भारत के नागरिक यानि मतदाता ही सफ़र करते हैं .किसी घटिया बनिया की तरह सरकारें अंग्रेजों की देखा-देखी अनारक्षित वर्ग में यात्रा करने वालों को अपमानित करती आ रही है . इसलिए अपमानित करती है कि आप अधिक से अधिक असुविधाओं से डरकर आरक्षण कराएं और महँगी श्रेणी में यात्रा करें .
हमारी सरकारों को सड़कें बनाना था जो आज तक ठीक से नहीं बने .बिजली देनी है बिजली दे नहीं पाए 'पुलिस और सेना की सुरक्षा भी नहीं दे पा रहे .चिकित्सा व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था भी ध्वस्त है .जब पागल ,भूखा सोने और बेरोजगार की जिम्मेदारी तक परिवार संस्था नें ले रखी है -सरकारों को कोई मतलब नहीं और न ही कुछ नया करने का सुझाव ही है .जब तक सरकारें वैसा नहीं कर पाती तब तक उसे शक करते हुए एवं लोगों लोगों के जीवन में हस्तक्षेप करने का कोई नैतिक आधार और अधिकार नहीं बनता . सरकारों को और नैतिक और संवेदनशील होना चाहिए .उसके बाद ही लोगों को अनैतिक कहने का अधिकार मिल पाएगा .