गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

अच्छे दिन और ...

क्या बिकना इतना जरुरी है कि
बिना बिके जिया ही न जाय !
या जीने के लिए ही बिकना बहुत जरुरी है ?
हम जीने के लिए हांफते रहें या बिकने के लिए ...
तुम रोज गिनते हो कि इतने लोग बिके
वह रोज गिनता है कि वह आज भी बिकने से बच गया
यह जरुरी नहीं है कि जो न बिके वह ख़राब माल ही हो
बहुत कीमती चीजें भी बिकने से रह जाया करती हैं
अपने सबसे महंगे खरीदार की प्रतीक्षा में
और जिसने बिकने से इंकार कर दिया हो
और जो मूल्यांकन के लिए भी उपलब्ध नहीं है
बिकाऊ नहीं है जो
पड़ा है किसी घर में बाजार से दूर
बाजार से बाहर
क्या वह समय में नहीं है ?
सिर्फ प्रतीक्षा करो चचा !
अपने अच्छे दिन आने की
प्रार्थना करो कि उसके बुरे दिन जल्दी आए
या फिर परिस्थितियों की घेराबंदी में वह घुटने टेक दे
कि किसी सुबह तुम दूकान खोलो
और वह बिकने के लिए हाजिर दिखे तुम्हारी देहरी पर !
दूकान खोलकर बैठे रहो चचा !
उसे अभी बिकना नहीं हैं
न ही किसी को खरीदने जाना है बाजार ...
                                                                   रामप्रकाश कुशवाहा की कविताएँ 
पत्नी के सम्मान में
( राग - बंध -अंध )

पत्नी के सम्मान में    
वापस लौट आये दुनिया के सारे अन्धविश्वास
वे भी जिन्हें  कभी मैंने  नापसन्द किया था 
जिनसे मै असहमत हुआ और जिन्हें अपने विवाहपूर्व काल में 
निर्णायक और घोषित रूप में कभी ख़ारिज भी  !

पत्नी को मेरी सारी निरीह्ताओं का पता है 
जैसे कि मै अपना ईश्वर बदल सकता हूँ लेकिन बोंस नहीं 
कि मध्यवर्ग का हर पुरुष अपनी दृश्य -अदृश्य मूँछ के साथ 
यथा -अवसर हिलाने के लिए एक अह्लाद्वर्धक पूँछ भी रखता है 
बेंत के विकल्प में सहलाना-क्रिया जैसे !

उन्हें चाहिए सुरक्षा का जोखिम-मुक्त आश्वासन 
जो मेरे हाथ में बिलकुल ही नहीं है 
क्या मै सुबह का घर से निकला शाम को सही-सलामत 
परिवार में वापस आ सकता हूँ !

क्या दूसरो के झूठ और शरारतों को पकड़ने वाला 
एंटीवायरस साफ्टवेयर है मेरे पास
क्या मुझमे बजट की बारीकियों और मंहगाई के आपसी रिश्तों  की 
थोड़ी भी समझ है !
और एक समझदार पूर्वानुमान के साथ बचत की सतर्कता भी 

पत्नी  ही हैं जो इस दुनिया में  सिर्फ एकमात्र मुझे ही सुधार सकती हैं 
और सबसे अधिक दुनिया की सुधार वाले मेरे असमभव सपनों से ही 
डरती है 
उन्हें मेरी निरपेक्ष और अकेली बहादुरी से डर लगता है 

सुनो जी ! तुम सारे बूद्धि-जीवी ही कटे -कटे रहते हो 
बिना जुड़े और जोड़े न  डकैत बना  जा सकता है न नेता 
जेबकतरे भी सामूहिक अभिनय से लोगो को लूट लेते हैं 
अकेली समझदारी तो मूर्खों के गैंग द्वारा भी रौंद कर मारी जा सकती है

मुझे कोई भ्रम नहीं है 
मै जानता हूँ इस दुनिया में जीवित लोगों की तुलना में 
मरे हुओ से सहमत होना अधिक आसान होता है 
असहमति अकेला बनाती है और असामाजिक भी 

मेरी पत्नी जो सामाजिक धोखा-धड़ी अपराध और दुर्घटना की शिकार
एक डरे हुए परिवार से है 
मुझे पूरी सावधानी और समझदारी के साथ उन्ही को जीना है 
उनके अविश्वासो और आशंकाओं के साथ अनुत्तरित 

घूस और पैरवी दोनो ही न देने -करने के स्वाभिमानी पागलपन में
योग्य होते हुए भी मैंने और इस समाज ने मिलकर उन्हें रखा है बेरोजगार
इसे तिकड़म की अभियांत्रिकी की अयोग्यता कहें या ईश्वर की इच्छा !

यह जरुरी तो नहीं कि मै जिस तरह सोच और समझ रहा हूँ 
उसी तरह सोचें और समझें आप
अभी जो भक्तिसंगीत का रिंगटोन बज रहा है
उसे बिना किसी अन्यथा और टिप्पणी के फ़िलहाल धैर्यपूर्वक  सुने !  


वैसे भी मै अभी नौकरी कर रहा हूँ समझे  आप !
कोई भी पार्टी न बनाने के  संवैधानिक अनुबंध के साथ

प्रेम के बादशाह शाहजहाँ  के लिए



उसकी प्रेम की सत्ता है या एक  सत्ताधारी  का प्रेम 
प्रदर्शन संकोच और अभिजात्य की पूरी गरिमा से ढंका हुआ 
सुरक्षा और प्रतीक्षा की चाहरदीवारी में बंद मनों की 
दिन -दिन तड़पती मुक्ति-उडान 

सत्ता की वर्जनाओं ने उन्हें एक अभिशाप की तरह छिपाकर रखा है 
उसका प्रेम और उसके परिवार की स्त्रियाँ 
सभी एक प्रतिष्ठित समूह की सुंदरियाँ थीं 

कम सुन्दर होते हुए भी कुलीनता की गरिमा से युक्त  और असाधारण 
विशिष्टता का अभिशाप लिए 
जहाँआरा कुँवारियाँ जिन्हें सत्ता की मर्यादा की रक्षा के लिए 
अदृश्य यानि पर्दानशीं कर रखा गया था 


प्रेम का बादशाह अपनी बेगम के साथ अब भी सोया है शान से 
पूरी अदब और सुरक्षा के साथ 
वह समयातीत और सत्ता से बेदखल होने के बावजूद 
एक जीवंत और शानदार उपस्थिति है 
औरन्गजेब की कैद के बावजूद उसकी आत्मा मुक्त रही लोकोत्तर प्रेम के लिए 
वह  उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सका 

प्रेम का बादशाह आज भी भर रहा है आगरे की जनता का पेट 
उसने अपनी सत्ता को कितना सुन्दर बना दिया था 
तबले की संगत पर 
आज भी उसके लिए मुँह से निकलता है-आह ताज!वाह ताज !


बादशाह-दो 

(बादशाह अकबर के लिए)


सब विश्वास में हैं 
और बादशाह भी 
विश्वास करने  के बादशाह को
विश्वास करने वाली प्रजा ही चाहिए 

हर तलवार चलाने वाला बादशाह चाहता है कि
उसके तलवार चलाने के दिनों को भुला दिया जाय 

बादशाह-तीन 

(बाबर के लिए )


उनके लिए जीतना बहुत ही जरुरी था 
वे आपने घर से उजड़े हुए लोग थे 
उन्हें कहीं बसने के लिए 
जीतना बहुत ही जरुरी था 
क्योंकि वे लड रहे थे 
आपनी मुक्ति और पुनर्जीवन के लिए

शब्दोत्सव में

कुछ शब्दों को दुहाराएंगे 
कुछ को नया बनाएँगे
कुछ को अगली बार रचेंगे 
कह-सुनकर मुस्काएंगे 

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

माताओं का सृजन-लोक

सम्पूर्ण सृष्टि में माँ का स्थान बहुत ऊंचा है . सच तो यही है कि जीवन और मृत्यु के आर-पार फैले हुए रिश्ते का नाम ही है माँ .माँ  सिर्फ  हमारे  अस्तित्व की ही नहीं बल्कि हमारी सामाजिकता की भी जननी हैं . किसी भी प्राणी का अपनी माँ और उसकी संतान के बीच का अटूट रिश्ता ,उसके जन्म के पहले ही उसके गर्भकाल से ही शुरू हो जाता है .हर प्राणी के लिए यह समय भी उसके अचेतन-अविकसित अस्तित्व को सुरक्षा का अव्यक्त अहसास सौंपता है .
        मैं कभी कभी मौज में ऐसा भी सोचता हूँ कि बच्चे अपनी माँ से डर न जाएँ ऐसा सोचकर ही प्रकृति नें स्त्रियों को दाढ़ी नहीं दी होगी . इसके विपरीत पुरुषों को इसलिए दाढ़ी दी होगी कि वह दूसरे प्रजाति के पशुओं और यहाँ तक कि बबर शेरो को भी डरा सके .एक प्रजाति के जैविक अस्तित्व को संभव करने से लेकर उसके संरक्षण तक के समस्त दायित्व प्रकृति नें स्त्री जाति को ही मुक्त होकर सौंपे हैं .यहाँ तक कि दुनिया के सभी महापुरुष दया ,ममता ,करुणा आदि स्त्रियोचित गुणों से समृद्ध होने के कारण ही महापुरुष बन पाए .अन्यथा पुरुष हारमोन का चरित्र, स्वभाव और प्रभाव तो हिंसक ही है .उसे संभवतः प्रकृति नें अपनी प्रजाति की रक्षा के लिए लड़ने और मरने के लिए ही बनाया है जैसा कि पशु-जगत  में भी देखा जाता  है .
बंदरिया माँ के लिए तो लोक में यह मान्यता और कहावत ही है कि बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को भी सीने से लगाए हुए  घूमती है . माँ के वात्सल्य के लिए एक दृष्टान्त ही बंदरिया का दिया जाता  है , स्तनधारियों के अतिरिक्त अंडज जिनमें सरीसृप और पक्षी-वर्ग दोनों ही शामिल हैं; माता को अपनी संतति रक्षा में जिसप्रकार संलग्न देखा जाता है वह ममता और मातृत्व के मामले में कई बार मानवी माओं को भी पीछे छोड़ने वाला होता है .
       यद्यपि अपनी प्रजाति की चिंता तो सभी जातियों के नरों में भी पाई जाती   है लेकिन तुलना में गर्भधारण से लेकर स्तनपान करने और  शैशव की असहायावस्था से निकलकर वयस्क बनने तक माँ की भूमिका, पिता की भूमिका से कुछ अधिक ही गहरी और निर्णायक होती है . वैसे भी अपनी सौ वर्ष लम्बी आयु और लगभग बीस वर्ष के लम्बे विकासकाल के साथ मनुष्य का बचपन कुछ अधिक और पर्याप्त लम्बा अभिभावकीय संरक्षण मांगता है .
          पशु जगत में भी  लकडबग्घों और हाथियों का परिवार तो माँ-प्रधान ही होता है . दरअसल सामाजिकता का आधार भी माँ और संतान के बीच के रिश्ते हैं .  विद्वानों की यह भी धारणा है कि आदिम मानव का परिवार भी मातृ-प्रधान समाज ही रहा होगा . मार्क्स के अनुसार तो पूँजी और संपत्ति के विकास नें ही मानव-सभ्यता को पुरुष-प्रधान समाज में बदल दिया .संतान की उत्पत्ति और उसके पालन में लगी रहने के कारण स्त्री जाति पिछड़ती चली गयी .इसके बावजूद परिवार संस्था की पुरातन संरचना में स्त्री का केन्द्रीय महत्त्व मध्यकाल में भी सुरक्षित ही रहा है .
         संतानों के पालन-पोषण में मातृ-मात्र का निवेश शरीर से लेकर मन और आत्मा के स्तर तक देखा जा सकता है . गर्भधारण से लेकर दुग्धपान तक तो माँ की देह का ही आश्रय है .यद्यपि पशुपालन के साथ इस आश्रय का वृत्त गाय माता से लेकर भैंस मौसी तक और उससे भी आगे मातृभूमि तक भी चला गया है .इस तरह सारी पृथ्वी ही हमारी माँ है .यह जननी महाभाव का विस्तार है .जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसीका भाव-आधार भी यही है . यद्यपि पुरुष-प्रधान आध्यात्म ममता-मोह की काफी भर्त्सना करता  है ; लेकिन सच्चाई यही है कि स्त्री ही सारी सृष्टि  के जैविक अस्तित्व ,समुदाय और सामाजिकता का भी आधार  है . मध्यकालीन भारतीय समाज ममत्व का जिसप्रकार निष्ठुरता की सीमा तक भर्त्सना करता रहता था वह मानवीय दृष्टि से उचित नहीं था.यह मुझे उसी प्रकार वास्तविक सत्य को छिपाने और भ्रमित करने वाला लगता  है ,जैसा कि भिक्षा और दान माँगने वाला भिक्षा देने वाले को सब कुछ को मिटटी और व्यर्थ होने का उपदेश देता  है . इस तथ्य और सत्य को छिपा कर कि यदि सब व्यर्थ है तो तुम मांग क्यों रहे हो भाई . दरअसल गृहस्थ ही सभी धार्मिक व्यापारों का भी आधार है और गृह का केंद्र है नारी का मातृ रूप . उसी को केंद्र में रखकर सभ्यता की संपूर्ण ईकाइयों का विकास हुआ है .
     वस्तुतः मानवीय चेतना सामान्यीकरण और विशेषीकरण के दो सीमांतों को स्पर्श करते हुए प्रवाहित होती है . इसे व्याकरण की भाषा में जातिवाचक संज्ञा और व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं . जातिवाचक संज्ञा हमारे सामान्य बोध की उपज है और व्यक्तिवाचक संज्ञा हमारे विशेष बोध की उपज . यह देखा जाता है कि जंगल में पशुओं के बच्चे भी अपनी माँ की विशेष पहचान रखते हैं . यह विशेषता मानव-शिशुओं में भी होती है . वे अपनी माँ और दूसरी स्त्री में फर्क करने लगते हैं . अपरिचित स्त्री चहरे को देखकर शिशुओं का रोने लगना बोध के विशेषीकरण से ही संभव होता है . श्रीकृष्ण की कथा में तो  शिशु श्रीकृष्ण अपरिचित स्तन को देखकर ही उन्हें विषाक्त दूध पिलाने आयी पूतना को दांत गड़ाकर मार ही डालते हैं .यह दूसरी बात है कि पूतना शब्द भी प्रतीकात्मक और सांकेतिक है और वह संतानहीन स्त्रियों में मिलने वाले ईर्ष्या-भाव के प्रति ही हमें सजग करता है . अपने पुत्र-प्राप्ति के लिए दूसरे के पुत्रों की बलि जैसी घटनाएँ तो पिछड़े समुदायों से आज भी सुनने को मिलती हैं .
       मुझे तो श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व का मनोवैज्ञानिक रहस्य भी जन्म देने वाली देवकी माँ से अलग यशोदा माँ के त्यागपूर्ण मातृत्व में ही दिखता है . कहते हैं कि इस दम्पति नें श्रीकृष्ण को बचाने के लिए अपनी नवजात पुत्री ही कंस के हाथों में सौंप दी थी . सिर्फ देवकी के श्रीकृष्ण तो एक सामान्य राजपुत्र बनकर ही रह जाते लेकिन श्रीकृष्ण का सामान्य प्रजा में से एक लोक- माँ यशोदा का पुत्र होना भी उन्हें लोक से न सिर्फ जोड़ता है बल्कि ऐसा ऋणी बना देता है कि वे जीवन भर उसका कर्ज उतारते हुए ही भगवान की कोटि तक पहुँच जाते हैं . मैं यहाँ जानबूझकर उन्हें पुराणों की तरह पहले से भगवान मानकर नहीं चल रहा हूँ .क्योंकि उन्हें भी भगवान होना प्रमाणित करने के लिए जीवन भर परीक्षा देनी पड़ी थी .यह परीक्षा लोक नें ली थी ,कंस नें ली थी और अंत में उन्हें ग्वाल कहने और समझने वाले दुर्योधन नें भी ली थी . श्रीकृष्ण इसीलिए दिव्य शिशु हैं कि वे दो माओं का मातृत्व पाने और जीने वाले असामान्य शिशु हैं . यह असामान्यता ही उनकी विशिष्टता है .यही सौभाग्य ही उन्हें लोकोत्तर और दिव्य शिशु बनाता  है . वे नन्द गोप के पूरे कबीले द्वारा संरक्षित और पाले गए शिशु हैं . वे ब्रज की संपूर्ण महिलाओं द्वारा स्नेह-सिंचित शिशु हैं . यह तथ्य आज भी देखा जा सकता है कि जिन शिशुओं को अधिक से अधिक हाथों में पलने और स्नेह पाने का अवसर मिलता है वे तुलना में उन शिशुओं से अधिक सामाजिक होते हैं जिन्हें सिर्फ अपनी माँ का ही स्नेह मिला होता है .
       दो माओं का मातृत्व पाने वाले श्रीकृष्ण की तुलना में अपनी आँखों पर पट्टी बांधने वाली गांधारी के असामान्य मातृत्व नें जिस जिद्दी और खलनायक संतान का विकास किया वह दुर्योधन है . कल्पना किया जा सकता है कि गांधारी नें कभी अपने शिशु की आँखों में झांक कर देखा ही नहीं होगा . दुर्योधन मातृत्व की दृष्टि से एक अभिशप्त ,दुर्घटनाग्रस्त और लावारिस बच्चा ही था .  माली यदि अपने लगाए उपवन से उदासीन हो जाए तो वह उपवन एक दिन वन में बदल जाएगा . अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर गांधारी माँ नें चाहे अपने पतिव्रता होने का असाधारण  आदर्श उपस्थित किया हो लेकिन उसके उस आदर्श में उसके पुत्र के लिए जगह नहीं थी .ऐसे मातृ-स्नेह से वंचित अतृप्त शिशु को एक दिन दुर्योधन ही होना था . मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने पर भीष्म का शैशव भी ऐसा ही विकलांग शैशव है . यद्यपि अपने पूर्व शिशुओं की हत्या से क्षुब्ध शांतनु अपनी प्रेयसी गंगा को शिशु भीष्म को नहीं मारने देते . गंगा उन्हें पालती भी हैं लेकिन एक हठधर्मी क्रूरता का माँ से मिला उत्तराधिकार ,युवा पुत्र की चिंता करने के स्थान पर स्वयं के प्रेम को जीने वाले पिता के प्रति वितृष्णा (याद करें सत्यवती और शांतनु का वह प्रसंग जिसकी शर्तों को पूरा करने के लिए भीष्म को आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ी) तथा गंगा जैसी माँ ; जो भीष्म को शांतनु को सौंपने के बाद कभी उनकी जिंदगी में वापस लौटी ही नहीं भीष्म की प्रतिज्ञा भी अपने भाइयों की हत्यारिन एवं उदासीन माँ के प्रति उसी प्रकार अनुभव जन्य घृणा एवं विरक्ति का परिणाम है जैसा कि राम नें कभी तीन रानियों वाले पिता दशरथ के पारिवारिक जीवन का हश्र देखकर सिर्फ एक ही पत्नी से संतोष किया यहाँ तक कि अपनी इकलौती पत्नी सीता को गवां कर भी दूसरी शादी का दृष्टान्त उपस्थित नहीं किया . इस तरह वे एकल दांपत्य के प्रेरक और प्रवर्तक आदर्श पूर्वज बनें . राम का चरित्र भी अपनी माँ कौशल्या के चरित्र की तरह ही अंतर्मुखी और दूसरों के जीवन में अनुचित हस्तक्षेप न करने वाला है . इससे भी माँ की महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता है .
     रामकथा के अनुसार राम को बचपन में ही विश्वामित्र द्वारा मांगे जाने पर पिता दशरथ ही नहीं बल्कि अपनी माँ कौशल्या से भी दूर जाना पड़ा था . आगे चलकर सीता के त्याग और शम्बूक वध के प्रसंग में राम में जो चारित्रिक क्रूरता और संवेदनहीनता मिलती है ,उसका सम्बन्ध असमय तोड़े गए पुष्प की तरह माँ से कम आयु में ही अलग कर दिए गए राम के इसी वात्सल्य कुपोषण में मिलता है .स्वाभाविक है कि अपनी माँ के बिना जीना सीख लेने वाला बच्चा वयस्क होने पर अपनी पत्नी सीता के बिना भी जी सकता  है .
           स्पष्ट है कि माँ सिर्फ धरती की प्रतीक और उसकी प्रतिनिधि ही नहीं है बल्कि उसका गुण-धर्म ,प्रभाव और महत्त्व भी धरती के सामान ही हैं .जैसे धरती का उचित पोषण एक स्वस्थ पौधे का विकास करता है उसीप्रकार माँ के स्नेह एवं स्वस्थ मातृत्व की छत्रछाया में ही स्वस्थ मनुष्य का विकास होता है .आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान भी यह मानता है कि व्यक्ति जो कुछ भी बनता है उसके पीछे उसके बचपन के रिश्तों और संबंधों के स्वरूप से निश्चित सम्बन्ध होता है . सभी अपराधी बचपन में अपनी माँ द्वारा उपेक्षित संताने ही हैं ,चाहे यह कुपोषण अधिक संतानों की भीड़ के कारण ही क्यों न हुआ हो . कौरवों के बुरा और लड़ाकू होने का यह भी एक मनोवैज्ञानिक कारण रहा होगा . आखिर सौ पुत्रों की भीड़ कोई कम तो नहीं होती !




गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

दो कविताएँ

1 .
जो कि मैं हूँ !

वह नीले तरल-सा पसरा आसमान
वह क्षितिजों का मोहक सौन्दर्य
वह अंधियारे परदे में टके ग्रहन्ताराओं की उजली चमक,
वह अन्तहीन सागर रोशनी सूरज की
झरनों की झर-झर, सर-सर हवाओं की
क्या वह मैं नहीं हूं।
या कि बस इतना ही हूं मैं
कदमों पर रेंगती हुई नन्हीं काया-छाया
तलवों से हथेलियों तक चेहरे से चुड़ी
एक रुढ़ पहचान के रूप में
अपनी सिमटी निजता पर घबराया.....
या कि झूठ है सब! वह अहं वह पहचान
क्योंकि समूची धरती नहीं है वह
नहीं है भरा-पूरा संसार
एक ओर अखण्ड
जो कि मै हूं।









२.
दूसरा जन्म

मैं लौट रहा हूँ
अपने उस विशाल साम्राज्य की ओर
जो संकीर्ण स्वार्थ की तात्कालिकताओं में बन्द नहीं है
अपरिचित है मेरा स्वत्व
अन्तहीन है मेरा आत्म
विलक्षण है मेरा जीवित स्पन्दन
मैं अपने उस आदिम आश्चर्य की ओर
पुन: लौट रहा हूँ वापस
जो अपने होने का आत्महन्ता अवमूल्यन
नहीं करता..............
हां मैं लौट रहा हूँ
उस अनन्तधर्मा विस्मय की ओर
जो संज्ञानों की जड़ता से मुक्त
जीवन का दूसरा जन्म है