गुरुवार, 7 जुलाई 2016

एक ही दुनिया में...

इस दुनिया में जो भी है मेरी तरह,मेरे साथ

मुझे छोड़ना ही चाहिए था-उसके भी लिए...

उसको भी साथ-साथ होने देने यानि जीने और करने की जगह.....

जबकि मैं था और मुझे ही अनुपसिथत मानकर

मेरे भी न होने की घोषणा कर दी गयी थी,,,,,



कायदे से तो मुझे लौट आना चाहिए था

उस और उनकी वर्चसिवत दुनिया में बिना हुए

जैसे किसी सोते हुए बच्चे को सोने देते हुए

चुपचाप सोते छोड़कर खिसक जाते हैं लोग

जैसे छोटे-छोटे सपनों से बाहर निकलने के बाद

जागे हुए बुद्ध निकल गए थे

यशोधरा को अपने निजी सपनों में सोते हुए छोड़कर....

जैसे एक दौड़ती हुर्इ सुपरफास्ट एक्सप्रेस æेन

आगे बढ़ जाती है अनेक छोटे-छोटे स्टेशनों को

पीछे छोड़कर-छूट जाने के इस अपरिहार्य अभिशाप के बावजूद

क्या रोमांचक नहीं है एक ही समय में अलग-अलग सपनों को जीने की स्वतंत्रता !



हमारे सपने अलग थे और हम साथ-साथ नहीं हो सकते थे

हमारे अलग-अलग सपनों ,इच्छाओं और आकांक्षाओं के रास्ते थे अलग

जैसे एक ही ब्रहमाण्ड में अलग-अलग नक्षत्रों की उपसिथति थे हम

एक ही समय में अलग-अलग दुनियावों के निर्माता थे

ऐसे में तुम्हारे असहयोग और भटकावों के लिए

यदि तुम जिम्मेदार नहीं हो तो सिर्फ अच्छाइयों की खोज में लगा हुआ

मेरा वैज्ञानिक मन और तुम्हारी दुनिया के विरूद्ध मेरा होना......



मेरा होना जो बहुतों की तरह स्तब्ध कर गया था तुम्हें भी

मेरा होना जो एक न बदल पाते हुए आदमी का होना नहीं था

बलिक मेरा होना बेवजह बदलने के लिए तैयार न हुए आदमी का होना था

उस समय तक बताया भी नहीं गया था

कि मुझे क्योंकर तुम्हारे सम्मान में झुकना चाहिए....

एक शोर सा मच रहा था तुम्हारे होने का

और मुझे एक अश्लील पर्यावरण के बीच घेर लिया गया था

मैं महसूस करने लगा था तुम्हारे सपनों की संकीर्णताओं की चुभन

एक बेहतर जिन्दगी के लिए खेले गए खेल मेें

तुम्हारे हर हत्यारे आक्रमण के बावजूद

मुझे जिन्दा बचकर निकलना था

कैंसरग्रस्त कोशिकाओं के प्रतिस्पद्र्धी होड़ की तरह

या तो तुम्हें होना था या तो मुझे

विनम्रता एक साजिश थी और अनुरोध सिर्फ परिहास.....



यदि मैं परीक्षा के नाम पर खारिज किए जाने की

अन्तहीन निर्णायक क्रूरता के बावजूद बच गया हूं तो

अब तुम्हें प्रश्नांकित और अभिशप्त होना ही है

क्योंकि होता ही होता है सारी क्रानितयों का अन्त

एक न्यायिक एवं सापेक्ष हिंसा में.........



हां मैं स्रष्टा हूं-अपनी ही शतोर्ं पर होते और जीते रहने की जिद

तथा अपनी आपत्तियों का

कि मैं अपनी सम्पूर्ण आस्था और समर्पण के बावजूद

विरासत और उपहार में मिली हुर्इ दुनिया की

मूर्खताओं को सह नहीं पाया....

हां मैं स्रष्टा हूं अपनी अरुचि और असहमतियों का

हां मैं स्रष्टा हूं अपनी नाराजगी से उपजे पुनर्विचारों का

हां मैं अपराधी हूं कि तुम्हारी यानि अपनी ही दुनिया को नापसन्द करता हूं

हां मैं अपने अस्वीकार की स्वतंत्रता में बचा हुआ -

एक अस्वीकारक स्रष्टा हू

तुम्हारी सृषिट के समानान्तर विकसित

एक प्रतिरोधी प्र्रति-सृषिट का !ं