रविवार, 31 जुलाई 2016

रोते हुए बच्चे के लिए कविता

रोते हुए बच्चे के लिए कविता
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एक दिन आएगा
जब तुम्हें रोना भी उतना ही व्यर्थ लगने लगेगा
जितना कि हंसना !
एक दिन आएगा जब दुखी होकर सोचना?
पतझड़ के पत्तों की तरह झड़ जाएगा तुम्हारे जिस्म से
एक दिन आएगा-जब तुम्हें
जुलाई महीने की वर्षा की झड़ी जैसी
बात-बात में आएगी हंसी
एक दिन आएगा जब सांप के बूढ़े केंचुल की तरह
चुपचाप छोड़कर तुम्हें खिसक जाएगा दुख.......
एक दिन आएगा जब तुम हंसना सीख जाओगे
एक दिन आएगा
जब तुम अपने रोने की इच्छा पर ही
हंस दांगे फिस्स-से !
एक दिन आयेगा
जब सामने आकर खड़ी होगी तुम्हारी मौत
और उसे देखकर रुक ही नहीं रही होगी तुम्हारी हंसी !
(वर्त्तमान साहित्य में पूर्वप्रकाशित )

रोना कोई दृश्य नहीं है
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रोना कोई दृश्य नहीं है दृश्य का डूब जाना है
एक पहाड़ी झरने के पीछे
जलते हुए जीवन का अपने सारे वस्त्र उतारकर
कूद पड़ना है अथाह खारे समुद्र में.....
यहाॅं कहीे दूर तक
रोने की कोई जगह दिखाई नहीं देती
इस शहर में देर तक मुस्कराने के बाद
रोने के लिए किधर जाते होंगे लोग !?


रामप्रकाश कुशवाहा

विश्वासहीन

मैं इस दुनिया को पहली बार देख रहा हूॅं
मैं इस दुनिया को पहली बार जानना चाहता हूॅं
मैं इस दुनिया को पहली बार जीना चाहता हूॅं
मैं उन रोमांचक यात्रा-वृत्तान्तों का क्या करूंगा !
ऊंचे-ऊंचे पर्वतों के मापे गए दुर्गम शिखर
व्यर्थ हैं मेरे लिए......
जबकि मुझे दर्ज करनी है अपनी पिंडलियों में
असंभव चढ़ानों से जूझती दर्द भरी मधुर थकानें
मैं अपने सृजनात्मक भटकावों का मजा लेना चाहूॅंगा
बिल्कुल नई पारी के खेल की तरह
पिछला सब कुछ भूलकर............
तुम मुझे डराओ नहीं कि अब कुछ भी नहीं हो सकता
तुम मुझे रोको मत कि अब व्यर्थ होंगे सारे प्रयास
तुम्हारे नकारात्मक अनुभवों के कूड़े से
किसी पर्वत-श्रृंखला की तरह ढक गया हो
मेरी सभी दिशाओं का क्षितिज तब भी........
यह दुनिया कितनी भी पुरानी हो
कितना भी पुराना हो इस धरती पर विचरता हुआ जीवनचक्र
इस दुनिया का वर्णन करते हुए
मैं किसी थके-बूढ़े आदमी की तरह हकलाना नहीं चाहता......
मैंने तुम्हारी सारी कहानियाॅं सुनी है
और समझा है बस इतना ही कि
तुम मुझे सौंप रहे हो कुछ और कहानियां रचने की उर्वर विरासत
मैं तुम्हारी नापसन्द कहानियों को बदलना चाहता हॅंू
उनके असफल चरित्रों को फिर से जीना सिखाना चाहता हूॅं
मुझे जगह-जगह फटी हुई मूर्खताएं दिख रही हैं तुम्हारी कहानियों में.....
उनमें घटनाएं कम हैं और वर्णन ज्यादा.........
कि मै तुम्हारे सारे विचारों से ऊबा हुआ
एक अतृप्त विचारक हूॅं
अपनी शर्तों पर उड़ान भरना चाहता हूॅं अपने हिस्से का अन्तरिक्ष
हाॅं मैं रचना चाहता हूॅं अपने हिस्से की अपनी दुनिया
मैं सिर्फ मूर्खों ,तानाशाहों और अपराधियों द्वारा रची गई दुनिया को
उनकी ही बनाई गई शर्तों पर क्यों जीता रहूॅं
हाॅं मैं परखना चाहता हूॅं अपने विश्वास
रचना चाहता हूॅं अपनी आस्थाएं......
हाॅं मैं खेलना और जीना चाहता हूॅं अपने विचारों को
पूरी मौज़ और जिन्दादिली के साथ.......
कि जीवन के साथ-साथ मरना नहीं चाहिए
सक्रिय विचारशील जीवित मस्तिष्कों का होना......
कि होते रहना ही चाहिए एक नए विचारक का जन्म
टेनिस,फुटबाल,क्रिकेट या फिर तेज-रफ्तार कारों की दौड़ की तरह
हर बार नए विचारकों की एक नई जोशीली रोमांचक टीम को
इस दुनिया को और सुन्दर और रोमांचक बना देने के
कभी भी खत्म न होने वाले खेल में शामिल होना ही चाहिए........
मेरी दृष्टि में तुम्हारा सारा चिन्तन
विचारों के एक तात्कालिक प्रारूप की तरह है
मैंने पढ़े हैं तुम्हारे विचार और प्रभावित भी हूॅं
लेकिन मैं सबसे अधिक प्रभावित हूॅं इस विचार से
कि सिद्धान्ततः मैं किसी भी विचारक पर विश्वास नहीं करता.....


रामप्रकाश कुशवाहा

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

एक ही दुनिया में...

इस दुनिया में जो भी है मेरी तरह,मेरे साथ

मुझे छोड़ना ही चाहिए था-उसके भी लिए...

उसको भी साथ-साथ होने देने यानि जीने और करने की जगह.....

जबकि मैं था और मुझे ही अनुपसिथत मानकर

मेरे भी न होने की घोषणा कर दी गयी थी,,,,,



कायदे से तो मुझे लौट आना चाहिए था

उस और उनकी वर्चसिवत दुनिया में बिना हुए

जैसे किसी सोते हुए बच्चे को सोने देते हुए

चुपचाप सोते छोड़कर खिसक जाते हैं लोग

जैसे छोटे-छोटे सपनों से बाहर निकलने के बाद

जागे हुए बुद्ध निकल गए थे

यशोधरा को अपने निजी सपनों में सोते हुए छोड़कर....

जैसे एक दौड़ती हुर्इ सुपरफास्ट एक्सप्रेस æेन

आगे बढ़ जाती है अनेक छोटे-छोटे स्टेशनों को

पीछे छोड़कर-छूट जाने के इस अपरिहार्य अभिशाप के बावजूद

क्या रोमांचक नहीं है एक ही समय में अलग-अलग सपनों को जीने की स्वतंत्रता !



हमारे सपने अलग थे और हम साथ-साथ नहीं हो सकते थे

हमारे अलग-अलग सपनों ,इच्छाओं और आकांक्षाओं के रास्ते थे अलग

जैसे एक ही ब्रहमाण्ड में अलग-अलग नक्षत्रों की उपसिथति थे हम

एक ही समय में अलग-अलग दुनियावों के निर्माता थे

ऐसे में तुम्हारे असहयोग और भटकावों के लिए

यदि तुम जिम्मेदार नहीं हो तो सिर्फ अच्छाइयों की खोज में लगा हुआ

मेरा वैज्ञानिक मन और तुम्हारी दुनिया के विरूद्ध मेरा होना......



मेरा होना जो बहुतों की तरह स्तब्ध कर गया था तुम्हें भी

मेरा होना जो एक न बदल पाते हुए आदमी का होना नहीं था

बलिक मेरा होना बेवजह बदलने के लिए तैयार न हुए आदमी का होना था

उस समय तक बताया भी नहीं गया था

कि मुझे क्योंकर तुम्हारे सम्मान में झुकना चाहिए....

एक शोर सा मच रहा था तुम्हारे होने का

और मुझे एक अश्लील पर्यावरण के बीच घेर लिया गया था

मैं महसूस करने लगा था तुम्हारे सपनों की संकीर्णताओं की चुभन

एक बेहतर जिन्दगी के लिए खेले गए खेल मेें

तुम्हारे हर हत्यारे आक्रमण के बावजूद

मुझे जिन्दा बचकर निकलना था

कैंसरग्रस्त कोशिकाओं के प्रतिस्पद्र्धी होड़ की तरह

या तो तुम्हें होना था या तो मुझे

विनम्रता एक साजिश थी और अनुरोध सिर्फ परिहास.....



यदि मैं परीक्षा के नाम पर खारिज किए जाने की

अन्तहीन निर्णायक क्रूरता के बावजूद बच गया हूं तो

अब तुम्हें प्रश्नांकित और अभिशप्त होना ही है

क्योंकि होता ही होता है सारी क्रानितयों का अन्त

एक न्यायिक एवं सापेक्ष हिंसा में.........



हां मैं स्रष्टा हूं-अपनी ही शतोर्ं पर होते और जीते रहने की जिद

तथा अपनी आपत्तियों का

कि मैं अपनी सम्पूर्ण आस्था और समर्पण के बावजूद

विरासत और उपहार में मिली हुर्इ दुनिया की

मूर्खताओं को सह नहीं पाया....

हां मैं स्रष्टा हूं अपनी अरुचि और असहमतियों का

हां मैं स्रष्टा हूं अपनी नाराजगी से उपजे पुनर्विचारों का

हां मैं अपराधी हूं कि तुम्हारी यानि अपनी ही दुनिया को नापसन्द करता हूं

हां मैं अपने अस्वीकार की स्वतंत्रता में बचा हुआ -

एक अस्वीकारक स्रष्टा हू

तुम्हारी सृषिट के समानान्तर विकसित

एक प्रतिरोधी प्र्रति-सृषिट का !ं

ताकि हम जीत सकें सारी दुनिया! …

जीवन के एक रूप को जीतता हूँ तो दूसरा रूप
आकर खड़ा हो जाता है कुछ नयी चुनौतियां लेकर
मुझे परिस्थितियां  सजीव खलनायक की भूमिका  दिखती हैं
उसमें इतने आयाम छिपे है और इतनी निरीहताएं
 सक्रमण की दूसरों का रोना भी रोना बन जाता है
दूसरों का हारना देखकर लगता है की हार रहा हूँ मैं भी
जोखिमों की अंतहीन श्रृंखला
आंबे वाले समय में दुश्मनों की तरह छिपी हुयी आती हैं
कि  उनका सामना करने के लिए
हमें अपना अभ्यास ,कौशल और व्यायाम बनाए रखना चाहिए
ताकि इस धरती से बनी रहे अपनी पकड़
हमें अपनी देह में डूबकर जीन सीखना होगा
हमें सबसे पहले अपनी देह को जीतना होगा
ताकि हम जीत सकें सारी दुनिया। … 

दर्शक दीर्घा से

हर सुबह अखबार में छपता है
तीन मरे तेरह घायल 
अखबार जो काली स्याही से छपे होते है 
छिपा लेते है सडकों पर फैले हुए लाल रक्त ....

रोती हुई स्त्रियाँ और बच्चे 
दूर कही खो जाते है 
खबरों की भीड़ के पीछे 

सुबह की गर्म चाय के साथ 
हम अपने सुरक्षित बचे रह जाने की 
खुशियाँ मानते हैं 
खुशियां मनाते हैं कि 
सुरक्षित बच गए है सारे स्वजन 

कि  अब भी बची हुई है 
हमारे निकट संबंधों की दुनिया 
हमारी जानी - पहचानी दुनिया बची हुई है 

सड़क पर पड़ी लावारिस लाश के 
अन्त्य कर्म के लिए 
क्रमशः पुलिस है कुत्ते है कीड़े हैं 

घटनाओं और बाहरी दुनिया से अलग हम जी रहे हैं 
अख़बारों में छप जाने से बचते-बचाते 
सुबह के अखबार और चाय के साथ 
गुनगुनी प्यारी धुप के साथ 
और अपनी बची हुई दुनिया के लिए 
सभी के प्रति अंतहीन आभार के साथ 
बैठे हुए दर्शक दीर्घा में 

पर्यावरण का स्वर्ग

बाइबिल में लिखा है कि स्वर्ग का वर्जित फल खाने के कारण ही एडम और ईव स्वर्ग के राज्य से ईश्वर द्वारा निकाल दिये गए थे। इस मिथक में वर्जना एवं अनुशासन के महत्व को भी महिमामन्डित किया गया है। मानव जाति में प्राचीन काल से प्रचलित अधिकांश वर्जनाओं का सम्बन्ध प्रकृति के अनुशासनों से है।
। आज भी मानव जाति वर्जनाओं को तोड़ती हुई,अपने ही हाथों अपने पर्यावरण का विनाश करती हुई स्वयं को उत्तराधिकार में प्राप्त पर्यावरण के स्वर्ग से बाहर कर रही है।अपने ही स्वर्ग से निकाली जा रही है।

मंगलवार, 5 जुलाई 2016

समय-पाठ

०००००००० 
वे हैं 
उनके होने में संदेह नहीं 
उनका सिर्फ इतना ही दोष है 
कि वे हिंसक और अशिष्ट ढंग से हैं
उनका होना एक-दुसरे को व्यर्थ और निरस्त करता है

समय के संधान में यह निर्णय नहीं किया जा सकता
कि वे बाली हैं या सुग्रीव
मालाएँ दोनों ओर सामान हैं और मल्यार्पक भी
समय किसी निर्मम रस्सा कशी की भूमिका में है
सिर्फ दर्शक की भूमिका में
अनिर्णय की स्थिति का शिकार

वे सभी अपने जीवनाधिकार और हस्ताक्षर के लिए लड़ रहे हैं
एक दूसरे की हत्या और मृत्यु से ही होना है निर्णय
समय के सच्चे इतिहास-पुरुष का

जनता अपने आदिम अनुभव के साथ चुपचाप खड़ी है
हर लडाई के परिणाम में बचे हुओं के इंतजार में
जनता अपने भीतर की नापसंदगी के साथ
समेत रही है अपने हिस्से की निष्ठाएं
जनता अब बेवफाई के निर्णायक मूड में है
प्राचीन काल की उन बेवफा किन्तु समझदार स्त्र्यों की तरह
जिन्होंने सारी निगरानी और भय के बावजूद
समय पर भारी बनैले पशुओं के स्थान पर
भयभीत समझदारों के जीन
अत्यंत गोपनीय मिशन के साथ
अगली पीढ़ी तक पहुंचाए

कि डरा और सताया हुआ समय
बिना किसी शोर के
चुपके-चुपके पढ़ता है भीगी आँखों के पीछे से'''
और डराया हुआ समय
अपने विज्ञापित दु:स्वप्नों के बावजूद
हटाई हुई नज़रों और बंद नथुनों के साथ
किसी कूड़ा-स्थल की तरह
होता रहता है अपमानित अनंत-काल तक

सिर्फ बाजार में होना और जीना ही काफी नहीं है
उस प्रेयसी पहचान के लिए
जिसके लिए धरती से लेकर आसमान तक
मचा हुआ है घमासान
और जिंदगी के नाम पर बताई गयी सारी राहें
सिर्फ पहुंचना जानती हैं श्मशान (मसान !)

० रामप्रकाश कुशवाहा
०५..०७.२०१६