ईश्वर-चिंतन की अवधारणा के आधार का विमर्श
सामान्य रूप से नास्तिक और आस्तिक या मुसलमान या काफिर जैसे दो विरोधी शब्दों तक सीमित समझे जाने वाले ईश्वर पर चिंतन भी उतना आसान नहीं है; जितना की प्राय: समझा जाता है। क्योंकि प्रकृति भी विज्ञान के नियमों के अधीन है ,इसलिए ईश्वर का होना और उसका विकास भी विज्ञान के नियमों के अधीन ही संभव है। स्टीफन हाकिंग की माने तो यह ब्रह्माण्ड ईश्वर की बिना किसी भूमिका और हस्तक्षेप के भी अस्तित्वमान है। लेकिन असली समस्या विज्ञान के नियमों के अधीन ब्रह्माण्ड के अस्तित्वमान होने की नहीं बल्कि भौतिक-रासायनिक परमाणुओं की सत्ता वाले यानी भौतिक जगत से जीवन के अस्तित्वमान होने की है। यदि जड़ जगत से ही यह अंतहीन ब्रह्माण्ड बना होता और ऐसे ही गृह-नक्षत्र ा-तारे चमक रहे होते,सक्रिय ब्लैकहोल भी होते ता-गैस-गुबार चट्टानें ,अग्नि और तड़ित -भौतिक एवं रासायनिक नियमों के अधीन तो बहुत आश्चर्य की बात न होती। क्योंकि जीवन की उत्पत्ति स्टीफ़न हाकिंग के विश्लेषण में शामिल नहीं था ,इसलिए मेरा मानना है कि ईश्वर का होना और न होना भी हाकिंग के सत्य में शामिल नहीं था। महत्वपूर्ण बात यह है कि जीवन को अपने विवेक और सामर्थ्य के अनुसार प्रकृति में आंशिक या फिर वैज्ञानिक संभावनानुसार सृजनात्मक हस्तक्षेप की जो शक्ति और स्वतंत्रता प्राप्त है -इस सृष्टि में भौतिक-रासायनिक सृजनात्मक हस्तक्षेपकारी चेतन-विवेकपूर्ण शक्ति कोई है भी कि नहीं ? यद्यपि विवेक का आरंभिक रूप तो जीवाणुओं और वायरसों से लेकर अलग-अलग इलेक्ट्रानो,प्रोटानों एवं न्युट्रानों की संख्या पर आधारित गुणधर्म के रूप में विभिन्न तत्वों के परमाणुओं तक में है लेकिन संयोग पर आधारित होते हुए भी जीवन के सृजन और विकास में जो आतंरिक विवेकसम्मतता के दर्शन होते हैं वे जीवन के ईश्वरत्व के सैद्धांतिक आधार पैदा करते हैं।
मैं जो कहना चाहता हूँ उसे मैं उसी तरह आपको समझाना चाहूंगा ,जिसप्रकार से मैंने समझा है। भौतिक उपस्थिति की दृष्टि से पुरुष या स्त्री की देह एक अलग संरचनात्मक ईकाई के रूप में निर्मित है लेकिन एक प्रजाति के निर्माण के रूप में प्रकृति में उनके पूरक निर्माण की समझदारी दिखती है। इसीप्रकार वनस्पति और जंतु जगत्सृष्टि भी आक्सीजन और कार्बन डाई आक्साइड के उत्पादन की दृष्टि से स्त्री और पुरुष की तरह ही परस्पर पूरक उपस्थितियाँ हैं। जंतुओं के अस्तित्व के लिए आवश्यक प्राणवायु आक्सीजन भी वनस्पति जगत का व्यर्थ उत्पाद है। इसी तरह हमारा व्यर्थ उत्पाद कार्बन डाई आक्साइड भी वनस्पति जगत के लिए अत्यंत उपयोगी है। माना कि यह दुनिया गुणधर्म और संयोग आधारित है लेकिन विकसित हुए हर जीवन में सृजनात्मक विवेक के दर्शन क्यों होते हैं ? आँखों से वंचित सारे अंधे फूल इतने सुंदर और सुगन्धित क्यों हैं ? फूल के आकर्षक,रंगीन एवं सुगन्धिपूर्ण होने का आतंरिक विवेक दार्शनिक या धार्मिक न सही ,लेकिन एक सैद्धांतिक ईश्वर की तो मांग करता ही है। ऐसा ही जिह्वा से रहित विविध स्वाद वाले पेड़ों के लिए भी कहा जा सकता है। वे किसी मूर्ख की तरह मीठे और खट्टे नहीं हुए हैं -इन सभी के मीठे-खट्टे ,सुन्दर और सुगन्धित होने के विशेष प्रयोजन साफ-साफ देखे जा सकते हैं और वे सभी अपनी सोद्देश्य निर्मित में सफल हैं। लेकिन प्रकृति में मिलाने वाला यह आतंरिक विवेक एक सैद्धांतिक ईश्वर की अवधारणा को ही जन्म दे सकता है। भारतीय दर्शन का ब्रह्म एक ऐसी ही सैद्धांतिक अवधारणा वाला ईश्वर है। वह हजार आँखों और कानो वाला सर्वव्यापी तो है लेकिन वह इस अर्थ में असंभव कल्पना है कि वह जीवन की प्रकृति और निर्मिति के अनुरूप नहीं है। हम सभी जानते हैं कि बिना चेतना के ईश्वर की कल्पना भी नहीं की जा सकती और चेतना के लिए एक बड़े और समर्थ,सक्षम मस्तिष्क की भी जरुरत होगी और वह भी समय-सीमाओं और बंधनों से मुक्त यानी सर्वकालिक मस्तिष्क की। सर्वकालिक होने के लिए इसे सूक्ष्म भी होना होगा। क्या वायरसों के भी पार यानी सूक्ष्मतम विशुद्ध जैविक विद्युत् रूप में यानी पूर्णतः अदृश्य कोई जीवन-प्रकार वास्तव में संभव है ? यदि भौतिक स्नायुतंत्र न भी हो तो भी जीवनों में मिलने वाली मस्तिष्कीय चेतना की तरह बिना भौतिक आधार के कोई मस्तिष्कीय सचेतन अस्तित्व संभव है ? जैसाकि बहुत से धर्मों और संस्कृतियों में भूत-प्रेत एवं सूक्ष्म आत्माओं के रूप में ,रूहानी अस्तित्व या ताकत के रूप में ईश्वर या अल्लाह की परिकल्पना की जाती है।
भारतीय संस्कृति में एक और मिथकीय पौराणिक कल्पना मिलती है-यह दुनिया शेषनाग ;के फ़न पर टिकी हुई है। यह तुलना अत्यंत रोचक होगी कि भारतीय पौराणिक नायक शेषनाग भी उसी प्रजाति के हैं , जिस प्रजाति के पश्चिमी धर्मों के मिथकीय खलनायक इबलीस या शैतान ! सांप रहस्यमय तो हैं ,ठंढे रक्त वाले होने के कारण भोजन भी कम एवं लम्बे समय के बाद करते हैं , साँपों में जैवविविधता भी बहुत पायी जाती है। कुछ वर्षों पहले बोल्विया केकी खदानों में एक पचास मीटर लम्बे डायनासोर युग के महासर्प का फॉसिल मिलाने की खबर अख़बारों में पढ़ी थी। क्या प्रारम्भिक पूर्वजों को भी किसी ऐसे फॉसिल के दर्शन हुए थे ? जैसे किसी डायनासोर के फॉसिल ही चीनी ड्रैगन के अस्तित्व में होने के आधार बने होंगे। अगर कोई ऐसा अस्तित्व होगा तो भोजन-श्रंखला में भी होगा ताकि वह अधिक समय तक मृत्यु-क्षरण से मुक्त रहे। ऐसी मिलती-जुलती कल्पनाएं बलि-प्रथा वाले सभी कबीलाई धर्म करते देखे जाते हैं। इसलिए हमें निश्चिन्त होकर मार्क्सवाद,विज्ञान और लोककल्याणकारी राज्य की और आगे के चिंतन के लिए लौटना चाहिए। क्योंकि उपलब्ध विज्ञान में यह सामर्थ्य है कि आधुनिक लोककल्याणकारी सत्ता यदि संवेदनशील हो तो वह अपने नागरिकों का पुराने समय के ईश्वर से बेहतर देखभाल कर सकती है। यदि मानव-सभ्यता और व्यवस्थित तथा परिष्कृत हो जाती है तो
ईश्वर की सैद्धांतिक जरुरत जब पड़ सकती है वह निहारिकाओं के लड़-भिड़ जाने या फिर प्रलय के बाद फिर नए सिरे से नयी जीवन-सृष्टि बनाते समय होगी। वह भी तब जब ब्रह्माण्ड में विगत जीवन-सृष्टि की कोई भी स्मृति नहीं बची होगी किसी बीज की तरह। अदि कोई जैविक-विद्युतीय बीज जैसी स्मृति होगी तो शायद परमाणुओं के नवसंलयन काल में एक बार फिर नए जीवन की सृष्टि शायद आसान हो जाए अन्यथा उस आगामी सृष्टि को एक बार जीवन की खोज में दिशाहीन संयोगों की और भटकना होगा।
मैं जो कहना चाहता हूँ उसे मैं उसी तरह आपको समझाना चाहूंगा ,जिसप्रकार से मैंने समझा है। भौतिक उपस्थिति की दृष्टि से पुरुष या स्त्री की देह एक अलग संरचनात्मक ईकाई के रूप में निर्मित है लेकिन एक प्रजाति के निर्माण के रूप में प्रकृति में उनके पूरक निर्माण की समझदारी दिखती है। इसीप्रकार वनस्पति और जंतु जगत्सृष्टि भी आक्सीजन और कार्बन डाई आक्साइड के उत्पादन की दृष्टि से स्त्री और पुरुष की तरह ही परस्पर पूरक उपस्थितियाँ हैं। जंतुओं के अस्तित्व के लिए आवश्यक प्राणवायु आक्सीजन भी वनस्पति जगत का व्यर्थ उत्पाद है। इसी तरह हमारा व्यर्थ उत्पाद कार्बन डाई आक्साइड भी वनस्पति जगत के लिए अत्यंत उपयोगी है। माना कि यह दुनिया गुणधर्म और संयोग आधारित है लेकिन विकसित हुए हर जीवन में सृजनात्मक विवेक के दर्शन क्यों होते हैं ? आँखों से वंचित सारे अंधे फूल इतने सुंदर और सुगन्धित क्यों हैं ? फूल के आकर्षक,रंगीन एवं सुगन्धिपूर्ण होने का आतंरिक विवेक दार्शनिक या धार्मिक न सही ,लेकिन एक सैद्धांतिक ईश्वर की तो मांग करता ही है। ऐसा ही जिह्वा से रहित विविध स्वाद वाले पेड़ों के लिए भी कहा जा सकता है। वे किसी मूर्ख की तरह मीठे और खट्टे नहीं हुए हैं -इन सभी के मीठे-खट्टे ,सुन्दर और सुगन्धित होने के विशेष प्रयोजन साफ-साफ देखे जा सकते हैं और वे सभी अपनी सोद्देश्य निर्मित में सफल हैं। लेकिन प्रकृति में मिलाने वाला यह आतंरिक विवेक एक सैद्धांतिक ईश्वर की अवधारणा को ही जन्म दे सकता है। भारतीय दर्शन का ब्रह्म एक ऐसी ही सैद्धांतिक अवधारणा वाला ईश्वर है। वह हजार आँखों और कानो वाला सर्वव्यापी तो है लेकिन वह इस अर्थ में असंभव कल्पना है कि वह जीवन की प्रकृति और निर्मिति के अनुरूप नहीं है। हम सभी जानते हैं कि बिना चेतना के ईश्वर की कल्पना भी नहीं की जा सकती और चेतना के लिए एक बड़े और समर्थ,सक्षम मस्तिष्क की भी जरुरत होगी और वह भी समय-सीमाओं और बंधनों से मुक्त यानी सर्वकालिक मस्तिष्क की। सर्वकालिक होने के लिए इसे सूक्ष्म भी होना होगा। क्या वायरसों के भी पार यानी सूक्ष्मतम विशुद्ध जैविक विद्युत् रूप में यानी पूर्णतः अदृश्य कोई जीवन-प्रकार वास्तव में संभव है ? यदि भौतिक स्नायुतंत्र न भी हो तो भी जीवनों में मिलने वाली मस्तिष्कीय चेतना की तरह बिना भौतिक आधार के कोई मस्तिष्कीय सचेतन अस्तित्व संभव है ? जैसाकि बहुत से धर्मों और संस्कृतियों में भूत-प्रेत एवं सूक्ष्म आत्माओं के रूप में ,रूहानी अस्तित्व या ताकत के रूप में ईश्वर या अल्लाह की परिकल्पना की जाती है।
भारतीय संस्कृति में एक और मिथकीय पौराणिक कल्पना मिलती है-यह दुनिया शेषनाग ;के फ़न पर टिकी हुई है। यह तुलना अत्यंत रोचक होगी कि भारतीय पौराणिक नायक शेषनाग भी उसी प्रजाति के हैं , जिस प्रजाति के पश्चिमी धर्मों के मिथकीय खलनायक इबलीस या शैतान ! सांप रहस्यमय तो हैं ,ठंढे रक्त वाले होने के कारण भोजन भी कम एवं लम्बे समय के बाद करते हैं , साँपों में जैवविविधता भी बहुत पायी जाती है। कुछ वर्षों पहले बोल्विया केकी खदानों में एक पचास मीटर लम्बे डायनासोर युग के महासर्प का फॉसिल मिलाने की खबर अख़बारों में पढ़ी थी। क्या प्रारम्भिक पूर्वजों को भी किसी ऐसे फॉसिल के दर्शन हुए थे ? जैसे किसी डायनासोर के फॉसिल ही चीनी ड्रैगन के अस्तित्व में होने के आधार बने होंगे। अगर कोई ऐसा अस्तित्व होगा तो भोजन-श्रंखला में भी होगा ताकि वह अधिक समय तक मृत्यु-क्षरण से मुक्त रहे। ऐसी मिलती-जुलती कल्पनाएं बलि-प्रथा वाले सभी कबीलाई धर्म करते देखे जाते हैं। इसलिए हमें निश्चिन्त होकर मार्क्सवाद,विज्ञान और लोककल्याणकारी राज्य की और आगे के चिंतन के लिए लौटना चाहिए। क्योंकि उपलब्ध विज्ञान में यह सामर्थ्य है कि आधुनिक लोककल्याणकारी सत्ता यदि संवेदनशील हो तो वह अपने नागरिकों का पुराने समय के ईश्वर से बेहतर देखभाल कर सकती है। यदि मानव-सभ्यता और व्यवस्थित तथा परिष्कृत हो जाती है तो
ईश्वर की सैद्धांतिक जरुरत जब पड़ सकती है वह निहारिकाओं के लड़-भिड़ जाने या फिर प्रलय के बाद फिर नए सिरे से नयी जीवन-सृष्टि बनाते समय होगी। वह भी तब जब ब्रह्माण्ड में विगत जीवन-सृष्टि की कोई भी स्मृति नहीं बची होगी किसी बीज की तरह। अदि कोई जैविक-विद्युतीय बीज जैसी स्मृति होगी तो शायद परमाणुओं के नवसंलयन काल में एक बार फिर नए जीवन की सृष्टि शायद आसान हो जाए अन्यथा उस आगामी सृष्टि को एक बार जीवन की खोज में दिशाहीन संयोगों की और भटकना होगा।