जब तक किसी समूह के सदस्य एक-दूसरे के अधिकतम समरूप बने रहने के प्रयास में दूसरे समूह से भिन्न बने रहेंगे भारत में जाति -प्रथा नाम-रूप बदलकर किसी न किसी रूप में बनी रहेगी | जातिविहीनता का आदर्शवाद तभी संभव है जब सभी असामाजिक हो जाएँ और समूह के आदर्शों को जीना बंद कर दें | जाति भी मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के कारण ही अस्तित्व में बने हुए हैं | भारत में जातिवाद किसी ब्राह्मण या ब्राह्मण समुदाय द्वारा बनाया गया नहीं है ,बल्कि उसकी ऐतिहासिक पारिस्थितकी की उपज है |उपजाऊ देश होने के कारण प्राचीन काल से ही अलग-अलग समूह भारत में बसने के लिए आते गए और जातियाँ बढ़ती गयीं | यदि दूसरे की सामूहिक भिन्नता को स्वीकार करना ही जातिवाद है तो ऐसे जातिवाद को भारत के लिए प्रगतिशील भी माना जा सकता है | हम सभी जानते हैं कि मध्यकाल में जब पुलिस व्यवस्था हमेशा ही ठीक नहीं रही होगी तो जातियों नें ही अपने सदस्यों का चारित्रिक नियमन किया होगा | जाति प्रथा भी मनोवैज्ञानिक दंड और पुरष्कार-प्रथा के आधार पर ही हजारों वर्षों तक ऐसा करती रहीं | जाति प्रथा की यह प्रगतिशील भूमिका थी | सबको समान रूप में जीने के लिए दबाव बनाना भी हिंसा है | जाति -प्रथा नें अलग-अलग समूहों को अलग -अलग रीति-रिवाजों को जीने की स्वायत्तता दी | भारत में जातिप्रथा इसलिए बुरी है कि धार्मिक आधार पर श्रेणीकरण करने के कारण कुछ लोगों को निचले दर्जे पर कर दिया गया | ऐसा महावीर स्वामी और बुद्ध धर्म में प्रचलित अहिंसावाद से हुआ होगा | इससे चर्म-उद्योग से जुडी जातियां अधिक घाटे में रहीं और अछूत तक करार दी गयीं | आज वैश्विक अनुरूपता की धारा बह रही है | नस्लीय या अनुवांशिक भिन्नता को छोड़ दे तो समान शिक्षा-दीक्षा और रहन-सहन के कारण आज समूह की भिन्नता भी कम हो रही है | आज जाति-प्रथा किसी बौद्धिक या वैचारिक आधार पर नहीं बल्कि वैवाहिक सुविधा , आलस्य और सामाजिक तंत्र के आधार पर बची हुई है | इसकी शक्ति भी सामाजिकता की ही शक्ति है | क्योकि कुछ जातियों का राजनीतिकरण हो चुका है इसलिए उनका संगठनात्मक हित जाति प्रथा को बनाए रखने में हो गया है | इस कारण ही जाति से बाहर निकलने के वैयक्तिक प्रयास प्रभावी नहीं हो रहे हैं |
जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
गुरुवार, 20 अप्रैल 2017
शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017
धर्म-विमर्श
धर्म-विमर्श
आज धर्म पर पुनर्विचार की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि पहले का मनुष्य आज की तरह तार्किक नहीं था | अच्छी और उपयोगी बातों को धर्म के नाम पर समाज में फैला दिया जाता था | यह मान लिया जाता था कि ये बाते स्वयं सिद्ध या चिन्तक-मनीषियों द्वारा कही गयी हैं और उन्हें बिना प्रश्नांकित किए मानना जरुरी है | धर्म किस प्रकार नेतृत्व वर्ग के आदेशों से जुडा है इसका पता बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट के मूसा के नेतृत्व में मश्र से यहूदियों के महा-निष्क्रमण से चलता है |मूसा जब पहाड़ी पर चढ़ कर चिंतन कर रहे थे,उस समय अपने अनुयायियों की धैर्यहीनता तथा सभी के सोने को पिघलाकर एक देवता बनाकर पूजने का प्रयास करने वाले अपनें ही बीच के दूसरे नंबर के नेतृत्व को तथा उसकी बात मानने वालों को बर्बरतापूर्वक हत्या करवाते हैं | यहूदियों के लिए मूसा के निर्देश कितने महत्वपूर्ण थे कि बहुत बाद में ईसा मसीह को भी उसी के आधार पर सूली यानि ऊँचे पर लटका दिया गया | यहूदी आज भी मूसा के उपदेशों से ही संचालित होते हैं जबकि ईसा मसीह के अनुयायियों नें बाद में यहूदियों को समझना छोड़ कर दूसरी जातियों को उपदेश देना शुरू किया | यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्र की अवधारणा का जन्म भी मूसा के द्वारा यहूदियों को संगठित करने की घटना से ही जोड़ा जाता है | मूसा नें यहूदियों को संगठित किया | उस संगठित शक्ति के नेतृत्व नें यहूदियों नें नगर के नगर लुटे और भयंकर कत्लेआम कर काला सागर के पास की वह थोड़ी सी जमीन वापस छीनी जो उनके अनुसार उनके पुरखों की थी | यहूदी धर्म की यह जनसँख्या यहूदियों के लिए खतना अनिवार्य करने वाले उनके पहले पैगम्बर ईब्राहिम के लगभग हजार वर्ष बाद जब खतना किए हुए लोगों की एक बड़ी संख्या मिश्र में हो जाती है .बहुत पहले युसूफ के साथ मिश्र में आए यहूदियों के वंशज मूसा के नेतृत्व में एक -दूसरे को पहचान कर मूसा के नेतृत्व में मिश्र से बाहर निकलने का सफल प्रयास करते हैं |एक संगठित सैन्य शक्ति के रूप में एक लड़ाकू धर्म ,जाति और राष्ट्र के संस्थापक बनते हैं जो यहूदी कहलाती है | मूसा नें यहूदियों को संगठित सैन्य शक्ति के रूप में जो नया चेहरा दिया उसका धर्म की मानवीय संवेदना से कुछ लेना-देना नहीं था | वह इस अंधी आस्था पर आधारित था कि यहोवा के नाम पर जिसका भी खतना हुआ है ,वह दूसरे मनुष्यों से विशिष्ट है | यह सीधे-सीधे दूसरों को हेय और स्वयं यानि यहूदियों को श्रेष्ठ समझने वाला धर्म था | यह विशिष्टता-बोध जीता था और दूसरों का अपमान करता था | इस्लाम के प्रवर्तक स्वयं मुहम्मद साहब के ऊपर भी नीचा देखने की भावना से कूड़ा फेकने का जिक्र मिलता है | इस प्रकार धर्म के नाम पर संगठित श्रेष्ठता और संगठित अपमान करने वाली कट्टरता का सम्बन्ध यहूदियों से है |
मुहम्मद साहब नें इस्लाम की खतना प्रथा यहूदियों से ही ली थी |.हाँ अरबी भाषा के पहले अक्षर अल्लिफ के अनुसार उन्होंने ईश्वर को यहोवा न कहकर अल्लाह कहा जिसका आशय था सृष्टि में पहला (जैसे अल्लिफ अरबी वर्ण माल का पहला अक्षर है उसी प्रकार दुनिया के पीछे सक्रिय पहली शक्ति को उन्होंने अल्लाह कहा | मुहम्मद साहब की जीवन गाथा पढ़ाकर ऐसा लगत है कि प्र्तारम्भ में उनका उद्देश्य गौतम बुद्धा और ईसा मसीह की परंपरा का ही मसीहा बनने का था लेकिन जब विरोधियों द्वारा उन पर प्राणघातक हमले बढ गए तो उन्होंने अपना रास्ता मूसा की शैली का कर लिया | खतना और कट्टरता दोनों ही इस्लाम में मूसा के यहूदियों वाली ही रही है | यही कट्टरता जब भारत में आयी तब यहाँ के लोगों को मूर्तिपूजक मानकर वही प्रयोग भारतीयों के साथ भी हुए | प्रतिक्रिया में संगठन के महत्व को देखते हुए मध्य युग में खालसा और सिक्ख पंथ का गठन गुरु गोविन्द सिंह नें किया | वे स्वयं तो मारे गए लेकिन उनकी नीव का भवन बाद में महाराणा रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिक्खों नें देखा | ईसाईयों नें ईसा मसीह के नेतृत्व और प्रभाव में सेवा का संगठन बनाया लेकिन मूसा की हिंसक संगठन वाली परंपरा इस्लाम के अनुयायियों की परंपरा सिक्खों में होती हुई ब्रिटिश काल में निर्मित होने वाले हिन्दू संगठनों तक पहुंची | इसे मैं इतिहास में एंटीबाडी बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखता हूँ | वह मुसलमानों की तरह ही एक ऐतिहासिक अनुभव प्रक्रिया का परिणाम है -यह कट्टरता की पर्तिक्रियात्मक प्रक्रिया के रूप में है | हिन्दू नामकरण से लेकर उसका चरित्र गढ़ने तक इस्लाम के ऐतिहासिक अनुभव ही इसे शक्ति और उर्जा देते रहे हैं | मैं आज भी दुनिया की किसी कट्टरता के पीछे मूसा का असहिष्णु और क्रोधी चेहरा झांकते हुए पाता हूँ |
मैं जनता हूँ कि धर्म का यह भारतीय चेहरा नहीं है हाँ इसे संगठन का चेहरा अवश्य कहा जा सकता है -एक ऐसा संगठन जिसे मुस्लिम कट्टरता नें रचा है अपनी प्रतिक्रिया में | भारत के मसीहाओं का असली चेहरा बुद्ध और महात्मा गाँधी के चहरे से मिलता-जुलता हो सकता है ,ईसा मसीह से भी | मुहम्मद साहब का प्रारंभिक आचरण बताता है कि वे भी ईसा मसीह की तरह के ही पैगम्बर होना चाहते थे लेकिन परिस्थितियों नें उन्हें मूसा की शैली का पैगम्बर बना दिया | मुझे् ल गता है कि उनकी आत्मा की शांति के लिए इस्लाम के अनुयायियों को ही आगे आना होगा | वे इंसानियत के प्रति अपने कर्तव्यों को समझकर लचीले बनेंगे तभी वे अपने जैसे सनकी कबीले के बनाने के स्थान पर इंसानियत का एक बार फिर फैलाना देख पाएगे |
( क्योंकि सबसे पहले मूसा नें ही एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना की थी जो सिर्फ यहूदियों के लिए हो |यहूदियों को सगा और श्रेष्ठ और दूसरों को पराया मानने वाला दुनिया का पहला सांप्रदायिक संगठन वही था | क्योंकि मुहम्मद साहब नें यहूदियोे की प्रतिस्पर्धा में अपना धार्मिक संगठन 'इस्लाम 'खड़ा किया था ,इसलिए ईसाई धर्म से कुछ कथाएँ लेने के बावजूद इस्लाम यहूदी धर्म का ही प्रति-रूप है | यही कारण है कि जैसे यहूदी दूसरे समुदायों के साथ नहीं रह सकते वैसे ही मुसलमान भी नहीं रह सकते | क्योंकि यह मूसा के शुद्धतावादी नरसंहारों का ऐतिहासिक अचेतन छिपाए है | इस लिए हर बढ़ती जनसँख्या के साथ यह भी अलग राष्ट्र मांगता रहेगाा |दूसरी कौमें नहीं देना चाहेंगी तो उन्हें लड़ना ही होगा | इसराइल ,पाकिस्तान और कश्मीर यह सब एक ही ऐतिहासिक -सांस्कृतिक अचेतन की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं | बिना मानवतावादी आधुनिकतावादी विज्ञानवादी मुस्लिम नवजागरण के मुझे भी कश्मीर समस्या का कोई हल नहीं दिखता |)
धर्म की पिछली यात्रा को देखकर मैं आज भी आश्चर्य से भर जाता हूँ कि मध्य युग के संगठित अपराधियों नें ईश्वर को भी नहीं छोड़ा |आज भी उनका व्यवहार नहीं बदला है | वे क्योंकि तलवार से हत्या कर सकते थे इसलिए वे इसकी घोषणा कर सकते थे कि ईश्वर उनसे सहमत है | एक मित्र नें मुझसे धर्म की परिभाषा पूछी थी -क्या मैं ऐसा कह सकता हूँ कि प्राचीन काल से ही संगठनों की दादागिरी ही धर्म है | धर्म वही है जिसे विजेता कहता है ....
भाग्य और प्रारब्धवाद के आधार पर राजा के पक्ष में जनमत तैयार करते ब्राह्मण अपनी भूमिका में बने रहे और उनकी इस भूमिका का लाभ बाद में मुग़ल शासकों को भी मिला | आज भी यह तंत्र आनुवंशिक व्यवस्था का सम्मान करता है | आज के भारतीय लोकतंत्र में ही कई ऐतिहासिक घराने सक्रिय हैं |एक बार निष्ठां तय हो जाती है तो उसमें भगवान की खोज शरू हो जाती है | जिसे देखो और जिधर देखो उधर ही यह तंत्र भक्त पैदा करता रहता है |ये भक्त अपनी जिम्मेदारियों से निरंतर भागते रहते हैं और जिम्मेदारियों का निरवाह करने के लिए एक अदद भगवान की खोज में लगे रहते हैं | यद्यपि इतिहास में कुछ बहुत चालाक ब्राह्मणों नें ब्राहमणों के तटस्थ रहने के जातीय निर्देश को नहीं माना और स्वयं राज सत्ता हथिया ली | इनमें से पुष्यमित्र शुंग का नाम सर्वोपरि है | भारत में गुलामी का मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार करने वाले आध्यात्म के नाम पर समर्पण वादी भक्ति का प्रचार किया गया |
मुहम्मद साहब नें इस्लाम की खतना प्रथा यहूदियों से ही ली थी |.हाँ अरबी भाषा के पहले अक्षर अल्लिफ के अनुसार उन्होंने ईश्वर को यहोवा न कहकर अल्लाह कहा जिसका आशय था सृष्टि में पहला (जैसे अल्लिफ अरबी वर्ण माल का पहला अक्षर है उसी प्रकार दुनिया के पीछे सक्रिय पहली शक्ति को उन्होंने अल्लाह कहा | मुहम्मद साहब की जीवन गाथा पढ़ाकर ऐसा लगत है कि प्र्तारम्भ में उनका उद्देश्य गौतम बुद्धा और ईसा मसीह की परंपरा का ही मसीहा बनने का था लेकिन जब विरोधियों द्वारा उन पर प्राणघातक हमले बढ गए तो उन्होंने अपना रास्ता मूसा की शैली का कर लिया | खतना और कट्टरता दोनों ही इस्लाम में मूसा के यहूदियों वाली ही रही है | यही कट्टरता जब भारत में आयी तब यहाँ के लोगों को मूर्तिपूजक मानकर वही प्रयोग भारतीयों के साथ भी हुए | प्रतिक्रिया में संगठन के महत्व को देखते हुए मध्य युग में खालसा और सिक्ख पंथ का गठन गुरु गोविन्द सिंह नें किया | वे स्वयं तो मारे गए लेकिन उनकी नीव का भवन बाद में महाराणा रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिक्खों नें देखा | ईसाईयों नें ईसा मसीह के नेतृत्व और प्रभाव में सेवा का संगठन बनाया लेकिन मूसा की हिंसक संगठन वाली परंपरा इस्लाम के अनुयायियों की परंपरा सिक्खों में होती हुई ब्रिटिश काल में निर्मित होने वाले हिन्दू संगठनों तक पहुंची | इसे मैं इतिहास में एंटीबाडी बनने की ऐतिहासिक प्रक्रिया के रूप में देखता हूँ | वह मुसलमानों की तरह ही एक ऐतिहासिक अनुभव प्रक्रिया का परिणाम है -यह कट्टरता की पर्तिक्रियात्मक प्रक्रिया के रूप में है | हिन्दू नामकरण से लेकर उसका चरित्र गढ़ने तक इस्लाम के ऐतिहासिक अनुभव ही इसे शक्ति और उर्जा देते रहे हैं | मैं आज भी दुनिया की किसी कट्टरता के पीछे मूसा का असहिष्णु और क्रोधी चेहरा झांकते हुए पाता हूँ |
मैं जनता हूँ कि धर्म का यह भारतीय चेहरा नहीं है हाँ इसे संगठन का चेहरा अवश्य कहा जा सकता है -एक ऐसा संगठन जिसे मुस्लिम कट्टरता नें रचा है अपनी प्रतिक्रिया में | भारत के मसीहाओं का असली चेहरा बुद्ध और महात्मा गाँधी के चहरे से मिलता-जुलता हो सकता है ,ईसा मसीह से भी | मुहम्मद साहब का प्रारंभिक आचरण बताता है कि वे भी ईसा मसीह की तरह के ही पैगम्बर होना चाहते थे लेकिन परिस्थितियों नें उन्हें मूसा की शैली का पैगम्बर बना दिया | मुझे् ल गता है कि उनकी आत्मा की शांति के लिए इस्लाम के अनुयायियों को ही आगे आना होगा | वे इंसानियत के प्रति अपने कर्तव्यों को समझकर लचीले बनेंगे तभी वे अपने जैसे सनकी कबीले के बनाने के स्थान पर इंसानियत का एक बार फिर फैलाना देख पाएगे |
( क्योंकि सबसे पहले मूसा नें ही एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना की थी जो सिर्फ यहूदियों के लिए हो |यहूदियों को सगा और श्रेष्ठ और दूसरों को पराया मानने वाला दुनिया का पहला सांप्रदायिक संगठन वही था | क्योंकि मुहम्मद साहब नें यहूदियोे की प्रतिस्पर्धा में अपना धार्मिक संगठन 'इस्लाम 'खड़ा किया था ,इसलिए ईसाई धर्म से कुछ कथाएँ लेने के बावजूद इस्लाम यहूदी धर्म का ही प्रति-रूप है | यही कारण है कि जैसे यहूदी दूसरे समुदायों के साथ नहीं रह सकते वैसे ही मुसलमान भी नहीं रह सकते | क्योंकि यह मूसा के शुद्धतावादी नरसंहारों का ऐतिहासिक अचेतन छिपाए है | इस लिए हर बढ़ती जनसँख्या के साथ यह भी अलग राष्ट्र मांगता रहेगाा |दूसरी कौमें नहीं देना चाहेंगी तो उन्हें लड़ना ही होगा | इसराइल ,पाकिस्तान और कश्मीर यह सब एक ही ऐतिहासिक -सांस्कृतिक अचेतन की विविध अभिव्यक्तियाँ हैं | बिना मानवतावादी आधुनिकतावादी विज्ञानवादी मुस्लिम नवजागरण के मुझे भी कश्मीर समस्या का कोई हल नहीं दिखता |)
धर्म की पिछली यात्रा को देखकर मैं आज भी आश्चर्य से भर जाता हूँ कि मध्य युग के संगठित अपराधियों नें ईश्वर को भी नहीं छोड़ा |आज भी उनका व्यवहार नहीं बदला है | वे क्योंकि तलवार से हत्या कर सकते थे इसलिए वे इसकी घोषणा कर सकते थे कि ईश्वर उनसे सहमत है | एक मित्र नें मुझसे धर्म की परिभाषा पूछी थी -क्या मैं ऐसा कह सकता हूँ कि प्राचीन काल से ही संगठनों की दादागिरी ही धर्म है | धर्म वही है जिसे विजेता कहता है ....
भाग्य और प्रारब्धवाद के आधार पर राजा के पक्ष में जनमत तैयार करते ब्राह्मण अपनी भूमिका में बने रहे और उनकी इस भूमिका का लाभ बाद में मुग़ल शासकों को भी मिला | आज भी यह तंत्र आनुवंशिक व्यवस्था का सम्मान करता है | आज के भारतीय लोकतंत्र में ही कई ऐतिहासिक घराने सक्रिय हैं |एक बार निष्ठां तय हो जाती है तो उसमें भगवान की खोज शरू हो जाती है | जिसे देखो और जिधर देखो उधर ही यह तंत्र भक्त पैदा करता रहता है |ये भक्त अपनी जिम्मेदारियों से निरंतर भागते रहते हैं और जिम्मेदारियों का निरवाह करने के लिए एक अदद भगवान की खोज में लगे रहते हैं | यद्यपि इतिहास में कुछ बहुत चालाक ब्राह्मणों नें ब्राहमणों के तटस्थ रहने के जातीय निर्देश को नहीं माना और स्वयं राज सत्ता हथिया ली | इनमें से पुष्यमित्र शुंग का नाम सर्वोपरि है | भारत में गुलामी का मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार करने वाले आध्यात्म के नाम पर समर्पण वादी भक्ति का प्रचार किया गया |
हिंदुत्व-विमर्श
कोई श्रेष्ठ सभ्यता यदि अपनी विशेषताएँ भूलकर प्रतिक्रिया में जब किसी अन्य समुदाय की बुराइयाँ अपनाने लगे तो इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता | इससे दोहरी क्षति होती है -वह सभ्यता अपने वास्तविक स्वरूप से भटक जाती है ,वह प्रतिक्रिया में दूसरे समुदाय की बुराइयाँ अपनाने लगती है | हिंदुत्व को लेकर कुछ भी चिंतन करने पर मित्र बुरा मानने लगते हैं यही दिक्कत इस्लामी समुदाय के साथ भी है | हिंदुत्व के मुद्दे पर मेरी असहमति मात्र इतनी ही है कि इस्लाम समुदाय,देशों और उनकी राजनीति की भी मूल-प्रकृति कबीलाई है ;ऐतिहासिक कारणों से ही सही प्रतिक्रिया और अनुकरण में भारतीय सभ्यता को भी हिंदुत्व के एक बन्द कबीले के रूप में विकसित करने या ढालने का प्रयास नहीं होना चाहिए | इससे हम प्रतिगामी हो जाएँगे और डेढ़ हजार वर्ष पीछे की मानसिकता को जीने वाले एक बड़ी जनसंख्या के बेमतलब प्रतिस्पर्धी एवं प्रतिरूप बन जाएंगे जो सवयम परिवर्तन और आधुनिकता को सही ढंग से जी और समझ नहीं पा रहा है | हमारे वर्तमान नीति नियंता इसके प्रति कितने सजग हैं ,यह अभी भविष्य के गर्भ में है |
मंगलवार, 11 अप्रैल 2017
सनातन
मध्य काल में भारत में रहने वाले जिसके भी पुरखे मुसलमान बनने से बच गए वे सभी आज हिन्दू कहे और समझे जाते हैं | हिन्दू नाम ही गैर मुस्लिम गैर ईसाई भारतीय प्रजा होने का सूचक है - ऐतिहासिक तथ्य यही है कि यह शब्द गैर मुस्लिम प्रजा का ही सूचक रहा है मुसलमान शासकों के लिए | मेरी दृष्टि में तो स्वयं को हिन्दू कहना भी अतीत की गुलामी है | इससे बेहतर तो होगा कि हम सब भारतीय मूल के लोग स्वयं को सनातनी ही कहें - सनातन धर्म के अर्थ में यह शब्द प्रचलित भी है | भारतीय मूल की जनसँख्या की आदिम स्वतंत्रता के सम्मान में | यही एक ऐसी सभ्यता है जो अनेकांतवादी है | इसमें ईश्वर को माना जा सकता है ,ईश्वर को नहीं माना जा सकता है ,चुटिया रखी जा सकती है ,चुटिया नहीं रखी जा सकती है ,कपड़ा पहना जा सकता है ,कपड़ा नहीं पहना जा सकता है ,दाढ़ी रखी जा सकती है दाढ़ी नहीं रखी जा सकती है ,बाल बढ़ाने और मुंडन कराने दोनों की ही स्वतंत्रता प्राप्त है ,नहा कर हुआ जा सकता है और बिना नहाए भी हुआ जा सकता है | पूजा किया जा सकता है और पूजा नहीं भी किया जा सकता है | जब राम ,कृष्ण और बुद्ध हिन्दू नहीं कहलाते थे तो उनके वंशजों को क्यों हिन्दू कहते हो भाई ! एक शानदार सभ्यता के शानदार अतीत का सम्मान करो | उसे सनातनी नहीं कह सकते तो हिन्दू कह कर अपमानित क्यों करते हो ? दूसरों को हिन्दू कहलाना पसंद हो तो हो मुझे तो हिन्दू कहे जाना ही अपनी महान सांस्कृतिक विरासत से पद-च्युत होना लगता है ....मुझे तो गर्व है स्वयं को भारतीय मूल का मुक्त मनुष्य होने पर | इसकी स्वतंत्रता विवेक और मुक्त मनुष्यता की भी स्वतंत्रता है | वसुधैव कुटुम्बकम की भारतीय अवधारणा भी इसी सच्चाई की उद्घोषणा है | यह सांस्कृतिक मुक्ति का भी क्षेत्र है | प्रकृति,ईश्वर और इतिहास नें जिसे अब तक मुक्त ही रखा है ,उसे आगे भी मुक्त रहने दो ! मेरी दृष्टि में भविष्य के संप्रदाय मुक्त आदर्श विश्व के लिए इस मुक्त जनसँख्या और उसके मूल्यों का पूरे स्वाभिमान ,श्रेष्ठता-बोध और वैचारिक स्वातंत्र्य के साथ बचे रहना जरुरी है| संकीर्णता के विरुद्ध मुक्ति के एक प्रेरक दृष्टान्त के रूप में ....
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