मंगलवार, 11 जून 2013

अलक्षित प्रतिरोध की पुनर्रचना

        
  समयांतर ,संपादक-पंकज बिष्ट ,जून-२०१३ के अंक में प्रकाशित 
     
              अलक्षित प्रतिरोध की पुनर्रचना
                                      राम्प्राकाश कुशवाहा

              किसान आन्दोलन की साहित्यिक जमीन :रामाज्ञा  शशिधर ;
                   अंतिका प्रकाशन ,पृo 207,  मूल्य : 225.00
                        ISBN 978-93-81923-27-6
युवा कवि एवं  आलोचक रामाज्ञा शशिधर की किताब 'किसान आन्दोलन की साहित्यिक जमीन ' साहित्यिक निबंधों की भाषा-संरचना और शिल्प में सृजित किसान आन्दोलनों और उनके लिए लिखे गए साहित्य पर केन्द्रित औपन्यसिक पठनीयता लिए एक साथ रोचक,मौलिक और महत्वपूर्ण शोधकार्य है .किसान-पक्ष एवं संवेदना की आत्मीय सृजनशीलता इसे हिन्दी के दूसरे शोध-प्रबंधों से अलग कराती है और इसे अपने ढंग की अकेली पठनीय किताब भी बनती है .यह इस किताब की विशिष्टताओं का साहित्यिक-सृजनात्मक पक्ष है ,जो इसके महत्वपूर्ण विषय किसान आन्दोलन और उससे जुडी  साहित्यिक सामग्री के शोध-महत्त्व के अतिरिक्त है .
            हमारे साहित्य,संस्कृति और सभ्यता के केन्द्र में किसान जीवन के मूल्य ही प्रतिष्ठित हैं .मुद्रा-विनिमय आधारित अर्थ-तंत्र और बाजार सभ्यता का विकास बहुत बाद में हुआ .इससे कृषि-उत्पादन के क्षेत्रों से दूर अलग हटाकर भी मानव-बस्तियां सम्भव हुईं.मंडियां,बाजार,कस्बे और नगर विकसित  हुए और आज हमारी सभ्यता महानगरों के विकास तक पहुँच गई है .लेकिन इस बाजार सभ्यता नें न सिर्फ आर्थिक व्यव्हार की अलग भाषा विकसित की है ,बल्कि मुद्रा आधारित मानव-व्यव्हार और रिश्तों का ऐसा यांत्रिक पर्यावरण भी दिया है ,जो एक संवेदन-शून्य असभ्य मनुष्य की रचना करता है .लेन-देन के बाहर  के हर रिश्ते को नकार देता है .शेक्सपियर के प्रसिद्ध  उपन्यास 'मर्चेण्ट आफ वेनिस 'का कंजूस पात्र शाईलाक  ऐसा ही अर्थ और बाजार के मूल्यों से  निर्मित अर्थ-पिशाच मनुष्य है .कार्ल मार्क्स इसी पूंजी-ग्रस्त मानस से मानव -सभ्यता को बाहर निकालने के लिए साम्यवाद की परिकल्पना कर रहे थे .
             दरआसल बाजार-व्यवस्था के अपने नियम हैं और नैतिक क्रूरताएँ हैं .यह एक प्रतीकात्मक और आभासी दुनिया की सृष्टि करती है .किसान जीवन जहाँ वस्तु-विनिमय और प्रत्यक्ष श्रम-सहयोग पर आधारित रहा है ,वहीँ बाजार-मूल्य पर आधारित नागरिक जीवन मुद्रा आधारित अप्रत्यक्ष और जटिल मानव-संबंधों पर .क्योकि हमारा सांस्कृतिक ढांचा अधिक पुराना है तथा वह किसान-मन और आत्मीयता का ही बौद्धिक विकास है ,इसलिए अब भी और कभी भी वह वह नागरिक जीवन की आलोचना का संवेदनात्मक पाठ और संविधान रचता है .युवा आलोचक रामाज्ञा शशिधर ने नें अपनी विरल शोध-कृति 'किसान आन्दोलन की साहित्यिक जमीन 'में ब्रिटिश औपनिवेशिक वर्चस्व और चेतना के प्रतिरोध की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सक्रियता के रूप में देखा है और साथ ही विनाश को विकास तथा बाजारीकरण आधारित पश्चिमीकरण को आधुनिकता मानने की प्रवृत्ति का निषेध और समाधान किसान-जीवन-मूल्यों और प्रतिरोध की स्मृति में ढूंढा है-उसे अत्यंत ही सार्थक और महत्वपूर्ण पहल के रूप में देखा जाना चाहिए .
                 भारत के ब्रिटिश औपनिवेशीकरण नें अपने आरभ और अंत में दो महाविनाशकारी हस्तक्षेप किए हैं .इस देश को मुक्त करते समय विभाजन के रूप में और अपनी सत्ता की स्थापना के आरंभिक काल  में हजारों वर्षों से श्रम द्वारा निर्मित कृषि-भूमि को वास्तविक किसान-पुरखों से छीनकर किसी को भी उसका स्वामित्व दे देना .इससे कृषि-भूमि का न सिर्फ अनैतिक विभाजन हुआ बल्कि भारत की वस्तु-विनिमय आधारित तथा संस्कृति आधारित अर्थ-तन्त्र वाली सभ्यता अवसाद में चली गई .ब्रिटिश भारत में बहुत -सी ऐसी जातियां थीं ,जिनका फसल में निश्चित हिस्सा लगता था और वे स्वयं कृषि-भूमि न रखते हुए भी अप्रत्यक्ष रूपमें कृषि-उपज के सांस्कृतिक हिस्सेदार थे-नयी व्यवस्था में भूमिहीन ही रह गए .इसमें संदेह नहीं कि संस्कृति आधारित अर्थ-तन्त्र के कारण ही भारत में जाति-आधारित सर्वहाराओं की सृष्टि हुई है .इस सच्चाई पर मार्क्सवादियों नें भी बहुत ध्यान नहीं दिया है .भारत में बहुत सी परंपरागत रूप में पेशेवर व्यापारी जातियां भी हैं .ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को आजीविका के लिए  सिर्फ व्यवसाय का प्रशिक्षण और उत्तराधिकार ही देती हैं .ऐसी जनसंख्या को भूमि-विभाजन के प्रश्नों  से कुछ लेना ही नहीं है इस तरह भारत आर्थिक दृष्टि से भी बहुल श्रेणीबद्ध आर्थिक वर्ग-संरचनाओं वाला समाज है ..भूमि के कुछ जातियों में ही बंटने के कारण भारत की किसान समस्या बहुत ही जटिल हो गई है और उसमें मार्क्सवादियों का हस्तक्षेप जातीय युद्ध की ओर ही ले  गया है .जातीयता की दृष्टि से भूमि के असमान वितरण के कारण तथा कृषि-कार्य के प्रति जातीय-सांस्कृतिक रूचि के आभाव के कारण भी भारत की अधिकांश  भूमिहीन जातियों में जन्मी जनसँख्या किसान-समस्या के प्रति प्रायः उदासीन है .इन तथ्यों के बावजूद हमारा सांस्कृतिक अचेतन क्योंकि किसान जीवन-मूल्यों पर आधारित है और सिर्फ किसान सभ्यता ही उदार और नि:स्वार्थ  रागात्मक सम्बन्धों ,आत्मीयता और संवेदनशीलता का पर्यावरण बचा सकती है -हिन्दी-भारतीय यथार्थ के सन्दर्भ में रामाज्ञा शशिधर की यह किताब किसान-साहित्य और संवेदना के इतिहास और  स्मृति के संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण और सराहनीय प्रयास है .जहाँ तक इस कृति के शैक्षणिक और साहित्यिक शोधा-महत्त्व का सवाल है ;यह एक सच्चाई है कि  हिन्दी में सिर्फ किसान आन्दोलन के बारे में ही नहीं ,बल्कि किसी भी प्रकार के इतिहास-लेखन या उसके पुनर्चिन्तन की गंभीर सृजनात्मक  चिंता समकालीन युवा-पीढ़ी में नहीं दिखती -यद्यपि उसे व्यस्ततम वर्तमानजीविता का नया  इतिहास रचते हुए अवश्य ही देखा जा सकता है ...पुराना सब कुछ उसके लिए इतना बेमतलब हो गया है कि उत्तर-आधुनिक बनने के बाद तथा इतिहास के अंत की घोषणा के साथ उसके लिए अतीतगामी होने का न तो कोई अवशेष प्रयोजन है और न कोई अवकाश .स्पष्ट है कि यह स्मृतिहीनता के लिए अभिशप्त पीढ़ी की स्मृति और तात्कालिक  विवेक है .वह अपने जटिल होते वर्त्तमान में पूरी तरह फैला ,फंसा और निःशेष होता हुआ है .उसके पास शोषण और दुर्घटनाओं की पूर्व -स्मृति और परंपरा का कोई लेखा-जोखा नहीं है .जबकि अनुभव और स्मृति के बिना कोई भी प्रतिरोध संभव नहीं है .
        रामाज्ञा शशिधर की 'किसान आन्दोलन की साहित्यिक जमीन 'पुस्तक इस अर्थ में भी प्रतिरोध की पुनार्रचना है .आन्दोलन की मानसिकता और तेवर को आवाहन के माध्यम से पुनर्जीवित करती हुई .आलोचनात्मक नजरिया और संवेदनात्मक प्रस्तुति रामाज्ञ शशिधर की इस पुस्तक को एक विरल साहित्यिक कृति बनती है .इसे किसान आन्दोलन पर लिखे गए शोध-लेखों का संकलन मानना उचित नहीं होगा ये शोधपूर्ण अथवा शोध-समृद्ध निबन्ध हैं .विचारपूर्ण तथ्य-प्रस्तुति के साथ-साथ एक संवेदनात्मक पक्ष की प्रतिबद्धता इस पुस्तक को मिशनरी बनाती है .यह पुस्तक किसान संघर्ष को एक असमाप्त प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत करती है .इसामें उद्धृत कविताएँ इतिहास में जिए गए शब्द हैं .इस तरह यह पुस्तक लोक-संवेदना का दस्तावेजीकरण भी है . इसमें विकास को विनाश के रूप में देखने और दिखने वाली आँख है जिसमें प्रश्नांकित करने वाला .ऐतिहासिक विवेक है .इसमें किसान-यथार्थ के ईस्ट इण्डिया कंपनी से मोर्सेटो-वालमार्ट तक की अनवरत औपनिवेशिक यात्रा की वैचारिक-सांस्कृतिक परिणति की सजग शिनाख्त भी है .
          इस पुस्तक के लेखन में हुआ दस वर्षों का लेखकीय निवेश साफ-साफ देखा जा सकता है .'खासकर १९१७ के अवध,बिजोलिया एवं चम्पारणसे १९४७ तक के लिए इतिहास की धुल से चुनकर अभूतपूर्व 'देशज साहित्यिक सामग्री 'एकत्रित की गई है .इस कार्य को धूल से चुने गए फूलों से निर्मित माला से उपमित किया जाय तो उसे अतिशयोक्ति  मानना उचित नहीं होगा .तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं और  अन्य दस्तावेजों से खोजकर किसान-यथार्थ से सम्बंधित कविताओं के लगभग तीन सौ उद्धरणों का सन्दर्भ देकर लिखी गई यह पुस्तक किसान आन्दोलन से सम्बंधित महत्वपूर्ण साहित्यिक सामग्री का प्रशासनीय दस्तावेजीकरण करती है .जब राष्ट्रीय आन्दोलन की आंधी चल रही थी -यह कार्य आंधी में हिलाते बड़े वृक्षों की सरासराहट के बीच दूबका हिलना खोजने की तरह है .रामाजज्ञा शशिधर नें अत्यन्त धैर्य के साथ यह सामग्री संकलित की है .यह पुस्तक किसान आन्दोलन से सम्बंधित साहित्यिक सामग्री के लिए लेखक के लम्बे एवं परिश्रमी शोध-पूर्ण भटकाव  से संभव हुई होगी -यह इसके पृष्ठों पर उपस्थित सामग्री देखा कर ही पता चल जाता है .प्राप्त संकलित सामग्री के लम्बे विचारशील साहचर्य से इस कृति में वे वैचारिक कौंधे और विश्लेषण-दृष्टि में सूक्ष्मता शामिल हो पाई है ,जो इस पुस्तक की अप्रत्याशित उपलब्धि है .यही कारण है की यह पुस्तक एक बहुआयामी और विरल पाठकीय अनुभव पाती है .किसान-आन्दोलन से सम्बंधित कविताओं का इतिहास-लेखन इसका एक पहलू है,जिसकी खोज और पड़ताल देश-कल में लोक और साहित्य दोनों की परस्पर आवा -जाही से की गई है .इससे यह किताब साहित्य का भी इतिहास बन पाई है और समाज का भी .आन्दोलनों से सम्बंधित तथ्य और लोक की सृजनशीलता के जीवित -स्पंदित टुकड़े परस्पर गुंथे हुए हैं .
           प्रत्येक अध्याय के अंत में दी गई विस्तृत सन्दर्भ -सूची;जिसकी संख्या दूसरे अध्याय में सर्वाधिक १७४ है,लेखकीय श्रम का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं . इसके अतिरिक्त  पुस्तक में किसान-आन्दोलन से सम्बंधित प्राप्त सूचना और साहित्य-सामग्री का विश्लेषण और वर्गीकरण -जो निश्चय ही समग्र्यों की खोज-यात्रा पूरी हो जाने के बाद ही किया गया होगा  भी. भूमिका के पश्चात् अध्याय होने की प्रतीति करने वाले शीर्षक मूलतः खंडों के शीर्षक ही हैं .इस दृष्टि से देखा जाए तो यह पुस्तक पांच खण्डों में विभाजित है -हिन्दी क्षेत्र में किसान आन्दोलन ,किसान-कविता का स्वरूप,मुक्ति का आर्थिक -राजनीतिक परिप्रेक्ष्य ,मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य और कला की राजनीति .
            पहला अध्याय अथवा खण्ड किसन आन्दोलन की राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है .संरचना की दृष्टि से पहला  खण्ड' हिन्दी क्षेत्र में किसान आन्दोलन 'स्वयं ही  पांच लघु अध्यायों का समुच्चय है -दमन और प्रतिरोध की यात्रा,सामन्तवाद विरोधी  चेतना ,उपनिवेशवाद विरोधी चेतना ,कांग्रेस यानि कालोनाइज्ड सिण्ड्रोम और वर्ग-संघर्ष की चेतना .इस उपखण्ड को आन्दोलन और उनकी पृष्ठभूमि का राजनीतिक,सामाजिक और आर्थिक इतिहास-लेखन कहा जा सकता है .अपनी प्रगतिशील समाजशास्त्रीय दृष्टि,रिपोर्ताज शिल्प और किसान जीवन तथा यथार्थ के प्रति अतिरिक्त संवेदन्शीलता के कारण रामाज्ञा शशिधर नें  १९१७ से १९१९ के बीच चलने वाले चम्पारण,बिजोलिया और अवध के किसान-आन्दोलनों की इतनी त्रिआयामिक प्रस्तुति की है कि सम्पूर्ण परिदृश्य प्रत्यक्ष हो उठता है .यह एक तरह से किसान आन्दोलनों और उनके नेतृत्वकर्ताओं का परिचयात्मक खंड भी है .तत्कालीन किसानों की आर्थिक असमर्थता और अशिक्षा का लाभ उठाकर इस देश का प्रभु-वर्ग औपनिवेशिक सत्ता के सहयोगी के रूप में कैसा निन्दनीय व्यव्हार करता रहा है ,इसका विस्तृत और प्रभावी विवरण यह पुस्तक देती है .विचारपरक होने के बावजूद पुस्तक का पहला खण्ड अनेक मार्मिक और त्रासद सूचनाओं से भरा है .किसानों से लिए जाने वाले सिर्फ बेगार करों की विस्तृत सूची को  ही देखें तो घुडअहीं ,मोटरर्हीं,हथियहीं,बंगलही ,फगुअहीं ,मुँहदेखाई ,चूल्हिआवन ,धवअहीं,नवअहीं, बपअही,पुतअहीं ,तावान,शराहबेशी ,हुंडा बंदोबस्त; मडवच ,सगौडा,सिंगरहाट,बाट,छप्पा , कोल्हुआवन, चंचरी, भाता , दंड,बराड,डोलचिये ,गठाई ,नकाई जैसे अनेक वसूलियों का पता चलता है .
            किसानों के प्रतिरोध के संगठनकर्ता नेतृत्व का परिचय देते हैं .इनमें चंपारण में अफ्रीका से लौटे महात्मा गाँधी की भूमिका ,बिजोलिया में  शचीन्द्र सान्याल और रासा बिहारी बोस के क्रन्तिकारी मित्र विजय सिंह पथिक की भूमिका तथा अवध में मराठी बाबा रामचंद्र दासकी भूमिका  तथा उनके द्वारा चलाए गए आन्दोलन कार्यक्रम पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है .उन प्रभावी नारों एवं गीतों पर भी जिनकी ऐसे आन्दोलनों में ऐतिहासिक भूमिका रही है .जैसे-राज समाज विराजत रूरे /रामचंद्र सहदेव झींगुरे (रूरे किसान सभा का नारा ).यहाँ झींगुरीसिंह एवं सहदेव सिंह बाबा रामचंद्र दास के सहयोगी थे .यद्यपि बिजोलिया किसान सत्याग्रह १९१६ से ही आरम्भ हो चुका था ,लेकिन अधिक प्रभावी चम्पारण सत्याग्रह १९१७ में महात्मा गाँधी के नेतृत्त्व  में आरम्भ हुआ था .अवध में बाबा रामचंद्र दास की रूरे सभा और शहरी वकीलों की यूपी किसान सभा द्वारा सामंती ढांचे के खिलाफ १९२० से २२ के बीच तेज संघर्ष हुआ .रामाज्ञा नें शोध में प्राप्त उन अमानवीय प्रसंगों का भी विस्तृत विवरण दिया है ,जो आज भी नई पीढ़ी को आवेशित एवं आक्रोशित कर सकते हैं .इनमें लगन के लिए ५ एवं १२ वर्ष की बेटी बेचने वाले निरीह किसानों से लेकर जमीदार के कारिंदों द्वारा पशु दुग्ध प्राप्त न होने की दश में किसानों से मानव -दुग्ध की मांग करना :किसानों के  घर आने वाली दुल्हन को पति के यहाँ पहुँचने से पहले जमींदार के यहाँ रात बिताना :ऐसे ही डोला प्रथा के विरुद्ध क्रन्तिकारी किसान नेता नक्षत्र मालाकर द्वारा अपने साथियों सहित पालकी में बैठ कर जमींदार और उसके लठैतों की जमकर पिटाई करना जैसे प्रसंग भी हैं .
           दूसरा अध्याय 'किसान कविता का स्वरूप 'वस्तुतः हिन्दी में लिखी गई किसान सम्बन्धी कविताओं का व्यापक सर्वेक्षण है .यह सर्वेक्षण लोक और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में किया गया है .इस अध्याय के उपशीर्षकों को देखें तो 'किसान-कविता की अवधारणा ',प्राकऔपनिवेशिक किसान कविता ','घाघ,डाक और भड्डरी ',किसान कविता में १८५७ ','पड़ा हिन्द में महाअकाल','प्रताप''अभ्युदय''नवशक्ति''जनता','हुँकार' ,'हल ',लोकप्रिय दस्तावेज ','जब्तशुदा साहित्य ','बिहार के किसान-गीत ','राजस्थान के किसान -गीत ',रामचरितमानस का क्रन्तिकारी प्रयोग ','युक्त-प्रान्त के किसान-गीत ','मुख्यधारा की कविता ','राष्ट्रीय काव्यधारा में किसान 'हैं.लेखक नें लोक और साहित्य दोनों क्षेत्रों के शोध - महत्त्व को आधुनिक समाजशास्त्रीय नजरिए से देखा है .इससे किसान मानविकी 'समस्या और प्रतिरोध को सम्पूर्णता में देखने में मदद मिली है .१८५७ से लेकर १९४७ के बीच हिन्दी में चले किसान आन्दोलन को हिन्दी की अलग-अलग पत्रिका और पत्रों में धैर्यपूर्वक तलाशने का कार्य   रामाज्ञा शशिधर नें किया है .
               तीसरा अध्याय 'मुक्ति का आर्थिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य ' अपने काव्यात्मक शीर्षकों और संवेदनात्मक चित्रण के साथ इस शोध को एक साहित्यिक निबन्ध-संरचना में प्रस्तुत करता है .उसके शीर्षक 'छोडो बेदखली की तलवार चलाना ','तोर जमीदरिया में ','फिरंगिया के राज में ','हल पंडित ध्वज निशान है ','गाँधी जी की छाप लगाकर ',आदि तथा इस अध्याय में सन्दर्भ रूप में दिए गए कविताओं के ७३ उद्धरण किसान आन्दोलन को उसके मूल सम्वेगधर्मिता और संवेदना  के साथ प्रस्तुत करते हैं .१९१८ में लिखी गई ऐसी पंक्तियाँ  जो अवध के किसानों की बेदखली से सम्बंधित हैं -आल्हा शैली में लिखी होने के कारण वीर रस शैली में निरीहता की व्यग्यात्मक प्रस्तुति करती हैं-'हंत!इजाफा अरु बेदाखलिन /की सहि जात न मार कुमार /कष्ट असह्य कहाँ लौं भोगाहिं/मिळत न विपति-सिन्धु को पार'(अभ्युदय साप्ताहिक ,२३ मार्च १९१८ ).ऐसे उद्धरण इस पुस्तक को अतिरिक्त महत्ता प्रदान करते हैं .लेखक के अनुसार हिन्दी की किसान कविता वर्ग संघर्ष की क्रन्तिकारी भूमिका तैयार करने में सक्षम थी,जन संस्कृति सांस्कृतिक क्रांति की आकांक्षा रखती थी और इसके लिए उसका रचनात्मक संघर्ष तीव्र था लेकिन किसान आन्दोलन को वर्ग संघर्ष के मूलगामी रूपन्तरण में ऐतिहासिक कारणों से चूक हुई .निस्संदेह यह चूक वही है ,जिसकी ओर मैंने  लेख के आरम्भ में ही संकेत किया है .   इसके बावजूद 'सामन्ती संरचना का विरोध किसान कविता का केंद्रीय कथ्य है .किसान-कविता में खेतिहर आबादी की बेदखली ,नाजायज लगान,लग-बैग ,नजराना,कर्ज जैसी जोंकों से निर्मित त्रासदी की अनगिनत छवियाँ हैं' .(पृष्ठ १४५ )    
                     चौथे अध्याय 'मुक्ति का सामाजिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य 'भी काव्य-उद्धरणों और संवेदनाधर्मी  भाषा-संरचना में लिखा जाने के कारण पठनीय और प्रभावी है .उसके भी उपशीर्षक लोक-गीतों की पंक्तियों से लिए गए हैं .'साँझ जमीदारण के सेज ',पकड़ि-पकड़ि बेगार करावत',,'गाजी मियाँमुर्गा मांगे ','गावें-गावें संगठनमा' जैसे शीर्षक इस अध्याय में प्रस्तुत शोध-सामग्री को भी भाव-संवेद्य बनाते हैं .बिजोलिया किसान आन्दोलन के नायक विजय सिंह पथिक के बारे में यह कृतज्ञ भावोद्गार उस समय की लोक कविताओं की सच्ची छवि प्रस्तुत करता है -'म्हाने विजेसिंह आय जगायें माय /थारा गुण म्हें नहीं भूलां/म्हाने जूत्याँ सू पिटता बचाया ए माय /थारा गुण म्हें नहीं भूलां'.
                    पांचवां अध्याय 'कला की राजनीति ' इस शोध अनुभव को 'कला और लोकप्रियता का द्वंद्व ','रूप की धरती ',भाषा का यथार्थ ','अन्य का रूपक ','मिथक की विचारधारा 'आदि उपशीर्षकों के माध्यम से साहित्य-चिन्तन सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूत्र विकसित करने का प्रयास करती है .रामाज्ञा के अनुसार 'किसान कविता कला की जन राजनीति से सीधी जुडी होने के कारण कलात्मकता और लोकप्रियता के संतुलन की कविता है .'किसान कविता की लोकप्रियता और कलात्मकता की एकता के निर्माण की प्रक्रिया को सामझाने के लिए किसान कविता की प्रसारशीलता ,विचारधारा,वर्गीय दृष्टिकोण ,पाठकों और श्रोताओं से उसके सम्बन्ध ,उद्देश्य और परिणाम ,प्रचार-प्रसार के माध्यम आदि मुद्दों को गहराई और व्यापकता के साथ समझाना होगा .(पृष्ठ १७५ )'किसान कविता की कलात्मकता वर्ग -संघर्ष की नईअंतर्वस्तु,नए रूप और नई भाषिक संरचना से प्राप्त हुई .उसकी लोकप्रियता के निर्माण में लोकभाषा ,लोक छंद ,लोक धुन ,लोक ले ,लोक मुहावरे आदि का योगदान है .उसकी कलात्मकता और लोकप्रियताकी रचनात्मक एकता के विकास में उद्बोधन ,संबोधन और संवाद की शैली का भी योगदान है .'(पृष्ठ १८० )रूप के स्तर पर किसान कविताएँ लिखित और मौखिक दोनों तरह की हैं .तुलना में 'किसान कविता का मौखिक लोक और जनगीत वाला हिस्सा ज्यादा रचनात्मक और लोकप्रिय है .'(वही,१८३ )भाषा भी लिखित और मौखिक दोनों रूपों में दिखाई देती है  .इसी अध्याय में 'अन्य का रूपक' शीर्षक के अन्तर्गत किसान-कविता में आए बिम्बों और प्रतीकों का विश्लेषण किया गया है लेखक नें किसान कविता के जन धर्मी बिम्बों को आन्दोलनधर्मी और मुक्तिधर्मी डॉ रूपों में चिन्हित किया है .आंदोलनधर्मी कविता में शोषण मूलक त्रासद  अनुभव वाले बिम्बों की भरमार है ,क्योकि प्रतिरोधी बिम्बों का व्यापक पैमाने पर निर्माण -कार्य किसान-कविता के लिए जरुरी रचना-प्रक्रिया था .सामन्तवाद-साम्राज्यवाद विरोधी बिम्ब ,वर्ग-संघर्ष की चेतना के निर्माण,किसान-जागरण ,राष्ट्रवादी तथा स्त्री-मुक्ति सम्बन्धी बिम्ब आते हैं.  हिन्दी आलोचना की समृद्धि के लिए रामाज्ञा शशिधर की यह प्रस्तावना भी महत्वपूर्ण है कि' किसान-कविता अंग्रेजी की 'औपनिवेशिक भाषाई मानसिकता 'के विरुद्ध हिन्दी कविता की 'खड़ी बोली,को जनपदीय बोलियों की कविता से समृद्ध करती है तथा लिखित और वाचिक के तनाव से कलात्मकता एवं लोकप्रियता के बुनियादी कला-नियम का हल प्रस्तुत करती है .'         


शुक्रवार, 7 जून 2013

ज्ञानेन्द्रपति : समय -संवेदन और जीवन-विमर्श के भाष्यकार

(साहित्यिक पत्रिका -"चिन्तन-दिशा" के  ,जनवरी-मार्च २०१३अंक में  ,संपादक-हृदयेश मयंक ,ए -७०१,आशीर्वाद -१,पूनम सागर काम्प्लेक्स ,मीरा रोड (पूर्व)मुम्बई-४०११०७ से प्रकाशित )

ज्ञानेन्द्रपति  :  समय -संवेदन और जीवन-विमर्श के  भाष्यकार                                               


 ज्ञानेन्द्रपति निराला  और  नागार्जुन की उदात्त संवेदना वाली कवि-परंपरा में सक्रिय समकालीन हिंदी कविता का एक बड़ा नाम है .मुक्तिबोध  के बाद हिंदी की अपनी भव्य या या शानदार कविता (क्लासिक कविता के अर्थ में ) के गंभीरतापूर्वक सक्रिय एकमात्र कवि है .यद्यपि प्रतिभा और सम्भावना के स्तर पर आलोकधन्वा उनके के साथ सहयात्री रहे है ,लेकिन फ़िलहाल तो अपनी बहुआयामिता के कारण अप्रतिस्पर्धी है .उनकी इस उदात्त काव्यप्रतिभा का निदर्शन उनके पहले ही प्रकाशित काव्यसंग्रह 'आँख हाथ बनते हुए '(1970) में संकलित  कविता 'एक गर्भवती औरत के प्रति कविताएँ ' में देखी जा सकती है .यह कविता स्त्री का उसके मातृत्व के लिए ससम्मान ब्रह्माण्ड व्यापी बिम्ब में रूपायन करती है .पहली कविता एक स्त्री -जीवन के अस्तित्वगत अर्थवत्ता को एक विराट और सर्वव्यापी प्रत्यक्षीकरण के रूप में प्रस्तुत करती है।  यह कविता अपनी विशेषताओं के लिए सिर्फ हिंदी की ही नहीं ,बल्कि विश्वकविता की भी महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा सकती है .कविता इस प्रकार है-'यह तुम्हारा उदर ब्रह्माण्ड हो गया है ./इसमे क्या है ?एक बन रहा शिशु भर ?/झिल्ली में लिपटी मांस पहनती चेतना .बस ?/कितनी फैलाती जा रही है परिधि तुम्हारे उदर की /तुम क्या जानो /कि अन्तरिक्ष तक चली गई है यह विरूप गोलाई और ये /पेड़-पौधे ,माकन,सड़कें ,मैं ,यह पोल ,वह कुत्ता ,उछलता वह मेढक /रंभाती गाय ,बाड़ कतरता माली ,क्षितिज पर का सूरज /सब उसके  अन्दर चले गये हैं /और तुम भी .''इस कविता में वह दार्शनिक प्रत्यायन का गुण भी  जा सकता है , जो ज्ञानेन्द्रपति  की कविताओं की मूलभूत विशेषता है . यह विशेषता उनकी कविताओं को तात्कालिक संवेदना से स्थाई प्रज्ञा की खोज की ओर ले जाती है .काल या समय को जीना और उसका अतिक्रमण यानि संवेदना और बोध दोनों की ही कविता में निष्पत्ति ज्ञानेंद्रपति की कविताओं को विशिष्ट बनती है .उनकी कविताओं में मिलने वाली यह दृष्टि या आँख इतिहास,परंपरा और आधुनिक वैज्ञानिक सभ्यता के सम्यक बोध से एक प्रबुद्ध सर्जक संस्कार के रूप में ज्ञानेन्द्रपति में आई है .यही कारण है कि ज्ञानेन्द्रपति का कवि अपने समय में भी है और सर्वकालिक भी .उनकी कविताएँ जीवन और कला,संवेदना और सृजन दोनों की ही साधना और दक्षता का परिणाम है। यही वह  है जो उनकी कविताओं को नक्सलबाड़ी  आन्दोलन से प्रेरित होकर अपनी काव्ययात्रा का आरम्भ करने वाले समकालीन अन्य जनकवि अरुणकमल और आलोकधन्वा से अलग करती है .अरुणकमल तात्कालिक संवेदना से ऊपर नहीं उठ पाते और आलोकधन्वा आन्दोलनकाल से अर्जित अपनी प्रसिद्ध आवेशमयी कलात्मक मुद्रा और भंगिमा से। उनकी पीदी के कवियों में यह अतिक्रमण सिर्फ ज्ञानेंद्रपति में दीखता है .वे पर्यावरण की सम्पूर्ण चिता के कवि हैं -कविताओं में उपस्थित यह पर्यावरण प्रकृति से लेकर मनुष्य तक ,सुदूरवर्ती विकास-वंचित गाँव से लेकर प्राचीन और आधुनिक सभ्यता के संरक्षक और वाहक नगरों और महानगरों तक,इतना ही नहीं संवेदनात्मक,मानसिक और सांस्कृतिक स्तर तक भी फैला है . हर कविता में कवि एक सम्पूर्ण दृष्टि स्वायत्त करना चाहता है।उसकी दृष्टि संवेदना और विमर्श दोनों पर है .संशयात्मा में संकलित उनके 'टी 0वि 0युग के कवि 'शीर्षक कविता को उदहारण स्वरूप देखा जा सकता है .अपने राजनितिक उद्देश्य के लिए भावी पीढ़ी को भी भ्रष्ट करने की कूट साजिशो  के एक आधुनिक माध्यम के रूप में टी0वी 0 और उसके  कवियों की भूमिका की पड़ताल कवि मिथकीय धरातल पर करता है .यह मिथकीय बिम्ब सत्ता के पुरातन जनविरोधी चरित्र का भी खुलासा करता है -   "सत्ता की पूतनाएँ /पहचानती राजसत्ता को चुनौती दे सकने वाले अंग-लक्षण "(संशयात्मा ,पृ 093)ज्ञानेन्द्रपति की बहुत -सी कविताए एक संवेदनशील गंभीर विचारक का समय -विमर्श हैं .वे समकालीन अव्यवस्था से एक प्रतिबद्ध कवि के मानसिक संघर्ष या मुठभेड़ की तरह हैं।इस क्रम में उनकी कविताएँ 1970 के बाद के भारतीय समाज और इतिहास का संवेदनात्मक और वैचारिक पड़ताल पर्स्तुत करती हैं।उनकी कविताएँ कवि की ओर से एक आदर्श संवेदनशील मानवीय समाज और व्यवस्था की प्रस्तावना  की तरह है। वे मुक्तिबोध और धूमिल के बाद के समय के सबसे प्रमाणिक भाष्यकार कवि हैं। उनकी कविताएँ एक लम्बे समय के विद्रूप यथार्थ की न सिर्फ साक्षी हैं ,बल्कि उनसे जूझते हुए परिदृश्य में उपस्थित हर उलझन को सुलझाती चलती हैं। उनके पास विचारधाराओं की जनपक्षधर सूक्ष्म विश्लेषक वैज्ञानिक समझ है। विवेक की पूर्वाग्रह रहित वह निर्मम तटस्थता है जो किसी महत्वपूर्ण साहित्यकार को देर तक विश्वसनीय और प्रासंगिक बनाये रखती है .वह अद्यतन समाजशास्त्रीय अंतर्दृष्टि है ,जो उनकी कविताओं को हिंदी के पूर्ववर्ती कविओं की कविताओं में व्यक्त समझ से अधिक परिष्कृत और निर्दोष बनती है .          वर्ष 2004 में राधाकृष्ण से प्रकाशित उनके 'संशयात्मा ' संग्रह में प्रकाशित कविताओं के शीर्षक पर ही दृष्टिपात करें तो उनकी कविताओं की बहुआयामिता और विषय -विस्तार का पता चलता है .गाँव के घर,आदिवासी गाँव से गुजरती सड़क ,झारखण्ड के पहाड़ ,धूमिल की खेवली ,,जर्सिडीह स्टेशन ,बिड़ला का तारामंडल                हिन्दी में प्रबंध -काव्य और  महाकाव्य शब्द प्रायः पर्यायवाची की तरह प्रयुक्त होता रहा है ,लेकिन प्रबन्ध -कवि होना महाकवि होना कभी नहीं रहा है .कवित्व की सामर्थ्य एवं पुरुषार्थ संभवतः उसकी संवेदनात्मक व्याप्ति एवं यात्रा में है .उसकी अन्तर्दृष्टि एवं कलात्मक जीवन्तता में है.कवि की नवान्वेषी समझ एवं उसकी दूरदर्शिता जो प्रायः घटनाशीलता की प्रवृत्यात्मक पहचान तथा काव्यात्मक अनुभव की भविष्योन्मुख सार्थकता पर आधारित होती है -किसी कवि के रचनाकर्म को महत्वपूर्ण बनाती है। कविता   पर विचार करते समय किसी कवि और उसकी कविता का सिर्फ बाह्य  रूपाकार ही महत्वपूर्ण नहीं होता ,बल्कि उसके काव्यात्मक मानस का  देने वाली अभिव्यक्ति की  काव्यात्मक संरचना भी महत्वपूर्ण है ,जो उस कवि की संवेगात्मकता के साथ-साथ उसकी मौलिक कल्पनाशीलता को भी व्यक्त  करे .ऐसा इसलिए  जरुरी है कि  यह कल्पनाशीलता ही उसे सामान्य मनुष्य की कल्पनाशीलता की   सीमा से आगे और  महत्वपूर्ण बनाती है .यह विशिष्टता ही सामान्य मनुष्य के कथन से उसके कथन को अलग और महत्वपूर्ण बनती है .आचार्य शुक्ल  ने इसे ही विशेष के माध्यम से सामान्य तक पहुँचने की प्राविधि के रूप में  देखा और उसे सामान्यीकरण कहा कहा है .,मुंबई का समुद्र -तट ,अस्पताल का लाशघर ,ढेलहवा  बाबा ,फजिर की अजान ,थायलंड और कंचनजंघा ,नन्हा-सा कीड़ा ,,मेढक ,कछुअशिशु ,गिद्ध-वृक्ष ,प्लास्टिक के सुग्गे,खेसाड़ी  दाल ,भाप-इंजन ,चन्द्रबिन्दु,मूर्धन्य ष ,कवी मन बहादुर सिंह की हत्या,,मानव-बम ,गमछे की गंध ,खर्पट्टू,सगीर मिया ,इथियोपिया ,खाड़ी -युद्ध ,सैलून ,वाहनों कपिछा करती पत्तियां और बच्चे  तथा गणतंत्र दिवस सभी कुछ है .        एक ऐसे समय में जबकि कविता लिखने वाले कवियों की संख्या हजारों में है ,कई पीढियां संचार माध्यमों से अपने -अपने रिश्ते के साथ सक्रिय हैं ,किसी कवि के सापेक्षिक महत्व की तलाश की कसौटी उसकी अछूती संवेदन्शीलता और यथार्थ की प्रथम अन्वेषी दृष्टि ही हो सकती है .इस कसौटी पर परखें तो मुझे नहीं लगता कि किसी समकालीन कवि के पास  'क्षितिज -शोक 'उत्तर -परमात्मा 'और 'फजिर की अजान ' जैसी कवितायेँ हैं .ज्ञानेन्द्रपति हिंदी के एक मात्र कवि हैं ,जिनमे मुक्तिबोध द्वारा अभीप्सित वर्ग -मुक्ति या वर्ग के अतिक्रमण का ईमानदार और निर्दोष आत्मसंघर्ष पूर्णरूपेण चरितार्थ हुआ हो .कम से कम साम्प्रदायिकता के विरुद्ध भी ज्ञानेन्द्रपति जैसा आत्मीय ,मानवीय और आह्लादक दृष्टिकोण या भावनीति किसी और के पास नहीं है .उनकी कविता " एक मंदिर की उन्नति -कथा 'अपनी निर्मम,नि:संग और स्पष्ट आलोचना के लिए निराला की उस कविता की यद् दिलाती है जिसमे वे बंदरों को चने खिलाने और मलिन भिखारी मनुष्य को 'दूर हट राक्षस 'कहने वाले अमानवीय (अ )धार्मिक की भर्तस्नाकरते हैं .यह कविता धर्मोपजीवी अर्थतंत्र की गहन पड़ताल कराती है . एक आदिवासी गाँव से गुजरती सड़क 'कविता सड़क के निर्माण के प्रयोजन से जोड़ कर उस सड़क का व्यक्तित्व -निर्माण और उसका प्रत्यक्षीकरण कराती है -                        ''चमक पड़ा मर्म /आदिवासी गाँव की छाती से गुजरती सड़क का /की हमारी शोषण की सभ्यता का /कि जिसकी बाँह राजधानी से /यहाँ तक यह आई है /लुटेरी बाँह /टटोलती इसकी छाती के कोयले आत्मा का अबरख / यह सड़क/ कि यह नहीं राजधानी से बहती आई सभ्यता की नदी / कि इससे नहीं कोई सम्बन्ध /इसके किनारे बसे हुओं का /सिवा इसके कि /पिपासु पहियों के नीचे आ जाते हैं जब -तब /इनके चूजे और बच्चे /और अड़हुल -सा खिला किसी युवती का यौवन रौदा जाता है .''(संशयात्मा ,पृ o 21)           आधुनिक नगरीय विकासात्मक विध्वंस की इतनी कटु टिप्पणी किसी और हिंदी कवि के यहाँ नहीं मिलती ,जैसी कि उनकी कविता " क्षितिज -शोक " में -    "एक दिन अचानक / शहर अपना एक और नाख़ून बढ़ा देता है  /उठ आता है आकाश में एक और कंकरीट के कुकुरमुत्ते का शीश ".(संशयात्मा,पृ 0 48)इसी तरह मुक्त अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण युग के बाजार के चरित्र का सर्वश्रेष्ठ एवं अपरिहार्य रूपक उनकी कविता 'उत्तर -परमात्मा 'प्रस्तुत करती है .क्षितिज -शोक,उत्तर -परमात्मा और फजिर की अजान कवि ज्ञानेन्द्रपति की ऐसी निर्विकल्प  मौलिक कविताएँ हैं ,जैसी की किसी ने नहीं लिखी .निर्विवाद श्रेष्ठता की अद्वितीय एवं अनन्य .      फजिर की अजान को चिड़ियों की चहचहाहट की तरह जीवन के सूनेपन में अस्तित्व और उपस्थिति का रंग भरने वाली आत्मीय आवाज की तरह ज्ञानेन्द्रपति ने इसी शीर्षक कविता में चित्रित किया है .कवि  उसे संप्रदाय विशेष की नहीं,बल्कि मानवीय जीवन और संवेदना की अपरिहार्य आवाज की तरह देखना और दिखाना चाहता है।इस कविता को पढ़ कर बचपन के अबोध मन से सुनी गयी अजान की उन आवाजों की याद ताज़ा हो जाती है ,जब सिर्फ बालसुलभ जिज्ञासा ही थी,सम्प्रदाय कलुषित मन नहीं -             फजिर की अजान /लाने चली  सूरज को /आकाशालंघी आलाप की लम्बी रस्सी से खींच /खिंचा चला आता है  में पानी /करता तर खुली टोंटियो वाले /देर से सन्नाते नलको के खुश्क हलक /और जग उठती है हलक में फंसी /दमदार बूढी देहों की दमदार खांसियाँ ''भारतीय भोर की आहट की जीवंत तस्वीर प्रस्तुत कराती यह कविता साम्प्रदायिक सौहार्द के एक नए युग के आवाहन के संकल्प के साथ खत्म होती है।           ज्ञानेंद्रपति प्रगतिशील उदात्त  एवं भव्य कविता की परिकल्पना के कवि है। उनमे भाषिक सामर्थ्य की वह  है जो उनसे पूर्ववर्ती कवियों में सिर्फ निराला और मुक्तिबोध में ही देखने को मिलती है .लेकिन उनकी बहुआयामी जीवन-साक्षात्कार और विमर्श के कवि होने की सृजनात्मक यात्रा ऐतिहासिक रूप से मुक्तिबोध को सिर्फ क्रन्तिकामी विक्षोभ के कवि के कवि के रूप में सीमित करती है .ज्ञानेंद्रपति की कविताओं को पढ़ने के बाद मेरे मन में मुक्तिबोध और उनके कविकर्म की तुलना को लेकर जो बिम्ब उभरता है,उसमे मुक्तिबोध के बाढ़ के समय की नदी के रूप में  आते है तो ज्ञानेन्द्रपति वर्षपर्यंत की प्रवाहशील नदी के रूप में ,जो जीवन-संघर्ष के हर रूप की साक्षी है .   नक्सलबाड़ी आन्दोलन की भाव -भूमि से प्रेरित ज्ञानेन्द्रपति और  उनकी पीढ़ी के आलोकधन्वा और अरुणकमल जैसे कवियों को  मै गुणवत्ताशील किन्तु आवेशपूर्ण क्रन्तिकारी नारे लिखनेवाली सीमित विषयवस्तु वाली ख्यातिलब्ध कवियों की त्रयी मानता था .आवेशधर्मी कविताओं के लिए आलोकधन्वा और ज्ञानेन्द्रपति समान प्रतीति के प्रतिस्पर्धी लगते थे।अरुणकमल की स्थिति ठंढा-लोहा जैसी थी .इसका कारण यह रहा है कि अरुणकमल की कविताएँ एक संवेदनशील बुद्धिजीवी की मुद्रा और भंगिमा के चरित्र में संरचित है . इस त्रयी में ज्ञानेन्द्रपति इस लिए विशिष्ट हैं कि वे अपने समय के सबसे प्रामाणिक और व्यापक भाष्यकार और प्रतिनिधि चितेरे कवि हैं।अपने समय की सर्वाधिक विश्वसनीय और विचारपूर्ण समझ उनके पास है .           ज्ञानेन्द्रपति द्वारा चयनित और किताबघर द्वारा प्रकाशित उनकी प्रतिनिधि कविताओ के संचयन 'कवि ने कहा ' में संकलित 'कुछ कविताएँ और कुछ कविताएँ 'शीर्षक कविता में अपनी रचना-प्रक्रिया पर उनकी काव्यात्मक टिप्पणी इस प्रकार है-  'कुछ कविताएँ तो मै /खेतों से शकरकंद की तरह / खोद कर लाया / कुछ कविताएँ/तितलियों की तरह /खुली खिड़की से /घुस आयीं मेरे घर /कि अपने घर कुछ कविताओं के लिए मै /कितना-कितना घूमा /गो-यूथों के पीछे-पीछे /चरवाहे बालक-सी /कि साँझ उन्हें/दुह सकूँ /धारोष्ण .../कुछ कविताएँ  /कई -कई बिट्वन की कुतिया -माता सरीखी /दुधीले थन और गीली थूथन लिए लगी चली आई सड़क से /पीछे -पीछे मेरे दुआरे .'(कवि ने कहा ,पृ0 139-140) इस काव्य -उद्धरण में ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं और कवि की रचना-प्रक्रिया के सारे संकेत उपस्थित हैं।संवेदनात्मक परकाया प्रवेश,पर्यवेक्षण ,काव्य-श्रम और चिंतन और कवि स्वभावजन्य अयाचित प्रातिभ उपलब्धि -सभी काव्य-रूप एवं संरचनाएँ .            ज्ञानेन्द्रपति की ट्राम में एक याद ' कविता जो प्रायः अपनी पहली पंक्ति 'चेतना पारीक ,कैसी हो?'की याद से अधिक जानी जाती है .प्रथम द्रष्टया जो क्रन्तिकारी प्रेम-प्रभाव की कविता लगती है। दरअसल सामान्य स्त्री -जीवन की नियति और  त्राषद संभावनाओं की पृष्ठभूमि पर बुनी गयी है .अठारह प्रश्नचिन्हों से युक्त यह कविता पूर्वार्ध में जहाँ आधुनिक स्त्री के सकारात्मक पक्षों को याद करती हुई स्वस्थ एवं आदर्श आधुनिक प्रगतिशील स्त्री -जीवन का एक प्रतिरूप प्रस्तुत करती है ,वहीँ उत्तरार्ध मेंलेती हैं . अस्तित्व की महत्ता ,सार्थकता और वैभव का अविस्मर्णीय  आख्यान बन जाती है -                   इस महावन में फिर फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है                   एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है                   महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है                   विराट धक्-धक् में एक धड़कन कम है ,कोरस में एक कंठ कम है                   तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते है ,उतनी जगह खाली हैज्ञानेन्द्रपति को मानवीय  और दुश्चिंताओं की अदभुत पहचान है .चाहे ' शब्द लिखने के लिए ही यह कागज बना है 'में संकलित कविता 'बनानी बनर्जी 'का दुस्वप्न  हों या फिर 'गंगा-तट 'में संकलित कविता 'वे दो दाँत -तनिक बड़े 'कविता की नायिका मंजु श्रीवास्तव का सांवला रंग और तनिक बड़े दो दाँत हों -'जो डेंटिस्ट की नहीं ,एक चिंता की रेतियो से रेते जाते हैं।'यह करुणाशील कवि की मर्मभेदी आँख है जो लगाकर लोक -विचलन की शिकार दुखी आत्माओं की मानसिक यातना को सहृदय संवेदना के साथ पढ़ लेती हैं .ज्ञानेंद्रपति की कविताओं की यह सबसे प्रिय भूमिका है .यह शायद काव्य-विधा की ही आदिम भूमिका है .जो एक करुनाकातर संवेदनशील मानव-मन की सृष्टि करना चाहती हैं . बहुत -सी कविताएँ इसी भाव -स्म्वेद्य मनोभूमि की देखि जा सकती हैं .चाहे 'एक रेल  डिब्बे में'झाड़ू लगाकर भीख की जगह  के लिए पारिश्रमिक मांगने वाला दयनीय बच्चा हो -कवि की आँखों ने कई बार सामान्य मनुष्य से अदेखी  जाने वाली निरिह्ताओं को भी काव्य -विषय बनाया है .      उनकी  एक पंखुरी  और कविता ओशो वचन के   सौन्दर्यचेता प्रभावों का अंकन एक मित्र पर पड़े  के रूप में कर ती है .' हल्की-सी उदासी तुम्हे  है ' के   कवि  अपने जीवनानुभवो का साझा करता है .अपने कवि की  भूमिका को ज्ञानेन्द्रपति नेने  अपनी 'क्यों न 'शीर्षक   कविता में इस रूप में व्यक्त  किया है -'क्यों न कुछ निराला लिखें /इक नयी  लिखें/ का राज चौतरफा चौतरफ/एक  तीली उजाला लिखें  xxx खल  पोतें दुन्या  पर एक ही  रंग /हम वैनिआहपीनाला लिखें'.इसी तरह 'कबिरा खड़ा बाजार में ' कविता कबीर की नियति को समकालीन नकारात्मक  संभावनाओ के परिप्रेक्ष्य में रखकर पुनर्मुल्यांकन करती है .कबीर साहब की छह सौवीं जयंती के उत्सव के बहाने यह कविता कबीर का उत्सव मना रहे दो वर्गों के चरित्र के माध्यम से यथार्थ का बहुआयामी चरित्र उकेरती है .यथार्थ अभिजन और सामान्यजन के अलग-अलग चेहरों को देखने -दिखाने वाली कविता यथार्थबोध का कलान्तरण भी प्रस्तुत करती है .कबीर के समय का यथार्थ और वर्त्तमान समय का यथार्थ-यह कविता यथार्थ के कलान्तरण का शोधपूर्ण साक्षात्कार है .कबीर पर आयोजित विचारगोष्ठी में शामिल राज्यपाल और प्रोफ़ेसर के ज्ञान और माया के द्वैत पर व्यंग्यात्मक वाले टिप्पणी कराती हुई यह कविता कबीर के बहाने आज की तारीख में भी लावारिस शिशुओ के आपराधिक हश्र तथा कालीन उद्योग में बाल -श्रम के शोषक इस्तेमाल की समस्या की ओर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है .               ज्ञानेन्द्रपति ऐसे ऐसे  कवि नहीं  कि उनकी  कविताओं पर विहंगम या दूरवर्ती आलोचना लिखी जाय ,न ही उनमे प्रतिभाहीन निष्ठा से  उपजीहुई वह एकयामिता ही मिलती है कि वाद के  मंच पर बैठी हुई पूर्व-नियोजित एवं प्रत्याशित आलोचना पहले से हीही आपने  करते करते आलोचना-मान लिए स्वागत में बैठी हो . उनकी प्रतिभा ने नई सृजनशीलता के बीहड़ में भटकने का वह जोखिम भरपूर मिलता है,जिसने प्रगतिशीलता के रीतिकाल में भी प्रगतिशील कविता की प्रतिष्ठा बचाई अन्तर्दृष्टि है .अनुभूति,संवेदना या काव्यवस्तु के स्तर पर्ग्यानेंद्र्पति काव्यात्मक दुहराव या आदत के कवि नहीं है .उनकी हर कविता जीवन के साक्षात्कार की शत-प्रतिशत मौलिक सृजित परिघटना होती है ,लेकिन अभिव्यक्ति की  अपनी विशिष्ट शैली के कारण काव्यरूप के स्तर  पर उनकी कविताये जो निजी  पहचान संप्रेषित कराती हैं -वह कुछ रीझ और कुछ भाषिक व्यसन के साथ कलात्मक सम्पूर्णता का विशिष्ट  वितान अवश्य रचती है .उनकी इधर प्रकाशित" मनु को बनाती मनई " कविता -संग्रह की कविताएँ अपने शीर्षक के अनुरूप ही मानव-सभ्यता के स्त्री-पक्ष की पड़ताल कराती हैं.ज्ञानेन्द्रपतिका यह संग्रह संवेदनात्मक धरातल पर स्त्री-विमर्श के अधूरे वृत्त को पूरा करने के लिए पुरुष-मन के स्त्रियोचित रूपांतरण की प्रस्तावना करती हैं .ये कविताएँ मानव-जाति के अस्तित्व में स्त्री जाति के सकर्मक योगदान का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं .इन कविताओं में उपस्थित दुनिया मानव-जाति की आधी आबादी की छोटी-छोटी सक्रियताओं की दुनिया है ,जो पुरुष प्रधान दम्भी और बड़बोले अंधे  समाज  से प्रायः अनदेखा ही रह जाती है .स्त्री की वृहत्तर और उदात्त अन्विति इन कविताओं की विशेषता है .स्त्री जीवन के अलग-अलग  यथार्थ-भूमि से लिए गए   छोटे-छोटे चित्र  स्त्री जीवन का बहुआयामी ,सम्पूर्ण और औपन्यसिक वृत्तान्त रचाते हैं .इस दृष्टि से यह स्त्री-जीवन के विविध -पक्षों पर लिखी गयी एक शोधपरक महत्वाकांक्षी कृति है .         स्त्री-विमर्श को सभ्यता-विमर्श के व्यापक फलक से देखे जाने का रचनात्मक आग्रह करती हैं .ये कविताएँ स्त्री के पक्ष में खड़े होकर पुरुष-मन की काव्यात्मक प्रस्तावना और संवेदनात्मक अपील करती हैं .यह विमर्श के उस अधूरे वृत्त को पूरा करने का प्रयास है,जो केवल स्त्री-विमर्श के दायरे में संभव नहीं है .जैसे समाज का सम्पूर्ण रूपान्तरण बिना जाति-विमर्श के केवल दलित विमर्श से ही संभव नहीं ,जैसे शोषक विमर्श के बिना शोषित विमर्श जैसी कोई चीज नहीं हो सकती ;वैसे ही स्त्री-विमर्श के वृत्त को पूरा करने के लिए स्त्री केन्द्रित पुरुष-विमर्श भी करना ही होगा .जो लोग सिर्फ अलग पहचान के लिए इस तरह के विभाजन को बढ़ावा दे रहे हैं ,उन लोगों को स्त्रियों द्वारा प्रस्तुत स्त्री-विमर्श के साथ  इस संवेदनशील पुरुष कवि  द्वारा प्रस्तुत स्त्री-विमर्श को भी पढ़ना चाहिए .दरअसल दाम्पत्य समाज -निर्माण और सामाजिकता की प्राथमिक इकाई है .स्त्री के अस्तित्व का सिर्फ प्राकृतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक और सभ्यतागत पक्ष भी है .इस लिए एक स्वस्थ विमर्श सभ्यता-विमर्श के रूप में ही हो सकता है .ज्ञानेन्द्रपति के इस संग्रह की भी अधिकांश कविताएँ  स्त्री जीवन के संवेदनशील और मार्मिक निरिक्षण की प्रक्रिया में सृजित हुई  हैं.इन कविताओं में भी ज्ञानेन्द्रपति जीवन के गहन अनुभवों और साक्षात्कार के कवि के रूप में सामने आते हैं .
               संकलन की पहली ही कविता "वह"स्त्री-नियति का सम्पूर्ण बिम्ब प्रस्तुत करती है -"उसके होंठ प्रेमिका के होंठ हैं /उसकी छातियाँ माँ की छातियाँ हैं /उसके हाथ मजदूर के हाथ हैं /इस दुनिया के भीतर गिरती-पड़ती /वह नहीं जानती /कि वह इसे लुढ़काए भी लिए जा रही है ".स्त्री के शिशु-रूप  की निष्पापता,वर्जनाओं और असुरक्षा से मुक्त उसके बल-सुलभ जिज्ञासा के मानवाधिकार को "तितली की तरह मडराती हुई "शीर्षक कविता बहुत ही संवेदनशील द्गंग से प्रस्तुत करती है .कविता स्नेह का एक आशंका मुक्त पाठ प्रस्तुत करती है .अभिभावकों का नेपथ्य विश्वास और पराए स्त्री-शिशु के प्रति सहज-आत्मीय स्नेह की दुर्लभता ही इस कविता को महत्वपूर्ण नहीं बनातीबल्कि अपनी जिज्ञासाओं के कारण अपराध का शिकार होने वाली स्त्री-शिशुओं की दुर्घटनात्मक सामाजिक स्मृति के परिप्रेक्ष्य में जिज्ञासु स्त्री-शिशु का तितली की तरह मडरा सकने का मानवाधिकार इस कविता को अतिरिक्त महत्ता प्रदान करता है .ज्ञानेन्द्रपति की ये कविताएँ एक स्वस्थ और संवेदनशील उदात्त भाव -बोध और मन  वाले प्रबुद्ध नागरिक के निर्माण का सृजनात्मक प्रयास और प्रस्तावना हैं .  काश!आकाश "कविता श्लीलता-अश्लीलता से मुक्त अपने नैसर्गिक बनावट के साथ स्त्री की सामाजिक स्वीकार्यता से है .वर्जनाओं -वासनाओं से लिपटे  बीमार पुरुष -दृष्टि वाले समाज में उनके छिनते समजकाश  की चिंता यह कविता इस टिपण्णी के साथ प्रस्तुत करती है कि'अपने अस्तित्व के प्रति कोई अपराध-बोध महसूस न करें वे.'"एक नई -नकोर लेडीज साईकिल " कविता का साहित्यिक सोंदर्य उस मनोवैज्ञानिक प्रत्याक्षीकरण में है जिसे मानवीकरण कहा जाता है .एक नए स्त्री-जीवन की उड़ान के प्रतीक के रूप में साईकिल का मानवीकरण  उदात्त जीवनबोध और बिम्बों के साथ किया गया है .माँ और बेटी का रिक्शे के पीछे नई साईकिल का लड़ कर लाना एक नए स्त्री जीवन के प्रति सम्मान का प्रतीक बना देता है . कवी उसे एक महँ दृश्य घोषित करता है .साईकिल का धरती पर न होना कल्पनाओं-संभावनाओं और आकांक्षाओं  की भविष्य-भूमि में एक नए स्त्री -जीवन का स्वागत है -" एक नई -नकोर लेडीज साईकिल/क्षितिज की और जाती हुई /अनगिन गतियों के वर्तुल बीज /उर में जुगोये मौन  ""ज्ञानेन्द्र पति की अनेक कविताओं में  बाजारवाद की अंधी दौड़ में   लुप्त होते सांस्कृतिक मनुष्य और उसके आर्थिक यथार्थ की मानवीय पड़ताल मिलती है .यह सांस्कृतिक मनुष्य धार्मिक मनुष्य नहीं ,बल्कि एक सभ्यतागत(स्त्री -) मनुष्य है .उत्सव का सांस्कृतिक पर्यावरण एक अलग अर्थ-तन्त्र  की रचना भी करता है .ज्ञानेन्द्र पति नें इन पेशों में निहित मानवीय सम्भावनाओं और संदेशों की भी आधुनिक दृष्टि  से पड़तालकी है ."दीवाली बे -दीया  कविता ऐसे ही एक उदास पेशे का शोक-गीत है-"एक कुम्हार की सधी उँगलियों नें तराश कर /उनमें जलने की उम्मीद भरी है /जलने की एक बुझी-बुझी -सी उम्मीद "कालोनी की सडकों पर दिए बेचने के लिए आवाज लगा रही माँ -बेटी के बहाने कवी नें ऐसे लोगों की का्यखबर ली है .इन कविताओं में ज्ञानेन्द्रपति जीवन-नियति की विविधता के साथ-साथ स्त्री जीवन के वर्गीय रूपों और रहस्यों का भी काफी दिलचस्प और विशेषज्ञ विश्लेषण प्रस्तुत करते है .उनकी गोलगप्पे कविता में एक सेठ घराने की स्थूल-का्य निष्क्रिय माँ -बेटी  के सुख -दुर्वह जीवन में  चिंतनीय कैलोरी अर्जन को एक नागरिक चेतावनी के रूप में "डायनासोर के बिस्तुइया रूप "कह कर औरों से साझा करता है .बाटी वाली ताई कविता बाजार में घर की संवेदनात्मक उपस्थिति वाली ताई की उर भारी बटिया तथा उसके घर गंधी ठेले का काव्यात्मक रेखा-चित्र है .एक संवेदनात्मक त्रिकालदर्शिता ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं को दूसरों के लेखन से अलग और विशिष्ट बनाती है .परम्परा और इतिहास बोध के साथ सजग भविष्य -बोध और वर्तमान यथार्थ तथा जड़ता से उपजी पर्यावरण -विनाश की आशंकाओं को सृजनात्मक हस्तक्षेप से दूर करने वाली सक्रिय अंतर्दृष्टि उनके कवि -कर्म को एक विशिष्ट सार्थक आयाम स\देती है .उनकी सभी कवितायेँ  समवेदन धर्मी बुद्धि की प्रस्तावना करती हैं .वे जीवन के प्रति सार्थक आसक्ति और स्वस्थ राग की खोज करती हैं.ज्ञानेन्द्रपति सही व्यवस्था की खोज के वामपन्थी प्रश्नों को सुरक्षित रखते हुए ,बिना किसी समझौते के संवेदनशील मनुष्य की खोज की यात्रा जारी रखते हैं . अपनी कविताओं में उनकी कविताएँ अनेक सांस्कृतिक -सामाजिक संरचनाओं में पड़े मनुष्य और मनुष्यता की खोज करती हैं .उनका कवि जितना भावुक और संवेदनशील है ,उतना ही बुद्धि-धर्मा भी .



रविवार, 19 मई 2013

एक अधूरी कविता

सारी उडाने असमर्थता से शुरू हुई थीं
पिता के आदेशों और अनुशासनों से बंधे हुए मन के भीतर
उड़ता रहा मन पिता के प्रतिबंधों के दायरे में
अपनी जीवित देह छोड़कर

सामने से सायरन बजाते हुए गुजर रही थीं पुलिस की गाड़ियाँ
मैं जितना ही डरता गया
पुलिस से बचने के लिए पुलिस में भारती होने की सोचने लगा
पुलिस वाले नेताओं की ड्यूटी में  थे
फिर मैं भी देखने लगा स्वप्न
की मैं भी घिरा रहूँ ऐसे ही पुलिस से
सबसे चमकदार वस्त्र और सबसे असरदार मुस्कान में 

शनिवार, 18 मई 2013

समय का जीना

लोग बीमार हो रहे हैं
लोग निकलते जा रहे हैं एक-दुसरे को जीने की आदत से
ऊंघने लगे हैं संवेग उदास मन की देहरी पर
सभी गिर गए हैं जैसे अपने-अपने अंधे कुओं में एक साथ
एक दू :स्वप्न को जीने की तरह
अपनी-अपनी उनीदी चीखों से घबराए ...

रविवार, 5 मई 2013

संस्कृति-चिन्तन


मेरा आशय सिर्फ इतना था कि पहले का महत्वपूर्ण चिन्तन भी धार्मिक मान्यताओं में छिपा पड़ा है जिसे पहचानने की जरुरत है .सीधे-सीधे पक्ष या विपक्ष में मान्यताएं या पूर्वाग्रह विकसित करना उचित नहीं है .इसमें मार्क्स का द्वंद्वात्मक और वस्तुवादी दृष्टिकोण ही उचित है .शूद्रों के पूर्वजों जसे शिव के पौराणिक चरित्र को ही लें तो उसे पुरोहित वर्ग नें अधिग्रहीत कर लिया .इसी तरह बुद्ध को भी अवतार घोषित कर उनके वंशजों को वर्ण-क्रम में वहां पहुंचा दिया किआज उनके ही वंशज स्वयं को पहचान नहीं पाएँगे किउनके ही पूर्वजों को भगवन घोषित कर वर्ण-व्यवस्था में ऊँची कही जाने वाली जातियां भी पुंजती हैं .ब्राह्मणवाद का हौवा खड़ा कर क्या-क्या छोड़ते जाएँगे !अपनी संस्कृति और सभ्यता में भी जो कुछ भी अच्छा है उसे भी पहचानना और चुनना होगा .इसके लिए पूर्वाग्रह रहित ईमानदार विमर्श की जरुरत है .रिक्शे पर बैठे व्यक्ति में रिक्शा खींचरहे व्यक्ति की तुलना में श्रेष्ठता-बोध तो होगा ही .ईश्वर के नाम पर ही सही जिन लोगों ने सुखी होने का तंत्र विकसित कर लिया था ,उन्हें थकने वाला श्रम करते हुए जीवन-यापन यदि दंडात्मक प्रतीत हो रहा था तो इसमें आश्चर्य क्या ! सिर्फ महिमा-मंडान से ब्रेनवाश कर भिक्षा मांगने जैसे अपमानजनक कार्य को आध्यात्मिक बना दिया गया था . स्वाभिमान की दृष्टि से तो शूद्र और वैश्य के घर में जन्म लेना बेहतर है .विषमता तो आज भी है और सामाजिक आर्थिक वर्ग भी हैं ,सिर्फ उनका जातीय -जन्मना आधार हट गया है .ईश्वर केन्द्रित किसान सभ्यता का अपना श्रेष्ठता बोध था .निषिध चाकरी भीख -निदान कह कर किसानी को महिमा-मंडित कर दान-पुण्य से घेर कर बाजार-व्यवस्था से बाहर कर दिया गया था .उस पक्ष पर भी ध्यान दीजिए .




नयी पीढ़ी के मार्क्सवादियों को और सतर्क और समझदार होना होगा .मैंने एक जगह लिखा था किभारतीय चिन्तन के इस लिए अयोग्यहोते हैं किउनके लिए सही होना अपनी जाति के अनुरूप सोचना है .यहाँ सही-गलत इस तरह तय होता है किया तो आप बिरादरी के साथ हो सकते हैं या बिरादरी के बाहर.यह जातीय शुद्धतावाद जैसी मानसिकता है .अब मार्क्सवादी होना विवेक का नहीं अस्मिता का प्रश्न हो गया है .अगर ऐसे ही चलता रहा तो इस्लाम के बाद बंद बुद्धिजीवियों का दूसरा बड़ा सम्प्रदायबन जाएगा .लेकिन हमें स्वाभिमानी साहित्यकारों का सम्मान करना सिखाना चाहिए .हो सकता है कि अज्ञेय स्वाभिमानी रहे हों और महत्वकांक्षी भी या अधिक दूरदर्शी रहे हों कि दस-पांच वर्षों के वैचारिक दबदबे को स्वीकार नहीं कर पाएं हों .गलत तो सुकरात को भी समझा गया था .अज्ञेय सुकरात नहीं थे .लेकिन उनमे असहमत और उपेक्षित होने का सहस था .मैं ऐसे बहुत से मूर्खों और अति-चालाक अवसरवादियों को जानता हूँ जो बाजार-भाव देखकर और कामरेड कहने -कहलाने का गौरव-बोध जीने के लिए स्वयं को मार्क्सवादी घोषित किए फिरते रहे -बहुतेरे सामाजिक भाव्यीकरण के कारण -उनके लिए सब कुछ तय हो गया है जबकि मैं जितना ही मार्क्सवाद की अवधारानाओं को लेकर सोचता हूँ उतनी ही विचारधारात्मक समस्याए मुझे चिंतित कर रही हैं .

अंध-विश्वास : कारण और निवारण

मेरे फेसबुक मित्र श्री अनिल सिंह के अन्धविश्वास पर लिखे इन विचारों को पढ़े .अन्धविश्वास भी परिवेश से मिले सामाजिक ज्ञान का एक हिस्सा है .सामाजिक और सांस्कृतिक प्रशिक्षण-तंत्र इसे भी अन्य ज्ञानों की तरह ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता रहता है .इस तरह अन्धविश्वास भी समाज द्वारा व्यक्ति को दिए जा रहे ज्ञान का एक हिस्सा है .पूंजीवादी व्यवस्था का असुरक्षित तंत्र इसको और अपरिहार्य बना देता है .दुर्व्यवहार की स्थिति में पुरुषों से स्त्रियों का कमजोर होना भी उन्हें भाग्यवादी-नियतिवादी बनाने के लिए मजबूर करा सकता है .इस लिए मेरा मानना है की आप व्यवस्था को और अधिक सुरक्षित  और निरापद बनाए बिना लोगों को अन्धविश्वासी न बनाने का ठोस आवाहन नहीं करा सकते यद्यपि मित्र अनिल सिंह से मैं असहमत नहीं हूँ .उनके ये विचार महत्वपूर्ण है -

".सांइस पढ़ भर लेने से जरूरी नहीं कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी विकसित हो. अपने आस -पास कई विग्यान -विषयों में दीछित पीएच .डी.उपाधि धारियों को जीवन और समाज के सामान्य संदर्भो में घोर अवैग्यानिक और अंधविश्वासपूर्ण आचरण करते देखकरनिराशा होती है. वास्तव में भारत ही नहीं समूचे एशियाई समाज में पुनर्जागरण और प्रबोधन जैसा कोई मुकम्मल आंदोलन चला ही नहीं. भारतीय संदर्भ में 19वीं सदी में पुनर्जागरण की जो एक लहर दिखती है वह भी अपनी प्रकृति में सुधारवादी अधिक है. रेडिकल बदलाव की भावना उसमें नहीं दिखती. आजादी के बाद भारतीय समाज में कोई ऐसा आंदोलन नहीं दिखता जिसका उद्देश्य समाज को ग्यान, बुद्धि, विवेक और तर्क संपन्न बनाना हो. इसलिये प्रो. यशपाल की बातों से अधिक गली में बैठे ज्योतिशी की बातें ज्यादा असर करती है और कोई मूर्ति दूध पीने लगती है, कहीं खारा समुद्री जल मीठा हो जाता है, चाँद पर दिखने लगती है किसी बाबा की आकृति, चड़ावा के बदले बरसती कृपा में लोग भीगने को आतुर हो जाते है उगलियों पर चढने लगती हैं अँगूठियाँ और किस्म किस्म के छल्ले. यहीं विग्यान पिछड़ने लगता है और समाज भी."हमारे अधिकतर अन्धविश्वास अविकसित सभ्यता के दौर की उपज हैं.यह तो सभी जानते हैं .लेकिन वे बार-बार बदले और विकसित समय में भी लौट क्यों आते हैं -इन प्रश्नों के कारणों की भी पड़ताल करनी चाहिए .रवीन्द्रनाथटैगोर नें लिखा है कि जो पीछे छूटगया है वह पीछे खींचेगा और जो नीचे गिर गया है वह झुकाएगा.बौद्धिक असमर्थता और अज्ञान के कारण बहुत से लोग स्थितियों-परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाते-बाजार और व्यवस्था द्वारा प्रदत्त बहुत से अवसर जिनपर कोई अकेला मनुष्य नियंत्रण नहीं प् सकता -व्यक्ति को भाग्यवादी बनाने वाली निरीहता को जन्म देते हैं .व्यक्ति अतार्किक कारणों को भी तलाशने लगता है .कई बार असंतुलित विकास के कारण वैज्ञानिक सुविधाओं का आभाव भी व्यक्ति को अंध-विश्वासी बनता है .उदहारण के लिए कुछ बीमारियाँ जींन  सम्बन्धी खराबियों के कारण होती हैं और दवाएं करने से भी ठीक नहीं होतीं -उचित जाँच के आभाव में अंध-विश्वास की और व्यक्ति को ले जा सकती हैं .बहुत से अन्धविश्वास सभ्यता के विकास के साथ खत्म हो जाएँगे .वैसे ही जैसे आधुनिक असरकारक दवाओं के अविष्कार के पहले तेज ज्वर होने पर लोग मनौतियाँ माननेलगते थे और चढ़ावे चढ़ने लगते थे .इस लिए यदि लोगों से अन्धविश्वास ख़त्म करना होगा तो उसका रास्ता अन्धविश्वास के लिए विवश करने वाली परिस्थितियों से बाहर निकलना होगा .देखा जाए तो चीजें उतनी आसान नहीं हैं .लोगों को सोचना आना चाहिए .बीते ज़माने का मनुष्य बहुत सी असमर्थताओं और ज्ञान की सीमाओं की उपज था .कई बार एक असमर्थ विश्वास से समर्थ अंध-विश्वास अधिक प्रभावी होता है .असल चीज संगठित अपराध और विश्वास से अकेले मनुष्य के लड़ने की प्रतिरोध की क्षमता की भी है .मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो एक असमर्थ और कुंठित मनुष्य ही अन्धविश्वास को चुनौती नहीं दे पाता.मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है .बहुत से अन्धविश्वास वह बचपन से ही प्राप्त सामाजिकता की विरासत से ही अर्जित कर लेता है . .बहुत से अंधविश्वास व्यवस्था पर आम आदमी की पकड़ न होने और उसे प्रभावित कर सकने की उसकी असमर्थता से भी जन्म लेते हैं.कल्पना कीजिए कि इस समय भारत और पाकिस्तान का विभाजन हो रहा होता और हम सब सिर्फ फेसबुक पर अपनी भड़ास निकल रहे होते .अभी चीन वाले प्रकरण पर भी  बहुत  से मतदाताओं का ख्याल होगा कि अब तक स्थानीय सैनिक झड़प तो प्रतिरोध के लिए हो ही जानी चाहिए थी -जो कि नहीं होगी .सिर्फ दर्शक और श्रोता बनाने वाली इस तरह की असमर्थताओं की ,कुंठाओं की भी अन्धविश्वासी बनने-बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है .हमारा अतीत का सक्रिय पेशेवर - जातीय तंत्र तो जिम्मेदार है ही .गाँधी की आध्यात्मिक राजनीति प्रगतिशील होते हुए भी विज्ञानं की तुलना में धर्मं के अधिक नजदीक थी .मुझे लगता है किविज्ञानं के विकास के बावजूद धर्म और आध्यात्म का वैग्यनिककरण अभी बाकि है .यहाँ धर्म से आशय मेरा जीवन जीने की एक सामान्य समझदारी या पद्धति विक्सित करने से है .

शनिवार, 4 मई 2013

आमंत्रण : - सभ्यता-विमर्श के नए सामूहिक ब्लॉग के लिए


http://sabhyata-wimarsh.blogspot.in

आमंत्रण-स्वयं को जनने के लिए

हम जिस दौर में हैं -सिर्फ यही सोचना जरुरी नहीं है की हम क्या सोच रहे हैं ,बल्कि यह भी कि हम ऐसा क्यों सोच रहे हैं .हमारा अधिकांश सोचना हमारे सामुदायिक आदत का हिस्सा होता है .हम उस आदत को भी बिलकुल अपना बनाकर पेश करते-रहते हैं .ऐसा करते हुए हम स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं .क्योंकि हमें एक समुदाय की सुरक्षा मिली होती है .हम अपने समुदाय-विशेष से आत्मीयता के साथ जुड़े रहते हैं .यह आत्मीयता हमें आश्वस्त करता रहता है .लेकिन इस सुरक्षा का एक विलोम भी है .हम जितना ही किसी समुदाय-विशेष से अभिन्न होते हैं उतना ही किसी समुदाय-विशेष से भिन्न भी होते हैं .यह भिन्नता हमें दूर तो कराती ही है 'दूसरों को डरती भी है .हम दूसरों को अपनी भिन्नता से असहज और दूर करते रहते हैं .ऐसे में हमें अपनी-अपनी आदिमताओं को छोड़कर एक वैश्विक मनुष्य होने के लिए उदारता की खोज करनी होगी .
       दूसरी बात यह है कि हमें जो दुनिया मिली है ,हम अपनी सृजनशीलता से उसे बना सकते है 'उसमें कुछ जोड़ सकते हैं और अपनी विध्वंसात्मक मूर्खताओं से उसे बिगाड़ भी सकते हैं .हमारी सामूहिकता और संगठन बहुत से अविश्वसनीय कामों को कराती -करती रहती है .सामूहिक शक्ति नें अविश्वसनीय निर्माण किए और करे हैं .हमें इस शक्ति को पहचान कर उससे अपने पर्यावरण को बचाना होगा .
     यह ब्लॉग इन्ही चिंताओं को लेकर सृजित किया जा रहा है .अपनी सभ्यता,संस्कृति और पर्यावरण को लेकर यदि आप भी कुछ दूसरों से साझा करने योग्य सोचते हों तो कृपया निम्न ई-मेल पते पर प्रकाशनार्थ प्रेषित करें-
                                 sabhyatawimarsh@gmail.com