रविवार, 5 मई 2013

संस्कृति-चिन्तन


मेरा आशय सिर्फ इतना था कि पहले का महत्वपूर्ण चिन्तन भी धार्मिक मान्यताओं में छिपा पड़ा है जिसे पहचानने की जरुरत है .सीधे-सीधे पक्ष या विपक्ष में मान्यताएं या पूर्वाग्रह विकसित करना उचित नहीं है .इसमें मार्क्स का द्वंद्वात्मक और वस्तुवादी दृष्टिकोण ही उचित है .शूद्रों के पूर्वजों जसे शिव के पौराणिक चरित्र को ही लें तो उसे पुरोहित वर्ग नें अधिग्रहीत कर लिया .इसी तरह बुद्ध को भी अवतार घोषित कर उनके वंशजों को वर्ण-क्रम में वहां पहुंचा दिया किआज उनके ही वंशज स्वयं को पहचान नहीं पाएँगे किउनके ही पूर्वजों को भगवन घोषित कर वर्ण-व्यवस्था में ऊँची कही जाने वाली जातियां भी पुंजती हैं .ब्राह्मणवाद का हौवा खड़ा कर क्या-क्या छोड़ते जाएँगे !अपनी संस्कृति और सभ्यता में भी जो कुछ भी अच्छा है उसे भी पहचानना और चुनना होगा .इसके लिए पूर्वाग्रह रहित ईमानदार विमर्श की जरुरत है .रिक्शे पर बैठे व्यक्ति में रिक्शा खींचरहे व्यक्ति की तुलना में श्रेष्ठता-बोध तो होगा ही .ईश्वर के नाम पर ही सही जिन लोगों ने सुखी होने का तंत्र विकसित कर लिया था ,उन्हें थकने वाला श्रम करते हुए जीवन-यापन यदि दंडात्मक प्रतीत हो रहा था तो इसमें आश्चर्य क्या ! सिर्फ महिमा-मंडान से ब्रेनवाश कर भिक्षा मांगने जैसे अपमानजनक कार्य को आध्यात्मिक बना दिया गया था . स्वाभिमान की दृष्टि से तो शूद्र और वैश्य के घर में जन्म लेना बेहतर है .विषमता तो आज भी है और सामाजिक आर्थिक वर्ग भी हैं ,सिर्फ उनका जातीय -जन्मना आधार हट गया है .ईश्वर केन्द्रित किसान सभ्यता का अपना श्रेष्ठता बोध था .निषिध चाकरी भीख -निदान कह कर किसानी को महिमा-मंडित कर दान-पुण्य से घेर कर बाजार-व्यवस्था से बाहर कर दिया गया था .उस पक्ष पर भी ध्यान दीजिए .




नयी पीढ़ी के मार्क्सवादियों को और सतर्क और समझदार होना होगा .मैंने एक जगह लिखा था किभारतीय चिन्तन के इस लिए अयोग्यहोते हैं किउनके लिए सही होना अपनी जाति के अनुरूप सोचना है .यहाँ सही-गलत इस तरह तय होता है किया तो आप बिरादरी के साथ हो सकते हैं या बिरादरी के बाहर.यह जातीय शुद्धतावाद जैसी मानसिकता है .अब मार्क्सवादी होना विवेक का नहीं अस्मिता का प्रश्न हो गया है .अगर ऐसे ही चलता रहा तो इस्लाम के बाद बंद बुद्धिजीवियों का दूसरा बड़ा सम्प्रदायबन जाएगा .लेकिन हमें स्वाभिमानी साहित्यकारों का सम्मान करना सिखाना चाहिए .हो सकता है कि अज्ञेय स्वाभिमानी रहे हों और महत्वकांक्षी भी या अधिक दूरदर्शी रहे हों कि दस-पांच वर्षों के वैचारिक दबदबे को स्वीकार नहीं कर पाएं हों .गलत तो सुकरात को भी समझा गया था .अज्ञेय सुकरात नहीं थे .लेकिन उनमे असहमत और उपेक्षित होने का सहस था .मैं ऐसे बहुत से मूर्खों और अति-चालाक अवसरवादियों को जानता हूँ जो बाजार-भाव देखकर और कामरेड कहने -कहलाने का गौरव-बोध जीने के लिए स्वयं को मार्क्सवादी घोषित किए फिरते रहे -बहुतेरे सामाजिक भाव्यीकरण के कारण -उनके लिए सब कुछ तय हो गया है जबकि मैं जितना ही मार्क्सवाद की अवधारानाओं को लेकर सोचता हूँ उतनी ही विचारधारात्मक समस्याए मुझे चिंतित कर रही हैं .