बुधवार, 23 जनवरी 2019

स्त्री मुक्ति का प्रश्न

भारतीय सभ्यता  ने जिस वैवाहिक तन्त्र को मान्यता दी थी  वह ठीक ठीक पुरुष प्रधान भी नहीं था ।  युवकों से ब्रह्मचर्य की अपेक्षा करने वाली इस सभ्यता ने युवको को प्रेम निवेदन और विवाह प्रस्ताव देने का अधिकार ही नहीं दिया । न ही युवकों के पिता को ही । लड़की पक्ष से प्रस्ताव आने पर  लड़के पक्ष द्वारा उसे स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार उसे अवश्य प्राप्त है । मिथको से लेकर आज तक की फिल्मों में भी ऐसे प्रेमियों को मन दुर्बल मानकर नारद और रावण जैसी खलनायक की भूमिका ही अधिक दी गयी है ।
        वादाखिलाफी के खतरों को देखते हुए मे आदर्श मुक्ति के लिए भी एक सभ्य समाज बनाना होग।   असामाजिक और अराजक मुक्ति मुझे अधिक ख़तरनाक लगती है । जंगल मे जैसे शिकारी शेर किसी भैंस का शिकार करने के पहले उसे झुंड से दूर ले जाता और अकेला करता है ( रामकथा मे सीता का हरण भी रावण इसी विधि से करता है ) देहबाजार के  शातिर देहदस्यु भी पहले झांसा देकर सामाजिक बन्धनो से दूर करते हैं,  त्रासदी यह घटती है कि उसका थका और अपमानित परम्परागत सामाजिक- पारिवारिक तन्त्र सज़ा देने की भावना से सहायता के क्षणों में दुर्दशा का दण्ड प्राप्त करने के लिए अकेला छोड़ देता है ।
       जब तक जन्म लेते ही  सभी की जीन मैपिग करा लेने की सामर्थ्य  सरकारों मे न आ जाए अवैध या धोखेबाज पुरुषो का आपराधिक भ्रूण क्योंकि स्त्री लैंगिकता मे ही पलना है सुरक्षात्मक निषेध  या सावधानियाँ मुझे स्त्री विरोधी नहीं लगती । यह संदिग्ध इसलिए भी लगता है कि लंपट चरित्र वाले स्त्री और पुरुष ही उपभोक्तावादी नजरिये से ही स्त्री की मुक्ति का प्रश्न अधिक उठाते हैं ।