व्यवस्था का आदिम कबीलाई ढांचा और उसका अचेतन साथ-साथ जीने के स्थान पर हिंसक ढंग से अपने साथियों(नागरिकों) को जीतने का विधिसम्मत आमंत्रण देता है और फिर शुरू हो जाता है गुलामी और स्वामित्व का मान्यता-प्राप्त आदिम खेल- जिसमें मानवीय समाज और जनसँख्या दबे और दबाने वालों में बाँट दी जाती है | अपेक्षा यह की जाती है कि दबने वाले दबाने वालों का सम्मान एवं अभिवादन करें क्योंकि वे संवैधानिक रूप से दबाने के लिए ही चयनित है | मेरी चिंता और मेरा प्रश्न यह कि जीतने की होड़ को साथ-साथ जीने की होड़ से विस्थापित किया जा सकता है ? हम अपनी सत्ता और व्यवस्था को मध्य-युगीन ढांचे और आदतों से बाहर क्यों नहीं निकाल पा रहे हैं ? क्या राज्य संस्था का चरित्र ही लोकतंत्र विरोधी है ? तब हमें लोकतंत्र की नहीं बल्कि राज्य की अवधारणा ,संरचना एवं चरित्र कि ही पुनर्परीक्षा करनी चाहिए और निकलना चाहिए एक नयी परिकल्पना की तलाश में ...मुझे लगता है एक दिन नागरिक प्रशासन को सभ्य नागरिक समाज और संस्कृति तक पहुंचाना ही होगा ताकि सैनिक बल द्वारा शासित असभ्य एवं असुरक्षित समाज एक अधिक सभ्य स्वयं अनुशासित समाज में रूपांतरित हो सके ...
जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
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अभिनव कदम - अंक २८ संपादक -जय प्रकाश धूमकेतु में प्रकाशित हिन्दी कविता में किसान-जीवन...
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संवेद 54 जुलार्इ 2012 सम्पादक-किशन कालजयी .issn 2231.3885 Samved आज के समाजशास्त्रीय आलोचना के दौर में आत्मकथा की विधा आलोचकों...
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पाखी के ज्ञानरंजन अंक सितम्बर 2012 में प्रकाशित ज्ञानरंजन की अधिकांश कहानियों के पाठकीय अनुभव की तुलना शाम को बाजार या पिफर किसी मे...