गुरुवार, 25 जून 2015

समय और बाजार

समय और बाजार 

वे बाजार में हैं
उनके लिए बाजार में होना ही
जीत लेना है मानवीय समय को
वे समय की स्मृति को भर रहे हैं
अपनी उपस्थिति के संगठित शोर से
लाभ-हानि की गुणा-गणित के साथ
वे बाजार में बिकाऊ स्मृति के विक्रेता हैं शानदार....

जो वे दिखाना चाहते हैं
देख रहे हैं समय और बाजार के दर्शक
समय बंट गया है बाजार और
बाजार के बाहर वालों के बीच ...

दर्शक बाजार और समय में होकर भी
अनुपस्थित और विजातीय हैं
बाजार और समय के लिए

कि एक दर्शक होना
समय और इतिहास में होना नहीं है



बाजार,स्वर्ग और ईश्वर


वे स्वर्ग में हैं
यह धरती ही उनके लिए है स्वर्ग
वे नहीं चाहते कि वे बदलें
और बदले उनका ईश्वर ....

वे यह सोच भी नहीं सकते कि
उनके पालतू ,सुरक्षित और पक्षपाती ईश्वर से अलग
होना चाहिए कोई दूसरा भी स्वतंत्र ईश्वर
भटकते हुए जंगली,असमर्थ और अस्वस्थ लोगों के लिए
एक निरीह ईश्वर जो कभी चाहता ही नहीं
या फिर चाह कर भी नहीं पूरी कर सकता
किसी की भी कोई प्रार्थना !

वे उस ईश्वर की ओर से हैं
जो अभावों के कारागार में
बंदकर सभी की आत्मा
रख कर कहीं भूल गया है
प्रारब्ध की एक जिद्दी सड़ी किताब ....

वे जो सुख के सुरक्षित स्वर्ग में हैं
 एक सुखी और सुरक्षित ईश्वर के पक्षधर !

चीजें और समय का ईश्वर ...


चीजें आ रही हैं
चीजें दिमाग से आयें या आसमान से
चीजें आयें तो सही !
चीजें मिलजुलकर होती हैं एक ....
और रहस्यमय तथा दुरूह होती जाती हैं

चीजें देखने और दिखने से बंट जाती हैं
चीजें बंट जाती हैं जीने और जानने में
यद्यपि हम प्रतीक्षा करना नहीं चाहते
लेकिन प्रतीक्षा करनी पड़ती है हमें ....

चीजें बंट जाति हैंकिसी के रुक जाने और
चलते ही चले जाने से किसी के
चीजें स्थितियों के साथ बदलती हैं
और बदलती हैं
किसी को छोड़ने और जोड़ने से .....


श्रीमानजी जब सभ्यता एक बस के समान
सामने से छुट रही हो
पीछे धुल उड़ाती ...
पीछे छुट गई वंचित आँखों से
प्रतिपल बदल रही दुनिया के करतब को
सिर्फ ईश्वर की इच्छा की तरह ही देखा जा सकता है


फ़िलहाल तो
चुनाव अभी दूर है
और अपना मत देकर
हाथ कटा बैठे हैं
दिमाग गंवा बैठे हैं हम ....

इसे यथास्थितिवाद कहें
या फिर हमारी संवैधानिक असमर्थता
फ़िलहाल तो सब कुछ ईश्वर के अधीन है

समय का ईश्वर
जो एक असहिष्णु और आपराधिक राजनीतिज्ञ की तरह है
और वह इतना समर्थ है कि
कभी भी किसी दुसरे उपलब्ध मुर्ख को प्रेरित कर
बैठे-बैठे किसी का भी एक्सीडेंट करा सकता है

सिर्फ मैं उसकी भर्तस्ना ही कर सकता हूँ
जिस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है

समय का ईश्वर
जिसकी ताकत इस बात में भी है कि
वह मानव जाति को सामूहिक मुर्ख बनाने के लिए
फिर कौन सी विचारधारा ईजाद करेगा
और किसे चुनेगाअपने द्वारा बनाए गए मूर्खों का चरवाहा  !



चाहना 

हम जिसे चाहते हैं
वह किसी और को चाहे
यह हम बर्दाश्त नहीं करते


चीजें खींचती हैं अपनी ओर और लोग
अस्तित्व का होता है अपना ही आकर्षण
अपनी तात्कालिकता और निर्विकल्पता भी  ...


हम समय में उपस्थित है
और समय में ढूंढते रहते है सहचर
भटकते रहते हैं विकल्प के बाजार में
एक-दूसरेके प्रति ईर्ष्याग्रस्त
और प्रतिस्पर्धी ....

हम जितना कम जानते हैं
उतने ही बड़े हो जाते हैं
हमारी आत्मा में पड़े-खड़े लोग

एक घायल आत्मा
सभी को घायल करती जाती है

हम जो चाहते हैं आक्रामक ढंग से
उपजाते हैं शोर कि हम हैं -सुनो !मुझको !!
होते हैं आश्चर्यचकित अपने ही होने पर
कहते हैं की हम हुए .....
मचाते हैं होड़ अपने होने की

हम एक आवाज
सुनते जाते हैं लगातार
सुनने से अधिक ......