महर्षि पतंजलि का उद्देश्य तो मनुष्य के क्षुद्र जैविक अस्तित्व को परमात्मा अथवा प्रकृति के विराट या संपूर्ण अस्तित्व से जोड़ना था.जिन्होंने भी उनका योग-सूत्र पढ़ा होगा -वे जानते होंगे कि उनका आत्म-निरीक्षण और विश्लेषण अद्भुत है .वह एक संपूर्ण जीवन-दर्शन के रूप में है .-क्योंकि उसमें सिर्फ आसन ही नहीं बल्कि ध्यान,धारणा और समाधि सभी सम्मिलित है .वैसे आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो योग का वास्तविक उद्देश्य सिर्फ स्वस्थ शरीर ही नहीं बल्कि एक आवेशरहित ,शांत एवं सक्रिय मस्तिष्क का विकास भी है .आत्मा के साक्षात्कार की दशा वस्तुतः मन की चंचलता से मुक्त चित्त को पाना है .देखा जाय तो मन भी मस्तिष्क की ही एक दशा है .कहना चाहें तो कह सकते हैं कि इन्द्रियों में आसक्त ,अभिलाषाओं-इच्छाओं से युक्त मस्तिष्क ही मन की दशा है तथा आवेगों से मुक्त विशुद्ध विवेक की प्राप्ति अथवा स्थिर मस्तिष्क का अनुभव ही आत्म-साक्षात्कार की स्थिति है .दरअसल हममें से अधिकांश का मस्तिष्क एक अनियंत्रित मानसिक शोर का शिकार होता है .सोचने की आदत के कारण जब और जो हमें नहीं सोचना चाहिए वह भी हम सोचते जाते हैं .हमारे अनुभवों ,इच्छाओं ,वासनाओं का एक बड़ा हिस्सा भाषिक स्मृतियों के रूप में भी दर्ज होता रहता है .इसमें संदेह नहीं कि योग और प्राथनाएँ बाहरी दुनिया के अनुचित प्रभावों के प्रति उचित प्रतिरोध विकसित करने में मदद करती है,
यहीं पर एक भाषा-वैज्ञानिक रहस्य भी छिपा था . वस्तुतः हमारा मस्तिष्क एक भाषा-ग्रस्त मस्तिष्क है .हम उन शब्द-प्रतीकों के माध्यम से सोचते हैं -जिनको मानव-जाति ने एक सामूहिक अर्थ दिया है .भाषा में सारे शब्द वस्तुतः पद हैं . पद यानि उपाधि और हर पद का एक वास्तविक अर्थ होता है जिसे पदार्थ कहते हैं.पदार्थ यानि वास्तविक जगत की वस्तुएं .हमारा नाम स्वयं एक पद है और हमारा शरीर और अस्तित्व ही उस पद का अर्थ यानि पदार्थ है .हम इसी पद को ही ज्ञान समझने लगते हैं .वस्तुतः ज्ञान तो सूचनाओं और प्रतीकों से बना एक आभासी प्रतिसंसार है .यह प्रतिसंसार ही हमें इतना वास्तविक लगने लगता है कि कई बार हम अपने को सर्वज्ञ एवं अन्तिम रूप से समझदार समझने लगते हैं .जबकि सच तो यह है कि हम जिन शब्दों के लिए लड़ रहे होते हैं .भाषावैज्ञानिक नजरिए से वे सारे शब्द-प्रतीक के रूप में माने हुए ही हैं .ज्ञानी होने के अतिविश्वास में हम अपनी जिज्ञासा ,कौतूहल और जिज्ञासा खो देते हैं .इस तरह देखा जय तो दुनिया के सारे विद्वान अपने ज्ञान के लिए भाषा पर आधारित होने के कारण एक सीमा तक काल्पनिक हैं .अपने मस्तिष्क की इसी अबोधता का साक्षात्कार ही दरअसल आत्मा के साक्षात्कार की वह दशा है जिसे प्राचीन ऋषि नेति -नेति कहते थे .कहने का तात्पर्य यह कि ज्ञान से परे का विशुद्ध प्राकृतिक अस्तित्व आज भी सिर्फ आश्चर्य का ही विषय है .हम भले ही नास्तिक ही क्यों न हों ,प्रकृति या कुदरत के इस करिश्में पर आश्चर्य चकित और मुग्ध रह जाते हैं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसी तथ्य को इस शब्दावली में भी समझ सकते हैं कि हम अपने समय सापेक्ष ज्ञान के कारण ही प्रकृति और अपने अस्तित्व को विशुद्ध संवेदना के स्तर पर नहीं जी पाते .हम अपने अस्तित्व और संसार का जो भी जिस भी रूप में प्रत्यक्षीकरण करते हैं -उससे सम्बन्धित सारी व्याख्याएँ प्रायः समाज और समय के विकास के सापेक्ष होती हैं .तात्पर्य यह है कि समय और समाज के विकास के सापेक्ष हमारी सभी धारणाएँ बदल सकती हैं . पूर्वाग्रह रहित सत्य के लिए सिद्धांत रूप में ही सही अपने मस्तिष्क की ज्ञानात्मक तात्कालिकता का अतिक्रमण करना जरूरी है .इस दृष्टि से जैन धर्मं का अनेकांतवाद अधिक स्वस्थ दृष्टिकोण कहा जाएगा .हम यदि इस प्रबुद्ध अबोधता की ओर लौट सकें -दुसरे शब्दों में अपने आदिम आश्चर्य को पुनः प्राप्त कर सकें तो यह किसी आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार से भी महत्वपूर्ण घटना होगी .आत्मसाक्षात्कार की यही स्थिति,यही चित्ति ही किसी को महावीर तो किसी को बुद्ध या मुहम्मद बनाती है .उस ज्ञानात्मक आदिमता और समर्पण के बिना केवल शारीरिक योग व्यायाम ही कहा जाएगा .
यद्यपि गीता में योग को कर्म करने की कला या कौशल के रूप में देखा गया है .उसमें भी बुद्ध की मध्यमा प्रतिप्रदा की तरह समत्व योग पर बल है .यह भी कि गीता में मूढ़ भाव से आशय क्षोभजनित किंकर्तव्यविमूढ़ता से है -मूढ़ शब्द का व्यंग्यार्थ लेते हुए मैं यह कहना चाहूँगा कि योग का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव मुझपर यह पड़ा कि इसने मुझे मूढ़ भाव जिसे मैं मुर्ख भाव भी कभी -कभी कहता हूँ ; जिसे ही गीता में स्थिति -प्रज्ञ भाव कहा गया है -उसको जीने में मुझे महारत प्रदान कर दी .यह वह योग नहीं है जिसे योग को स्वास्थ्य का व्यायाम बना देने वाले प्रसिद्ध गुरु रामदेव नें लोगों को सिखाया है .यह योग दरअसल बेहया बनने की कला है .अब आप दस लाख लोगों की भीड़ को मुझे गाली देने के लिए मेरे सामने खड़ा कर दीजिए तब भी मैं अविचलित और अप्रभावित ही रहूँगा .गीता वाला यह योग तो मान और अपमान बोध से मुक्त होने में बड़ा सहायक है .यह बाह्य जगत से साहचर्य मुक्त रहकर अपने आप में प्रसन्न रहने की क्षमता देता है भारत जैसे बेईमानों और खुदगर्जों से भरे देश में जहाँ की सामाजिकता विविध जातियों और धर्मों में बंटी हुई है और जहाँ के नागरिक दुसरे की मुक्त प्रशंसा करने में कृपण हैं -ऐसा योग बहुत ही महत्वपूर्ण है .श्री कृष्ण को भी ऐसे योग की जरुरत इस लिए पड़ी थी कि दुर्योधन उन्हें ग्वाल कहकर अपमानित करता रहता था .इसीलिए उन्होंने मान और अपमान में सम रहने वाला योग प्रवर्तित किया . .यद्यपि रामदेव यह योग नहीं सिद्ध कर पाएं हैं लेकिन भौतिक फायदे वाले गुरु के रूप में उनका योगदान महत्वपूर्ण ही कहा जाएगा .
वैसे योग की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका मुझे यह लगती है कि यह बुद्धि की यांत्रिक सक्रियता से या यह कहें कि बुद्धि को चुप करा कर बिना किसी शोर -शराबे के जीवन जीने का विकल्प देता है .शरीर की भौतिक सक्रियता से मानसिक दुनिया पीछे छूट जाती है .इसीप्रकार यह तनाव को कम करता है .यह मन से देह की ओर बाहर निकाल देता है .इसी अर्थ में चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है ..यह अनुचित या विवेकहीन चिंता को कम कर सकता है .विवेकहीन चिंता से आशय यह है कि सब कुछ जानते हुए भी कि काम नहीं होना है या होना संभव नहीं है -हम दुखी रहते हैं .गीता में योग को कर्म करने की कुशलता के रूप में देखा गया है .योग का यह सक्रिय और सामाजिक स्वरूप है .इसे जीवन पद्धति के रूप में देखा गया है .वैसे योग का शाब्दिक अर्थ तो जुड़ना ही होता है .यह अपनी संवेदना को विस्तृत करने का अवसर भी देता है .अगर आप आस्तिक हैं तो इसे आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के प्रयास के रूप में देख सकते हैं लेकिन यदि आप नास्तिक या मार्क्सवादी हैं तो वृहत्तर प्रकृति के प्रति जुड़ने का भाव रख सकते हैं .
यहीं पर एक भाषा-वैज्ञानिक रहस्य भी छिपा था . वस्तुतः हमारा मस्तिष्क एक भाषा-ग्रस्त मस्तिष्क है .हम उन शब्द-प्रतीकों के माध्यम से सोचते हैं -जिनको मानव-जाति ने एक सामूहिक अर्थ दिया है .भाषा में सारे शब्द वस्तुतः पद हैं . पद यानि उपाधि और हर पद का एक वास्तविक अर्थ होता है जिसे पदार्थ कहते हैं.पदार्थ यानि वास्तविक जगत की वस्तुएं .हमारा नाम स्वयं एक पद है और हमारा शरीर और अस्तित्व ही उस पद का अर्थ यानि पदार्थ है .हम इसी पद को ही ज्ञान समझने लगते हैं .वस्तुतः ज्ञान तो सूचनाओं और प्रतीकों से बना एक आभासी प्रतिसंसार है .यह प्रतिसंसार ही हमें इतना वास्तविक लगने लगता है कि कई बार हम अपने को सर्वज्ञ एवं अन्तिम रूप से समझदार समझने लगते हैं .जबकि सच तो यह है कि हम जिन शब्दों के लिए लड़ रहे होते हैं .भाषावैज्ञानिक नजरिए से वे सारे शब्द-प्रतीक के रूप में माने हुए ही हैं .ज्ञानी होने के अतिविश्वास में हम अपनी जिज्ञासा ,कौतूहल और जिज्ञासा खो देते हैं .इस तरह देखा जय तो दुनिया के सारे विद्वान अपने ज्ञान के लिए भाषा पर आधारित होने के कारण एक सीमा तक काल्पनिक हैं .अपने मस्तिष्क की इसी अबोधता का साक्षात्कार ही दरअसल आत्मा के साक्षात्कार की वह दशा है जिसे प्राचीन ऋषि नेति -नेति कहते थे .कहने का तात्पर्य यह कि ज्ञान से परे का विशुद्ध प्राकृतिक अस्तित्व आज भी सिर्फ आश्चर्य का ही विषय है .हम भले ही नास्तिक ही क्यों न हों ,प्रकृति या कुदरत के इस करिश्में पर आश्चर्य चकित और मुग्ध रह जाते हैं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसी तथ्य को इस शब्दावली में भी समझ सकते हैं कि हम अपने समय सापेक्ष ज्ञान के कारण ही प्रकृति और अपने अस्तित्व को विशुद्ध संवेदना के स्तर पर नहीं जी पाते .हम अपने अस्तित्व और संसार का जो भी जिस भी रूप में प्रत्यक्षीकरण करते हैं -उससे सम्बन्धित सारी व्याख्याएँ प्रायः समाज और समय के विकास के सापेक्ष होती हैं .तात्पर्य यह है कि समय और समाज के विकास के सापेक्ष हमारी सभी धारणाएँ बदल सकती हैं . पूर्वाग्रह रहित सत्य के लिए सिद्धांत रूप में ही सही अपने मस्तिष्क की ज्ञानात्मक तात्कालिकता का अतिक्रमण करना जरूरी है .इस दृष्टि से जैन धर्मं का अनेकांतवाद अधिक स्वस्थ दृष्टिकोण कहा जाएगा .हम यदि इस प्रबुद्ध अबोधता की ओर लौट सकें -दुसरे शब्दों में अपने आदिम आश्चर्य को पुनः प्राप्त कर सकें तो यह किसी आत्मा-परमात्मा के साक्षात्कार से भी महत्वपूर्ण घटना होगी .आत्मसाक्षात्कार की यही स्थिति,यही चित्ति ही किसी को महावीर तो किसी को बुद्ध या मुहम्मद बनाती है .उस ज्ञानात्मक आदिमता और समर्पण के बिना केवल शारीरिक योग व्यायाम ही कहा जाएगा .
यद्यपि गीता में योग को कर्म करने की कला या कौशल के रूप में देखा गया है .उसमें भी बुद्ध की मध्यमा प्रतिप्रदा की तरह समत्व योग पर बल है .यह भी कि गीता में मूढ़ भाव से आशय क्षोभजनित किंकर्तव्यविमूढ़ता से है -मूढ़ शब्द का व्यंग्यार्थ लेते हुए मैं यह कहना चाहूँगा कि योग का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव मुझपर यह पड़ा कि इसने मुझे मूढ़ भाव जिसे मैं मुर्ख भाव भी कभी -कभी कहता हूँ ; जिसे ही गीता में स्थिति -प्रज्ञ भाव कहा गया है -उसको जीने में मुझे महारत प्रदान कर दी .यह वह योग नहीं है जिसे योग को स्वास्थ्य का व्यायाम बना देने वाले प्रसिद्ध गुरु रामदेव नें लोगों को सिखाया है .यह योग दरअसल बेहया बनने की कला है .अब आप दस लाख लोगों की भीड़ को मुझे गाली देने के लिए मेरे सामने खड़ा कर दीजिए तब भी मैं अविचलित और अप्रभावित ही रहूँगा .गीता वाला यह योग तो मान और अपमान बोध से मुक्त होने में बड़ा सहायक है .यह बाह्य जगत से साहचर्य मुक्त रहकर अपने आप में प्रसन्न रहने की क्षमता देता है भारत जैसे बेईमानों और खुदगर्जों से भरे देश में जहाँ की सामाजिकता विविध जातियों और धर्मों में बंटी हुई है और जहाँ के नागरिक दुसरे की मुक्त प्रशंसा करने में कृपण हैं -ऐसा योग बहुत ही महत्वपूर्ण है .श्री कृष्ण को भी ऐसे योग की जरुरत इस लिए पड़ी थी कि दुर्योधन उन्हें ग्वाल कहकर अपमानित करता रहता था .इसीलिए उन्होंने मान और अपमान में सम रहने वाला योग प्रवर्तित किया . .यद्यपि रामदेव यह योग नहीं सिद्ध कर पाएं हैं लेकिन भौतिक फायदे वाले गुरु के रूप में उनका योगदान महत्वपूर्ण ही कहा जाएगा .
वैसे योग की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका मुझे यह लगती है कि यह बुद्धि की यांत्रिक सक्रियता से या यह कहें कि बुद्धि को चुप करा कर बिना किसी शोर -शराबे के जीवन जीने का विकल्प देता है .शरीर की भौतिक सक्रियता से मानसिक दुनिया पीछे छूट जाती है .इसीप्रकार यह तनाव को कम करता है .यह मन से देह की ओर बाहर निकाल देता है .इसी अर्थ में चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है ..यह अनुचित या विवेकहीन चिंता को कम कर सकता है .विवेकहीन चिंता से आशय यह है कि सब कुछ जानते हुए भी कि काम नहीं होना है या होना संभव नहीं है -हम दुखी रहते हैं .गीता में योग को कर्म करने की कुशलता के रूप में देखा गया है .योग का यह सक्रिय और सामाजिक स्वरूप है .इसे जीवन पद्धति के रूप में देखा गया है .वैसे योग का शाब्दिक अर्थ तो जुड़ना ही होता है .यह अपनी संवेदना को विस्तृत करने का अवसर भी देता है .अगर आप आस्तिक हैं तो इसे आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के प्रयास के रूप में देख सकते हैं लेकिन यदि आप नास्तिक या मार्क्सवादी हैं तो वृहत्तर प्रकृति के प्रति जुड़ने का भाव रख सकते हैं .
इसमें संदेह
नहीं कि योग मनोविकारों पर नियंत्रण करने की क्षमता विकसित करता है इसके प्रचार और लोकप्रियता
से अपराध और .आत्महत्याएँ कम हो सकती हैं .लेकिन उससे पुल और सड़कें नहीं बन जाएंगी
.किताबों को पढ़ने का श्रम नहीं कम हो जाएगा .योग जादू नहीं है लेकिन भीतर के या मानसिक
शोर को कम करने और शांतिपूर्ण जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त करता है .व्यायाम के रूप
में वह खिंचाव के सिद्धांत पर आधारित हैं ओर शरीर को लचीला बनाता है .उसके शीर्षासन
आदि कुछ आसन जो गुरुत्वाकर्षण के दुष्प्रभावों को कम करने एवं उससे सम्बंधित रोगों
से मुक्त होने में सहायक होते हैं .उदाहरण के लिए सिर्फ मनुष्य ही उर्ध्वाधर रहता चलता
और जीता है -अन्य कशेरुकी प्राणी क्षैतिज जीवन जीते हैं . आजकल कुर्सी आदि पर अधिक
देर तक बैठने के कारण भी पेट की खराबी और रक्त अवरुद्ध होने वाले रोग जैसे बवासीर आदि
से मुक्त होने में योग सा सम्बंधित आसन सहायक हो सकते हैं .क्योकि सारी प्राण शक्ति
एवं उसकी जैविक यांत्रिकी धड में ही होती है इसलिए कपालभांति जैसे डायफ्राम से सम्बंधित
व्यायाम का महत्त्व भी असंदिग्ध ही है .