अधिकांश विचारधाराएँ वर्तमान व्यवस्था की अपर्याप्तता का अतिक्रमण करने और मनुष्य की भविष्योन्मुख सृजनशीलता तथा उसकी प्रत्याशी कल्पनाशीलता का परिणाम हैं..विचारधाराओं के निर्माण की तात्कालिक परिस्थिति और उनके लोकप्रिय होने की समकालीन मानवीय आवश्यकताओं को देखें तो किसी भी यूटोपिया के ऐतिहासिक आधार को समझा जा सकता है .क्योंकि हर विचारधारा का अपना देशकाल और अपेक्षाओं-इच्छाओं का अपना मानवीय पर्यावरण होता है ,इस लिए जब दूसरी पारिस्थितिकी और समय में उसे पूरी तरह सही मानकर जीने का प्रयास करते हैं तो जीवन या तो पिछड़ता है या फिर विकृत होता है.ऐसी विचारधाराएँ असुविधा,गतिरोध और तनाव पैदा कराती हैं . क्योंकि अधिकांश विचारधाराएँ और यूटोपिया अपने निर्माण के समय की वास्तविकताओं की प्रतिक्रिया में ही जन्म लेते हैं ,लेकिन उनके अनुयायी और प्रशंसक उन्हें सार्वभौम और सर्वकालिक मन लेते हैं.इस समझ के अभाव में किसी यूटोपिया या विचारधारा के साइड -इफेक्ट का चिंतन नहीं हो पाता.इस तरह हर यूटोपिया में मानवीय पर्यावरण के विनाश के कुछ खतरे हो सकते हैं..
वस्तुतः सभ्यता के बहुत से आयाम हैं और हो सकते हैं .इसी तरह व्यवस्था -चिंतन के भी बहुत से आयाम हो सकते हैं.शासन-सत्ता का स्वरूप ,उसकी प्राथमिकताएं और नियम,नागरिकों या शासितों के अधिकार या नियम आदि व्यवस्था-चिंतन करने वाली विचार-धाराओं के मुख्या-विषय रहें हैं . इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कोई भी विचारधारा तकनीक और विज्ञानं की व्यावहारिक प्राथमिकताओं को ही प्रभावित कर सकती है ,उसकी ज्ञानात्मक सैद्धांतिकी को नहीं .
व्यापक लोकप्रियता और संस्कारगत मानवीय उपस्थिति के कारण विचारधाराए प्रायःअतीतजीविताको बढावा ही देती हैं.सामजिक अनुकरणशीलता में पुनरुत्पादित होने के कारण वे अतीतोंमुखी समाज की रचना भी करती हैं इसी लिए आधुनिक होना सदैव नया होना ही नहीं होता ,न ही आधुनिक सभ्यता से आशय पूरी तरह वर्तमान की अद्यतन सभ्यता ही है .दरअसल हम जाने -अनजाने यथार्थ का कालान्तरणकर रहे हैं -प्राचीन को आधुनिक बना रहे हैं .अतीत और वर्तमान दोनों ही एक साथ उपस्थित हैं .वस्तुतः आधुनिक और वर्तमान में फर्क है .विडम्बना याह है की जो वर्तमान है वह आधुनिक नहीं है और जो आधुनिक है वह वर्तमान नहीं है .आज का वर्तमान इतिहासग्रस्त है .अतीत का पुनरुत्पादन किया जा रहा है .इसी तरह हमारी सामूहिक जीवन अथवा सभ्यता की यात्रा वांछित-अवांछित,सुनियोजित-अनियोजित भविष्य के साथ,भविष्य की ओर हो रही है .
इस दृष्टि से जब वर्तमान को देखता हूँ तो पता हूँ कि अलग मानसिकता और संस्कृति के कारण समाज में ऐच्छिक विक्षोभ का भी अलग-अलग स्तर दिखता है .कम इच्छाएँ विकास की इच्छा और आवश्यकताओं के बोध को सीमित कराती हैं .इस लिए जब कोई विचारधारा मानव-इच्छाओं को प्रेरित-प्रभावित कराती है तो वह मानवीय पर्यावरण और आविष्कारों को भी प्रभावित करने की स्थिति में होती है -चाहे वह गांधीवाद ही क्यों न हो .उदहारण के लिए देंखे तो गांधीवाद पूंजीवाद को नैतिक और मानवीय बनता है .बनाने की अपील करता है .वह कुछ अधिक विश्वासी है .जबकि मार्क्सवाद एक नकारात्मक नियामक है और वह मनुष्य को असभ्य ,अनैतिक और अमानवीय बनाने का अवसर ही नहीं देता .मानव -मनोविज्ञान की दृष्टि से दोनों की ही आलोचना की जा सकती है .गांधीवाद का तरीका मानव-इच्छाओं की निगरानी करने का है .व्यक्ति की इच्छाओं को अनुशासित और परिसीमित करने के कारण गांधीवाद जिस मनुष्य को निर्मित करेगा वह नैतिक दृष्टि से सज्जन और भद्र पुरुष तो होगा लेकिन उसमे सृजनशीलता की कल्पनाशक्ति कुण्ठित हो सकती है .बहुत प्रभावी होने पर वह बहुत सी तकनीकों और आविष्कारों को हतोत्साहित कर सकता है .
इसके विपरीत मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर निर्मित व्यवस्था की अयोग्यता भिन्न प्रकार की होगी .वह पूंजी की उन्मुक्त और निर्बाध सृजनशीलता के अधिकार को सीमित करना चाहता है इस तरह वह अभिप्रेरणा के स्तर पर सृजनशीलता के आनंद को कुण्ठित करता है . इस दृष्टि से मार्क्सवाद नकारात्मक है .
सामूहिकता में चलने -चलाने की उसकी इच्छा की तुलना परेड में चलने से की जा सकती है .वह कदमताल को अधिक महत्व देता है .
मार्क्सवाद में से दमन ,अविश्वास और तानाशाही को निकालकर उसमे पूंजी -निर्माण की सामूहिक और सकारात्मक सृजनशीलता को बल देने वाली व्यवस्था लाईजा सकती है .मार्क्सवाद को लेकर एक और समस्या यह है कि नियामक विचारधारा होने के कारण मार्क्सवाद संवादी नहीं है .उसकी सैद्धांतिकी बाजार और मुद्रा दोनों को ही व्यर्थ और ध्वस्त कराती है .बाजार के पास मांग और पूर्ति का सटीक सूचनातंत्र तो होता है ,किन्तु मानवीय संवेदना और नैतिक चेतना विभाजित और वर्ग-आधारित होता है.नए मार्क्सवाद को मार्क्सवाद की नैतिक चेतना और संवेदना के साथ बाजार से संवादी होना भी सीखना होगा .क्योंकि बाजार मानवजाति की सृजनशीलता का सर्वोत्तम संग्रहालय भी है .
वस्तुतः सभ्यता के बहुत से आयाम हैं और हो सकते हैं .इसी तरह व्यवस्था -चिंतन के भी बहुत से आयाम हो सकते हैं.शासन-सत्ता का स्वरूप ,उसकी प्राथमिकताएं और नियम,नागरिकों या शासितों के अधिकार या नियम आदि व्यवस्था-चिंतन करने वाली विचार-धाराओं के मुख्या-विषय रहें हैं . इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि कोई भी विचारधारा तकनीक और विज्ञानं की व्यावहारिक प्राथमिकताओं को ही प्रभावित कर सकती है ,उसकी ज्ञानात्मक सैद्धांतिकी को नहीं .
व्यापक लोकप्रियता और संस्कारगत मानवीय उपस्थिति के कारण विचारधाराए प्रायःअतीतजीविताको बढावा ही देती हैं.सामजिक अनुकरणशीलता में पुनरुत्पादित होने के कारण वे अतीतोंमुखी समाज की रचना भी करती हैं इसी लिए आधुनिक होना सदैव नया होना ही नहीं होता ,न ही आधुनिक सभ्यता से आशय पूरी तरह वर्तमान की अद्यतन सभ्यता ही है .दरअसल हम जाने -अनजाने यथार्थ का कालान्तरणकर रहे हैं -प्राचीन को आधुनिक बना रहे हैं .अतीत और वर्तमान दोनों ही एक साथ उपस्थित हैं .वस्तुतः आधुनिक और वर्तमान में फर्क है .विडम्बना याह है की जो वर्तमान है वह आधुनिक नहीं है और जो आधुनिक है वह वर्तमान नहीं है .आज का वर्तमान इतिहासग्रस्त है .अतीत का पुनरुत्पादन किया जा रहा है .इसी तरह हमारी सामूहिक जीवन अथवा सभ्यता की यात्रा वांछित-अवांछित,सुनियोजित-अनियोजित भविष्य के साथ,भविष्य की ओर हो रही है .
इस दृष्टि से जब वर्तमान को देखता हूँ तो पता हूँ कि अलग मानसिकता और संस्कृति के कारण समाज में ऐच्छिक विक्षोभ का भी अलग-अलग स्तर दिखता है .कम इच्छाएँ विकास की इच्छा और आवश्यकताओं के बोध को सीमित कराती हैं .इस लिए जब कोई विचारधारा मानव-इच्छाओं को प्रेरित-प्रभावित कराती है तो वह मानवीय पर्यावरण और आविष्कारों को भी प्रभावित करने की स्थिति में होती है -चाहे वह गांधीवाद ही क्यों न हो .उदहारण के लिए देंखे तो गांधीवाद पूंजीवाद को नैतिक और मानवीय बनता है .बनाने की अपील करता है .वह कुछ अधिक विश्वासी है .जबकि मार्क्सवाद एक नकारात्मक नियामक है और वह मनुष्य को असभ्य ,अनैतिक और अमानवीय बनाने का अवसर ही नहीं देता .मानव -मनोविज्ञान की दृष्टि से दोनों की ही आलोचना की जा सकती है .गांधीवाद का तरीका मानव-इच्छाओं की निगरानी करने का है .व्यक्ति की इच्छाओं को अनुशासित और परिसीमित करने के कारण गांधीवाद जिस मनुष्य को निर्मित करेगा वह नैतिक दृष्टि से सज्जन और भद्र पुरुष तो होगा लेकिन उसमे सृजनशीलता की कल्पनाशक्ति कुण्ठित हो सकती है .बहुत प्रभावी होने पर वह बहुत सी तकनीकों और आविष्कारों को हतोत्साहित कर सकता है .
इसके विपरीत मार्क्सवादी विचारधारा के आधार पर निर्मित व्यवस्था की अयोग्यता भिन्न प्रकार की होगी .वह पूंजी की उन्मुक्त और निर्बाध सृजनशीलता के अधिकार को सीमित करना चाहता है इस तरह वह अभिप्रेरणा के स्तर पर सृजनशीलता के आनंद को कुण्ठित करता है . इस दृष्टि से मार्क्सवाद नकारात्मक है .
सामूहिकता में चलने -चलाने की उसकी इच्छा की तुलना परेड में चलने से की जा सकती है .वह कदमताल को अधिक महत्व देता है .
मार्क्सवाद में से दमन ,अविश्वास और तानाशाही को निकालकर उसमे पूंजी -निर्माण की सामूहिक और सकारात्मक सृजनशीलता को बल देने वाली व्यवस्था लाईजा सकती है .मार्क्सवाद को लेकर एक और समस्या यह है कि नियामक विचारधारा होने के कारण मार्क्सवाद संवादी नहीं है .उसकी सैद्धांतिकी बाजार और मुद्रा दोनों को ही व्यर्थ और ध्वस्त कराती है .बाजार के पास मांग और पूर्ति का सटीक सूचनातंत्र तो होता है ,किन्तु मानवीय संवेदना और नैतिक चेतना विभाजित और वर्ग-आधारित होता है.नए मार्क्सवाद को मार्क्सवाद की नैतिक चेतना और संवेदना के साथ बाजार से संवादी होना भी सीखना होगा .क्योंकि बाजार मानवजाति की सृजनशीलता का सर्वोत्तम संग्रहालय भी है .