हम सब सभ्यता रूपी अभियांत्रिकी के पुर्जे हैं .हम अपने समय और समाज से इतने प्रभावित रहते हैं की हम उससे बाहर निकल कर कुछ सोच हीं नहीं पाते हैं . सबसे बड़ी समस्या उस भावुकता की है जो सच्चे जुडाव
इस साभ्यतिक अभियांत्रिकी का एक दूसरा पक्ष भी है.किसी भी काल के मनुष्य का मस्तिष्क सिर्फ आनुवांशिक ही नहीं ,बल्कि ज्ञान के दीर्घकालीन विकास और उत्तराधिकार का भी परिणाम है .हर पीढ़ी का मनुष्य अनुभव एवं सृजन की लम्बी परम्परा का परिणाम है .मानव विकास की यात्रा में उसे समय और संस्करण के विशेष पाठ के रूप में पहचाना जा सकता है .पाठ की यह भिन्नता अलग समूहों और समुदायों के अलग विकास के रूप में भी है .इसके अतिरिक्त मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी रहा है .अनुकरण वृत्ति और समर्थन उसकी सामाजिकता के प्रमुख स्वभाव हैं उसकी सामाजिकता के प्रमुख निर्धारक हैं .इस लिए एक सीमा के बाद मौलिकता की विशेष दावेदारी नहीं की जा सकती .हमारे व्यक्तित्व का अधिकांश प्रशिक्षणात्मक पुनरावृत्ति या आदत के रूप में होता है .समाज का यह प्रशिक्षण-तन्त्र हमें किसी समुदाय -विशेष की सभ्यता के अवयवी यन्त्र -विशेष के रूप में ढालता है .हमारा व्यवहार एक आदत की जड़ता के रूप में पुनार्घटित होता रहता है .