राजनीतिक तंत्र और आर्थिक तंत्र दोनों ही मनुष्य के सामाजिक-सामूहिक -संगठित तथा बहिर्मुखी जीवन-व्यापार और व्यव्हार हैं क्योंकि राज्य की सम्प्रभुता उसके भौगोलिक सीमांकन से भी प्रभावित और सीमित होती है ,इसलिए संगठित क्षेत्र की सृजनशीलता के लिए आर्थिक क्षेत्र ही अब भी संभावनापूर्ण है .
सामूहिक और संगठित सृजनशीलता की दृष्टि से राजनीतिक व्यवस्थाओं की संभावनाएं कुण्ठित हुई हैं .लेकिन आर्थिक संगठनों की सृजनशीलता की संभावनाएं अब भी बची हुई हैं..वैश्वीकरण ने राज्यों को सहचर और सहगामी बनाने के लिए मजबूर किया है .सच तो यह है कि प्रसार या विस्तार की दृष्टि से राजनीतिक व्यव्हार का ऐतिहासिक दौर अब समाप्त हो चूका है .संगठित मानव-शक्ति की दृष्टि से यह समय आर्थिक सेनाओं की विश्व-विजय का है .
सत्ता का केन्द्र आर्थिक संगठनों की ओर चला गया है .बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ शक्ति और सत्ता के नए केंद्र हैं .मार्क्स के वर्ग की अवधारणा के स्थान पर आर्थिक संगठनों को रखकर ही हम इन संगठनो के बाहर की मानव-जनसँख्या में नए विश्व के लिए सर्वहारा की खोज करा सकते हैं .कहने का तात्पर्य यह है कि स्थिर आर्थिक समाजों के सर्वहारा गिने-चुने टापुओं में ही कैद रहा गए हैं .नए ज़माने के सर्वहाराओं की खोज इन आर्थिक संगठनो से बहिष्कृत हाशिए की जनसँख्या में ही करनी होगी .
मेरी दृष्टि में राजनीतिक सत्ता को सदैव ही साम्यवादी होना चाहिए और आर्थिक व्यवस्था को पूंजीवादी .सिर्फ ऐसा करना ही एक संतुलित समाज को जन्म दे सकेगा .एक आदर्श चरवाहा अपनी भेड़ों को चराने की स्वतंत्रता तो देता है ,लेकिन ऐसा नहीं करता कि भेड़ों की पीठ पर चढ़ कर ही बैठ जाए या फिर उनकी घास पर और उन्हें चरने ही न दे .सर्जना ही नदी के प्रवाह की मुख्या दिशा है ,जबकि वर्जना की भूमिका अगल-बगल के
कगारों की ही है .क्योंकि पूंजी-निर्माण भी मनुष्य का एक सृजनात्मक व्यव्हार है ,इस लिए उसे उल्लास और स्वतंत्रता कजी दिशा के रूप में ही लेना चाहिए ,उसे अविश्वास और असुरक्षा के नकारात्मक विधि-निषेधों में कास-बांधकर अवरुद्ध करना मुझे आत्मघाती कदम लगता है .क्योंकि पूंजी का सृजन भी एक आह्लादक मानव-व्यवहार है इसलिए इसे स्वस्थ मनुष्यों के लिए छोड़ देना चाहिए .इसलिए भी कि पूंजीवाद निरंकुश और निर्बाध स्वतंत्रता प्रदान करने वाली व्यवस्था है,वह मनुष्य को अपनी सम्पूर्ण संभावनाओं को अभिव्यक्त करने का सामाजिक अवसर प्रदान करती है -इसलिए भी सिद्धान्ततः इसे बहुत गलत तो नहीं ठहराया जा सकता ,लेकिन यह भी सच है की इसका गुण ही इसका दोष है .-यह सामूहिकता के पर्यावरण का उल्लंघन सिखाती है .इसलिए सिर्फ साम्यवादी सत्ता ही पूंजीवादी समाज की दायित्वहीनता और महात्वाकांक्षी संवेदनहीनता के दोषों को दूर कर सकती है .यह एक विरोधाभासी प्रतीति वाली बात है ,लेकिन मानसिक विकलांगों,अयोग्यों तथा कुंठितों की सुरक्षा के लिए शासन का साम्यवादी होना ही उचित है .इसके लिए एक आंशिक या सह - साम्यवादी व्यवस्था की परिकल्पना भी की जा सकती है .
सामूहिक और संगठित सृजनशीलता की दृष्टि से राजनीतिक व्यवस्थाओं की संभावनाएं कुण्ठित हुई हैं .लेकिन आर्थिक संगठनों की सृजनशीलता की संभावनाएं अब भी बची हुई हैं..वैश्वीकरण ने राज्यों को सहचर और सहगामी बनाने के लिए मजबूर किया है .सच तो यह है कि प्रसार या विस्तार की दृष्टि से राजनीतिक व्यव्हार का ऐतिहासिक दौर अब समाप्त हो चूका है .संगठित मानव-शक्ति की दृष्टि से यह समय आर्थिक सेनाओं की विश्व-विजय का है .
सत्ता का केन्द्र आर्थिक संगठनों की ओर चला गया है .बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ शक्ति और सत्ता के नए केंद्र हैं .मार्क्स के वर्ग की अवधारणा के स्थान पर आर्थिक संगठनों को रखकर ही हम इन संगठनो के बाहर की मानव-जनसँख्या में नए विश्व के लिए सर्वहारा की खोज करा सकते हैं .कहने का तात्पर्य यह है कि स्थिर आर्थिक समाजों के सर्वहारा गिने-चुने टापुओं में ही कैद रहा गए हैं .नए ज़माने के सर्वहाराओं की खोज इन आर्थिक संगठनो से बहिष्कृत हाशिए की जनसँख्या में ही करनी होगी .
मेरी दृष्टि में राजनीतिक सत्ता को सदैव ही साम्यवादी होना चाहिए और आर्थिक व्यवस्था को पूंजीवादी .सिर्फ ऐसा करना ही एक संतुलित समाज को जन्म दे सकेगा .एक आदर्श चरवाहा अपनी भेड़ों को चराने की स्वतंत्रता तो देता है ,लेकिन ऐसा नहीं करता कि भेड़ों की पीठ पर चढ़ कर ही बैठ जाए या फिर उनकी घास पर और उन्हें चरने ही न दे .सर्जना ही नदी के प्रवाह की मुख्या दिशा है ,जबकि वर्जना की भूमिका अगल-बगल के
कगारों की ही है .क्योंकि पूंजी-निर्माण भी मनुष्य का एक सृजनात्मक व्यव्हार है ,इस लिए उसे उल्लास और स्वतंत्रता कजी दिशा के रूप में ही लेना चाहिए ,उसे अविश्वास और असुरक्षा के नकारात्मक विधि-निषेधों में कास-बांधकर अवरुद्ध करना मुझे आत्मघाती कदम लगता है .क्योंकि पूंजी का सृजन भी एक आह्लादक मानव-व्यवहार है इसलिए इसे स्वस्थ मनुष्यों के लिए छोड़ देना चाहिए .इसलिए भी कि पूंजीवाद निरंकुश और निर्बाध स्वतंत्रता प्रदान करने वाली व्यवस्था है,वह मनुष्य को अपनी सम्पूर्ण संभावनाओं को अभिव्यक्त करने का सामाजिक अवसर प्रदान करती है -इसलिए भी सिद्धान्ततः इसे बहुत गलत तो नहीं ठहराया जा सकता ,लेकिन यह भी सच है की इसका गुण ही इसका दोष है .-यह सामूहिकता के पर्यावरण का उल्लंघन सिखाती है .इसलिए सिर्फ साम्यवादी सत्ता ही पूंजीवादी समाज की दायित्वहीनता और महात्वाकांक्षी संवेदनहीनता के दोषों को दूर कर सकती है .यह एक विरोधाभासी प्रतीति वाली बात है ,लेकिन मानसिक विकलांगों,अयोग्यों तथा कुंठितों की सुरक्षा के लिए शासन का साम्यवादी होना ही उचित है .इसके लिए एक आंशिक या सह - साम्यवादी व्यवस्था की परिकल्पना भी की जा सकती है .