('भारतीय लोक-तन्त्र ,बुद्धिजीवी और हिंसा की मिथकीय सत्ता 'शीर्षक से
डॉo पी o एन o सिंह द्वारा सम्पादित
समकालीन सोच के अंक ५४ ,जुलाई-दिसम्बर ,२०१२ में प्रकाशित लेख )
डॉo पी o एन o सिंह द्वारा सम्पादित
समकालीन सोच के अंक ५४ ,जुलाई-दिसम्बर ,२०१२ में प्रकाशित लेख )
एक राजनीतिक
व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र एक आधुनिक अवधारणा है । यह अपने नागरिकों में अपना
उचित प्रतिनिधि चुनने की योग्यता, वैज्ञानिक विवेक तथा हर व्यकित के जीवन ,अधिकार और
कर्तव्य की समानता की भावना का सम्मन करनें वाले सामूहिक चरित्र की मांग करती है
। भारतीय लोकतंत्र की मुख्य समस्या तो यह
है कि यह न सिर्फ दलों के नेतृत्व के स्तर पर वंशवादी और जातिवादी प्रवृतितयों से
ग्रस्त है बलिक अनुयायियों के स्तर पर भी जनता को ऐसे ही आधारों पर विभाजित करते हैंं
। इससे अनेक प्रान्तों में पेशेवर राजनीति का विकास नहीं हो पाया है । अन्ध-समर्थक
मतदाता वर्ग की प्रचुर उपलब्धता रहनें से
राजनीतिक दल एवं
उनके नेतृत्व बहुत कुछ गैर-जिम्म्ेदार हुए हैं । मतदाताओं में एक सही मूल्यांकन
विवेक के अभाव में वे बहुत सीमा तक भ्रष्ट एवं आपराधिक होते हुए भी वे बार-बार
प्रशासनिक तंत्र को पा जाते हैं ।
जन-प्रतिनिधि बनने और बनाने का रास्ता
सामाजिक सेवा और सकि्रयता के माध्यम से सार्वजनिक उपसिथति और पहचान बनने के बाद का
नहीं है ,बलिक उच्च-स्तर
के नेताओं की चापलूसी या धन देने की योग्यता के कारण वे प्रत्याशी के रूप में जनता
के उपर थोप दिए जाते हैं । राजनीतिक दलों की इस परम्परा के कारण भारतीय मतदाता एक
बन्धुआ मतदाता ही है । अपने राजनीतिक दलों के नेतृत्व के प्रति अपनी अन्धी आस्था
के कारण उसे ऐसे प्रत्याशियों को मत देना पड़ता है जिन्हें वह जानता ही नहीं। इस
प्रवृतित नें आजादी की लड़ार्इ से विरासत में मिली सार्वजनिक सेवा की संस्कृति का
विनाश किया है । यह प्रायोजित नेतृत्व का दौर है । व्यकित्केनिद्रत राजनीतिक दल
होने के कारण कुछ ऐसा परिदृश्य बन गया है कि राजनीतिक दल व्यापक जनता के प्रतिनिधि
न होकर सत्ता का संचालन करने के ठीके लेने वाले व्यकित-समूह में परिवर्तित हो गए
हैं । अधिकांश दल किसी व्यकित-विशेष के नियन्त्रण में हैं । उनमें आन्तरिक
लोकतंत्र नहीं है । यदि वे बुद्धिमान हैं तब भी उनकी भूमिका एक मूक समर्थक की ही
रहती है ।
कुछ दलों का
केन्द्रीय नेतृत्व तो अपना स्वतंत्र जनाधार विकसित करने वाले अपने ही विधायकों और
सांसदों को सहन ही नहीं करता । वे मतदाता और मुख्य नेता के बीच एक बिचौलिए की तरह
हैं । यह सिथति भारतीय लोकतंत्र में एक आदर्श राजनीतिक संस्कृति की हीनता को सूचित
करती है । अतिमहत्वाकांक्षी नेता उभरते
हुए दूसरी पंकित के नेताओं पर न सिर्फ नजर रखती है बलिक समय -समय पर उन्हें दल से
बाहर जाने का रा स्ता दिखाकर उनके जनाधार की जड़ें और अवसर काटती छांटती रहती है
कि वे एक सुरक्षित बौनसार्इ बनें रहें ।
आजादी के पहले और आजादी के बाद भारतीय
बौद्धिक वर्ग की पीडा़,आकांक्षा और विफलता पर
गम्भीरता से विचार किए बिना आधुनिक भारत के निर्माण और भटकाव के इतिहास पर
एक भी पंकित सही ढंग से नहीं लिखी जा सकती । यदि स्वतंत्र भारत केअब तक के अब तक
के चुनावी इतिहास पर उड़ती-सी दृषिट भी डालें तो यह स्पष्ट होते देर नहीं लगती कि
इस देश का प्राय: हर नेतृत्व बौद्धिक वर्ग के सही प्रतिनिधियों को निरन्तर शकित की
सिथति में न आने देने के लिए कृत-संकल्प जैसा लगता है । इसके प्रारमिभक बीज कुछ
लोगों को नेहरू युग में ही चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के निर्वासन में दीख सकते हैं ,किन्तु उसकी चरम
परिणति आपात-सिथति के ऐतिहासिक संसर-युग के रूप में ही हुर्इ । इसके प्रतिरोध में
सन 1977 में जयप्रकाश
नारायण के नेतृत्व में हुआ सम्पूर्ण
क्रानित के भारी-भरकम आन्दोलनात्मक विज्ञापन के साथ शटित हुआ सत्ता परिवर्तन और
जनता पार्टी का शासन -काल एक भटकाव-क्रानित के रूप में भारतीय मतदाताओं के साथ हुए
फूहड़ मजाक जैसा ही था । जनता पार्टी एक सामूहिक रूप से सत्तरूढ़ विपक्ष ही था ।
समिम्लित दलों की अपनी महत्वाकांक्षाएं और स्वार्थ उन्हें मतदाताओं के विश्वास के
प्रति अधिक समय तक जवाबदेह नहीं बना सके । सर्वोदयी नेता के आवाहन पर एक सम्भावना
बनी थी कि देश का बौद्धिक वर्ग भारतीय राजनीति में अपनी भागीदारी के लिए शामिल हो
पाता और उसे राजनीति में शामिल होने के लिए एक सतत उपलब्ध मंच मिल पाता । विशेषकर मध्यवर्ग और निचले वर्ग से आए
जनप्रतिनिधियों के लिए भारतीय लोकतंत्र नें कोर्इ खुला राजनीतिक मंच विकसित नहीं
किया है । यह सिथति खतरनाक है । इस दृषिट
से देखें तो सन 77 की भटकाव-क्रानित के रूप में देश के मतदाताओं के साथ हुए फूहड़ मजाक के
साथ मध्यवर्ग और विशेष रूप् से उसका
बौद्धिक समाज किसप्रकार अपनी सही भूमिका और सही जमीन से दीर्घकालिक निर्वासन की
विचित्र परिसिथतियों में खदेड़ दिया गया ,यह भी इतिहास का एक शर्मनाक अध्याय बन चुका है
। सन 77 की उस कथित
क्रानित और जनाक्रोश के भटकाव से बौद्धिक वर्ग द्वारा सशक्त हथियार के रूप्
में विचार-शकित के उपयोग तथा जनता को प्रभावित कर सकनें की उसकी सारी क्षमताएं
मारी गयीं । वह न सिर्फ लम्बे समय के लिए निर्वासित हुआ बलिक ऐतिहासिक कुण्ठा का
भी शिकार हुआ । उसका बहुत सा हिस्सा जैसे
पक्षाघात का शिकार हो गया । आज आधुनिकता का वाहक भारतीय बुद्धिजीवी सिर्फ नौकरशाह
बनकर रह गया है या फिर विभिन्न जातीय पार्टियों की अवसरवादी सदस्यता लेकर जाति की
राजनीति कर रहा है । इस दौर में अपने घोटालों और आचरणहीन राजनीतिज्ञों के कारण
विधायिका की प्रतिष्ठा धूमिल हुर्इ है और न्यायपालिका तथा पत्रकारिता की भूमिका
महत्वपूर्ण हुर्इ है । इस कठिन समय में कभी न्यायपालिका ,कभी पत्रकारिता तो कभी-कभी चुनाव आयोग के शेषन
जैसे अवश्ेाष बुद्धिजीवियों के सार्थक प्रतिरोध से ही भारतीय लोकतंत्र संस्कारित
होता रह सका है ।
आजादी के पूर्व शिक्षा के अल्पप्रसार के
कारण भारत में बुद्धिजीवियों का समुदाय बहुत बड़ा नहीं था लेकिन अंग्रेजी शिक्षा
प्राप्त एक पर्याप्त राजनतिक नेतृत्व उसके पास अवश्य था और उसके पास राष्टवादी
निष्ठा की एक समृद्ध विरासत भी थी । आज की कांग्रेस जो बहुत अंशो तक गांधी-नेहरू
की कांग्रेस न होकर इनिदरा कांग्रेस की उत्त्राधिकारिणी है , अपनी विशेष प्रकृति और निष्ठा के कारण कांग्रेस
का परिवारवादी संस्करण है । अब पुन: भारतीय जनता नें उसे भारतीय राष्टीय कांग्रेस
का ही उत्तराधिकारी मान लिया है । आजादी के बाद के लगभग आधी शताब्दी से अधिक के
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आधुनिक शिक्षा नें एक अलग ढंग का बौद्धिक समाज
अवश्य निर्मित किया है । इस शिक्षित बौद्धिक वर्ग को आदर्शवादी होना चाहिए था और
एक निष्पक्ष लोकतंत्र के विकास के लिए प्रतिरोधी,असंतुष्ट और सृजनशील भी । इस दृषिट से देखें तो भारत का मध्यवर्गीय
बुद्धिजीवी राजनीतिक दृषिट से पलायनवादी रहा है । इसे एक असुरक्षित पेशे के रूप
में देखा जाता है और संभवत: नेताओं के भ्रष्ट होनें का यह भी एक कारण है ।
इतिहास पर नजर डा लें तो भारतीय
लोकतंत्र के प्रारमिभक कर्इ दशक बौद्धिक वर्ग के राजनीतिक निर्वासन के ही रहे हैं
। उसे कभी परिवारवाद और चापलूसी की चयन-प्रणाली नें बाहर किया है तो कभी मतदाताओं
के जातिवादी ध्रुवीकरण नें । कभी धार्मिक-साम्प्रदायिक राजनीति ने ंतो कभी
भ्रष्टाचार से अर्जित अपार कालेधन नें । उसपर भी विडम्बना यह है कि सामान्य मतदाता
कालेधन और भ्रष्टाचार से अर्जित आर्थिक समृद्धि के प्रदर्शन को भी महानता के एक
विज्ञापन के रूप् में देखता है । अब उसकी आंखें गाधीवादी सादगी और सामान्यता में
नैतिक उत्कृष्टता एवं आचरण की विश्वसनीयता नहीं ढूंढ़ती बलिक बदली धारणा के अनुसार
यह मानकर चलनें लगी है कि उसनें अब खूब लूट लिया और खा-पीकर तृप्त हो गया है और अब
वह आम जनता के लिए भी कल्याण करनें की पात्रता पा चुका है ।
आजादी के बाद की भारतीय नौकरशाही के
चरित्र पर नजर डालें तो आजादी के बाद के कर्इ दशक औपनिवेशिक विरासत में मिली
कार्य-संस्कृति तथा पद और व्यकितत्व की सज-धज तथा रूआब जीने के ही रहे हैं । विरासत में मिली हुर्इ साम्राज्यवादी सामाजिक
प्रतिष्ठा को छोड़ते और जनतांत्रिक मूल्यों की कीमत चुकाते हुए व्यकितत्वांतरण
करनें के लिए भारत का प्रशासक वर्ग बिल्कुल ही तैयार नहीं हुआ । बहुत ही सावधानी
से ''लोकसेवा को 'स्वयंसेवा में बदलते हुए सार्वजनिक सेवा और लाभ
के लिए बनें राजनीतिक-प्रशासनिक पदों को
निजी लाभ के आर्थिक पदों में बदल लिया गया । इस प्रकि्रया में लोकतांत्रिक
संस्कृति को हुर्इ क्षति को देखा जाय तो जनतंत्र के संवैधानिक पन्नों पर शासक वर्ग
नें इतली लकींरें खींच दी हैं कि देश की जनता में जनतांत्रिक मूल्यों और अधिकारों
की न तो पर्याप्त स्वस्थ और सार्थक स्मृति
ही बची रह गयी है और न ही असंतुष्ट होनें की दशा में नए बदलाव और प्रयोग का कोर्इ
अवसर ही । एक स्वस्थ परम्परा की स्मृति कीे बचाए रखनें के लिए सतत-सकि्रय कोर्इ
मंच भी नहीं दीखता । आज पेशेवर राजनीति के अभाव यानि कार्य-प्रदर्शन के आधार पर मत
न देने की प्रवृतित के कारण ही भारतीय लोकतंत्र कुछ ही परिवार-समूहों की निजी
जागीर बनकर रह गया है । राजनीतिक क्षेत्र की उपेक्षा के साथ भारतीय युवा-शकित
आर्थिक क्षेत्र में अपनी महत्वाकांक्षी सृजनशीलता के विकल्प ढूंढ़ रही है । इस पलायन
नें राजनीति के क्षेत्र में जहां प्रतिद्वनिद्वता को कम किया है वहीं सकि्रय
राजनीतिज्ञों को अकल्पनीय आर्थिक साम्राज्य के एक स्वर्ग में पहुंचा दिया है ।
राजनीतिज्ञों के पतन नें भारतीय नौकरशाही
को तो भ्रष्ट किया ही प्रशासन-तंत्र जैसी स्थार्इ महत्व की संस्था की छवि को भी
बहुत नुकसान पहूंचाया है । आज यदि बहुतों को यह अहसास होता है कि प्रशासन नाम की
कोर्इ चीज नहीं रह गयी है तो यह बात साफ हो जानी चाहिए कि उसके पहले प्रशासक वर्ग
नें ही इस अहसास की शुरुआत की होगी कि जनता नाम की कोर्इ चीज नहीं है, जो हैं वह हम ही हम
!
आपातकाल के बाद जे.पी. वाले सम्पूर्ण
क्रानित के आवाहन की विफलता और उसमें हुए नए पीढ़ी के व्यापक दुरुपयोग से ही यह
स्पष्ट हो चुका था कि फिलहाल अभी बौद्धिक वर्ग
अपना मौलिक नेतृत्व नहीं पैदा कर सका है ।
निश्चय ही इस क्रानित की विफलता नें देश और समाज के नेतृत्व शकित के रूप
में बौद्धिक वर्ग के उदय की संभावना को अनिशिचत समय के लिए स्थगित कर दिया । बीमार
जयप्रकाश तथा औपनिवेशिक इतिहास से प्रशिक्षण प्राप्त कर निकले
भटकी(सम्पूर्ण)क्रानित के तथाकथित सूत्रधार और शिकार के रूप में गांव-गांव और
कस्बे-कस्बे में युवा-वर्ग के कन्धे पर रखकर चलार्इ गर्इ बन्दूक से एक भी बाघ मरे
हों या नहीं- क्रानित का परिणामी सत्ता-सुख भोगते अपनी ही पीढ़ी के विपक्षी बूढ़े
नेताओं के सत्ता-आरोहण और अतृप्त महत्वाकांक्षाओं की भगदड़ को इनिदरा गांधी नें
अवश्य ही अनुकूल माना होगा । इसे एक ऐतिहासिक अनुभव के रूप में देखें तो भारतीय
मतदाताओं के साथ एक बहुत बड़े राष्टीय मजाक के रूप में सामनें आनें वाले सन '77 के भव्य जनाक्रोश नें शकित का रूप लेते जिस
वर्ग के असंतोष की पीठ पर चढ़कर जनता
पार्टी के रूप में विपक्ष सत्तासीन हुआ था, वह वस्तुत: बौद्धिक वर्ग ही था । आपातकाल में
इनिदरा गांधी के कुछ निहित आकांक्षाओं की पूर्ति में बाधक तत्कालीन युवा वर्ग के
रूप में आन्दोलनरत इस वर्ग का अपराध यही था कि वह लोकतंत्र,विज्ञान,मानवतावाद और
लम्बे संघर्ष के बाद अर्जित स्वतंत्रता,अधिकार और समानता जैसे महान मानवीय मूल्यों
वाले शब्दों का अर्थ और इतिहास जानता था ।
आपातकाल में सेंसर के रूप में प्रेस की स्वतंत्रता पर हुआ विनाशकारी प्रहार
अपरोक्ष रूप से वस्तुत:
इसी वर्ग की
बौद्धिक चेतना और उसके नैतिक आत्मविश्वास को तोड़नें ,कुचलनें और पंगुं करनें की साजिश थी । समाज की
विविध परम्पराओं और ज्ञान का स्मृति-वाहक होने से यह वर्ग प्रतिरोध की दृषिट से
पर्याप्त सिथरता और दृढ़ता प्रदर्शित करता है ; थोड़े-बहुत परिवर्तनों और कायोर्ं पर रीझकर
व्यकितपूजक लोहा मानते हुए खुश होकर तालियां पीटना ही स्वीकार करता है ;जल्दी किसी से न
तो प्रभावित होता है और न ही न ही अपने विवेक की स्वाधीनता ही खोना चाहता है ।
एक बार सैद्धानितक उदारता के रूप मे
धर्मनिरपेक्षता और बहुलतावाद को स्वीकार कर लेने के बाद स्वाधीन भारत में कांग्रेस
की भूमिका एक संरक्षणवादी-यथासिथितिवादी पार्टी की हो जाती है । उसनें
साम्प्रदायिक तुषिटकरण के अपने अनेक निर्णयों द्वारा आधुनिकतावादी सामुदायिक विकास
और परिवर्तन की प्रक्रिया को बाधित किया है । इस भूमिका में इनिदरा गांधी युग की
कांग्रेस की नीतियां विशेष रूप् से उल्लेखनीय हैं । मानव-जाति के एक व्यापक हिस्से
के रूप में भारत के भविष्य के साथ इनिदरा गा्रधी की आपराधिक परिणामों वाली सबसे
बड़ी ऐतिहासिक भूल यही थी , जिसनें जानें-अनजानें उन्हें अकेला बनाते हुए इतिहास के सही
प्रवाह से ही नहीं काटा ,बलिक अपनी अनितम दुखद परिणति के रूप में अपनें युग के
वर्तमान से भी हमेशा के लिए बाहर कर दिया । विडम्बना यह कि उनकी शहादत उन्हीं
मूल्यों की रक्षा के लिए उन्हीं समस्याओं से हुर्इ जिसका कि वे राजनीतिक स्तर पर
अपनें कार्यकाल में पोषण करती रहीं । इसमें सन्देह नहीं कि भारत के विकास की दृषिट
से ं आधुनिक सभ्यता के भौतिक पक्ष को उनका योगदान सराहनीय है ,लेकिन समानता के
मूल्यों वाली बौद्धिक-चेतना,बौद्धिक अहं और राजनीतिक सत्ता पर सतर्क नजर रखती स्वतंत्र
विचार-शकित उन्हें रास नहीं आर्इ । राजनीतिक वर्चस्व की उनकी महत्वाकांक्षा नें
उन्हें एक असहिष्णु प्रशासक बना दिया । वे स्वतंत्र भारत में एक अधिनायक के रूप
में उभरीं । अपनी राजनीतिक सत्ता खोने के भय से आपात काल लागू किया । एक विकासमान
सभ्यता की विकासमान संस्कृति की उपेक्षा करते रहनें की भूल-कुछ मानसिक प्रकृति, कुछ विवशता ,कुछ भारत के
प्रथम परिवार की कुलीन प्रतिष्ठा के दम्भ और महत्वाकांक्षा के कारण :एक केनिद्रत
और चुनौतियों से मुक्त सत्ता की आवश्यकता का तर्क लेकर वे निरन्तर ही करती रहीं ।
इसका कारण मुझे यह लगता है कि लोकतंत्र से अधिक वे राष्टवाद की चिन्ता करनें वाली
राजनीतिज्ञ थीं । उनके लिए भारत की स्वाधीनता का मतलब कांगेस का शासन था ,क्योंकि स्वाधीनता
सिर्फ कांग्रस के केन्द्रीय नेतृत्व में ही सुरक्षित रह सकती थी । यह भी संभव है
कि भारत को लेकर उनके मन में विकास के कुछ ऐसे स्वप्न रहें हों जिसे अपनें
जीवन-काल में ही वे पूरा करना चाहती रही हों । जो कुछ भी रहा हो, अपनें राजनीतिक
वर्चस्व और सत्ता की प्रापित की चिन्ता को किसी भी सीमा तक जीनें वाली इनिदरा गांधी की इस
लोकतंत्र-विरोधी भूमिका को भविष्य के इतिहासकार भी संभवत: अस्वीकार नहीं कर सकेगे
।
यह एक तथ्य है कि भारतीय बौद्धिक चेतना और उसके
लोकतंत्र के विकास को सबसे अधिक चुनौती जन-जीवन में व्याप्त व्यापक अशिक्षा और
अज्ञान की उपज नकारात्मक प्रवृतितयों के बार-बार इतिहास और वर्तमान बन जानें
क्षमता में ही मिलती रही है । इस संघर्ष का सबसे स्पष्ट ऐतिहासक स्वरूप महात्मा
गांधी के जीवन में मिलता है । व्यापक हितों की चिन्ता के साथ अपनें सन्तुलनकारी
प्रयासों में उन्होंने कर्इ बार बाध्यता के साथ समझौतावादी-संशोधनवादी परिसिथतियों
का दबाव वैचारिक स्तर पर झेला । उनके एक ओर भारतीय समाज और भारतीय शासकों से बिल्कुल
भि न्न प्रकार की मान्यताओं वाली,रूढि़परक वर्जनाओं से लगभग मुक्त अंग्रेजी सत्ता थी तो
दूसरी ओर हजारों वर्ष पहले की सिथर मान्यताओं से चिपका,मध्ययुगीन सामन्ती मूल्यों और विचारधारा वाला
भारतीय समाज-विचित्र प्रकार के द्वन्द्व एवं अन्तर्विरोध से गुजर रही थी भारतीय
चेतना-जो संकोच और स्वीकार,विरोध और सहमति के संक्रमण के दौर में विकसित होती हुर्इ ।
ऐसे समय में महात्मा गांधी का इतिहास-प्रसिद्ध आध्यातिमक मानवतावाद बहुत कुछ
समझौतावाद और युग की अपरिवर्तनशील जड़ सामाजिक समय की मुख्य धारा से जोड़ सकनें
योग्य नीतियों की समझ विकसित करते हुए ही प्राप्त किया गया था । अन्यथा, उस युग के भाववाद और आदर्शवाद की दुहार्इ देनें
वाले बहुत कम लोग ,इस सच्चार्इ पर ध्यान दे पाते हैं कि आजादी के पहले का
विश्व दो विश्व-युद्धों के द्वारा विज्ञान को व्यापक स्वीकृति दे चुका था । उस समय
तक परम्परागत र्इश्वर और आध्यात्म को माक्र्स जैसे विचारकों से कड़ी चुनौतियां भी
मिल चुकी थीं । गांधी जी के लिए पहले व्यकित की भूमिका निभानें वाले नेहरू का ,महात्मा गांधी से
आशीर्वाद प्राप्त करनें के साथ-साथ नयी
दुनिया का स्वागत करनें वाली पंकित में समिमलित हो जाना परम्परागत
भारतीय सोच से अलग किसी नयी बौद्धिक चेतना की तलाश का ही परिणाम था और यह
दुनिया थी माक्र्स ,समाजवाद,प्रगतिशीलता ,विज्ञान और भौतिकवाद की दुनिया !
आजादी के बाद गांधी जी नें अपना
उत्तराधिकार नेहरू को ही सौंपा तो इसके पीछे विकास और परिवर्तन के बाद मिलनें वाले भविष्य के भारत का स्वप्न और तर्क
अवश्य रहा होगा; जो कि गांधी की अपनी परम्परा से अलग हटकर ,कोर्इ दूसरी नयी चीज भी हो सकती थी । यह पूरे
विश्व के भविष्य के साथ भारत के भविष्य को जोड़ देनें की सुविधा भी हो सकती थी
-युग के व्यापक विचारों के परिप्रेक्ष्य में विकसित होने का एक अवसर भी ।
यधपिगांधी जी नें विकल्प रूप् में ''बहुजन हिताय की अपनी मौलिक आकांक्षा भी पूरी
तरह स्पष्ट कर दी थी लेकिन वैज्ञानिक विकास के बाद आनें वाली दुनिया का स्वप्न
उनसे अनदेखा नहीं था । यही वह बिन्दु है
जहां अपने रचे प्रभामण्डल से बाहर गांधी जी भी आनें वाली दुनिया की प्रतीक्षा में
विश्वास करते एक बौद्धिक व्यकित के रूप में भी सामनें आते हैं । यहां पर आकर
महात्मा गांधी के व्यकितत्व का पुनमर्ूल्यांकन आवष्यक हो जाता है -विशेषत:
मनोवैज्ञानिक दृषिट से ; क्योंकि 'मोहनदास कर्मचन्द से अलग 'महात्मा गांधी बहुत कुछ अपने युग की जनता की
मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की भी उपज थे ।
वस्तुत: गांधी अपनी पारगामी संवेदनशीलता
के बल पर अपने युग की मानसिकता का चुनौती
भरा प्रामाणिक प्रतिनिधित्व करते हैं । वे एक साथ जहां बौद्धिक वर्ग के एक
सदस्य के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर सकते थे तो उसके दोषों और भटकावों की प्रतिक्रिया
बनकर उसे चुनौती भी दे सकते थे । इसके अतिरिक्त वे बार-बार वहां तक पीछे मुड़ते
हैं, जितनी और जहां तक
पिछड़ी उनके अपने सुग की आम जनता होती है । गांधी जी के युग के बुद्धिजीवियों की
अगली पंकित मोतीलाल नेहरू ,सुभाषचन्द बोस और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे अपने समय की
अंग्रेजी बौद्धिकता से बराबरी का दावा कर सकनें वाली हसितयों के रूप् में देखी जा
सकती है । गांधी से पूर्व की कांग्रेस भी ऐसे ही लोगों की विशिष्ट संस्था थी
।
यधपि मिथकीय सत्ता के प्रति भारतीय जनता के
आकर्षण का विचारपूर्ण और सफल उपयोग आधुनिक युग में महात्मा गांधी ने किया था,लेकिन उसके दुरुपयोग
के अनेक दावेदार प्रयोक्ता सामनें आये हैं । एक बि्रटिश शिक्षित एडवोकेट के रूप
में प्रतिभा और सामथ्र्य के स्तर पर गांधी जी भी यधपि बौद्धिक वर्ग के सशक्त
दावेदार हैं ; लेकिन स्वेच्छया उस पंकित से उठकर समाज की पिछली पंकित से जुड़ने ंके प्रयास
में कृष्ण , बुद्ध और चाणक्य जैसी युग-प्रवर्तक भूमिकाओं से जोड़नें वाला उनका विशिष्ट रूप
ही महात्मा की उपाधि लेकर सामनें आता है । वस्तुत: इतिहास-निर्माण के अनितम
हिस्सेदार, अपनें युग क्ी पिछली पंकित के
मनोविज्ञान के अनुरूप-आध्यात्म की भाषा बोलने वाले मानवतावाद के रूप में ,जीवन्त मिथकों से
रचा-बसा गांधी की 'महात्मा भूमिका वाला जन-संस्करण ही एक जागृत जन-शकित के रूप
में उस संगठन का निर्माण कर सकता था ,जिससे किसी युग ,समाज और व्यवस्था को बदला जा सके । गांधी के इस
गुण को यदि युग की नकारात्मक प्रवृतितयों को पहचानकर सकारात्मक बनाने वाले बौद्धिक समझौतावाद के रूप में देखें तो अधिक
सही होगा । इस दृषिट से हम जहां भारतीय
जनता में मिथकों की तरह बसे हुए गांधी की सही व्याख्या तक पहुंच सकते हैं,वहीं इनिदरा
गांधी की अपार सफलता और लोकप्रियता के इतिहास के साथ-साथ उन भयंकर भटकावों और
विफलताओं को भी-जो ऐतिहासिक घटनाओं को बौद्धिक चश्में से देखने वाली जनता की बजाय
मिथकीय रंग के चश्में से देखनें वाली जनता की आकांक्षाओं का परिणाम थ ी ; जो देखते ही
देखते एक अनचाहा इतिहास बलपूर्वक नयी पीढ़ी को सौंप कर चली गर्इ हंै। इस रूप में
कि इनिदरा गांधी के विरुद्ध अपनें सम्प्रदाय के पक्ष में प्रतिशोध की मानसिक
उत्त्ेजना से गुजर रहे उनके ही दो सिख अंग-रक्षकों सतवन्त-बेअन्त नें हत्यारे
द्वन्द्व के क्षणों में सिर्फ बाज पक्षी दिख जानें की प्रेरणा लेकर उनकी मृत्यु को
निश्चयात्मक रूप में कारित कर दिया था । कुछ सम्प्रदायों के धर्मग्रन्थों में
हिंसा की मिथकीय सांस्कृतिक स्मृति उन्हें
मानवताविरोधी ढंग से हिंसक एवं हत्यारा बना रही है ।
वैसे तो आज सिर्फ भारत ही नहीं ,बलिक पूरा विश्व
ही विरासत में मिली समस्याओं से जूझ रहा है ; लेकिन इस समय वर्तमान पर'मिथकीय स्मृति(भूत)जीवी
मनुष्यों के व्यापक हमले को देखते हुए,समस्याएं तब और अधिक गम्भीर लगनें लगती हैं,जब हम यही फर्क
करनें में कठिनता का अनुभव करने लगते हैं कि हम आज जो कुछ भी जी रहे हैं,उसे जीवन्त और
उपयोगी परम्परा के रूप में देखेंद्वइतिहास का हिस्सा मानें या भूत का -आधुनिकता और
अधतनताजीवी समाज के साथ भूतजीवी समाज की व्यापक उपसिथति का हम क्या करें ! इस समय
की अधिकांश राष्æीय समस्याएं ऐसी ही अनिश्चय,भ्रम और द्वन्द्व की मन:सिथति का परिणम हैं । कुछ धार्मिक
और जातीय स्मृतियों की पुनरावृतित, अपने संकीर्ण हितों की सुरक्षा और पहचान के संकट के नाम
परकरते हुए किसप्रकार समकालीन चेतना को व्यापक हितों के विरोध में खड़ा कर दिया
जाता है-आज के राजनीतिज्ञों द्वारा जनमानस
का ऐसा सुनियोजित दुरुपयोग भी एक आम बात हो गयी है। फिर भी ,मानव-इतिहास की
लम्बी यात्रा की उपज जातीय स्मृतियों और मिथकीय चेतना की मनोवैज्ञानिक समस्याओं को
देखते हुए कुछ समस्यात्मक सिथतियां अवश्य ऐसी सामनें आती हैं,जो राजनीतिज्ञों
के नियन्त्रण से पूरी तरह बाहर हैं, किन्तु जिनके लिए सिर्फ उन्हें ही दोषी ठहराना
शीघ्रता होगी । ये समस्याएं वर्तमान के ऊपर जातीय और धार्मिक मिथकों के हमले की ही
हैं । इधर जितनी तेजी से असुरक्षा की मनोग्रनिथ से प्रेरित हिंसक धार्मिक संगठनों
के निर्माण और उनसे प्रेरित साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं ,उनके पीछे कोर्इ न कोर्इ जातीय स्मृति या अवसर
के अनुकूल नकारात्मक मिथकों को जनमानस में वापस लानें की कोशिश ही जिम्मेदार है ।
यह प्रवृतित अनेक समाज और मानवताविरोधी संगटनों के निर्माण के रूप में सामनें आती
रही है । अनेक सम्प्रदायों द्वारा निर्मित
राष्æव्यापी संकट और
हिंसक वतावरण के पीछे मिथकों से प्रेरित जातीय स्मृतियों का हाथ है । मिथकों की
ऐसी आतंककारी भूमिका किसी जाति या धर्म -विशेष के सदस्यों के अन्तर्गत पहली दृषिट
में तो किसी अन्धे और विचारहीन उन्माद का परिणाम लगता है और एक ऐसी समस्या के रूप
में सामनें आता है ,जिसका समाधान किसी बन्द दरवाजे की चाबी की तरह खोे गया हो ; किन्तु गहरार्इ
से विचार करने पर इन हिंसक जातीय मनोवृतितयों के पीछे सशक्त कारक तत्वों के रूप
में मिथको ं की अचेतन भूमिका बुरी तरह चौंका जाती है । यहां मिथकों की जातीय
स्मृति से आशय यह है कि कुछ ऐतिहासिक व्यकितयों और घटनाओं के इर्द-गिर्द तत्कालीन
अफवाहों,अन्धविश्वासों और
अनुयायियों में व्याप्त श्रद्धा-विगलित भ्रामक कल्पनाएं इस वास्तविक दुनिया के
समानान्तर एक और काल्पनिक दुनिया रच देती है । शायद आज बौद्धिक होने की सबसे बड़ी
अधतन चुनौती मिथकीय चेतनता से बाहर आकर वास्तविक अथवा विशुद्ध वर्तमान की चेतनता
को सामूहिक स्तर पर पुन: प्राप्त कर लेने की ही है । आज आवश्यकता इस बात की है कि लोकतंत्र के
बौद्धिक स्वरूप और
उसकी लोकतानित्रक
संस्कृति को बनाए रखने के लिए जनता को नए सिरे से प्रशिक्षित किया जाय । उसे अपने
भीतर की अपार सृजनशीलता के प्रति जागरूक किया जाय । उसेअब तक उपेक्षित की गयी
स्थानीय लोकतानित्रक संस्थाओं कीे ओर उन्मुख किया जाय और भटकाव की शिकार
लोकतानित्रक परम्पराओं की वापसी के लिए व्यापक स्तर पर प्रयास करने के लिए
विचारपूर्ण और ठोस कार्यक्रम बनाए जांयें ।