भारतीय संस्कृति की एक विशेषता पर पता नहीं दूसरों का भी ध्यान जाता है की नहीं कि यहाँ जाति-निरपेक्ष रूप में विशुद्ध बौद्धिक तार्किकता के साथ दर्शन का विकास नहीं हुआ है .जिस जाति-विशेष नें उसका विकास किया है ,उस पर पेशे या आजीविका का दबाव रहा है .कम से कम तीर्थों के विकास में झूठे सृजन और सामूहिक महिमा-मंडन की उल्लेखनीय भुमिका रही है .इससे हिन्दू तीर्थों में कभी-कभी अश्लील पेशेवर प्रतिस्पर्धा देखने को मिलती है .इससे हिन्दुओं के सिर्फ वाही मंदिर मुक्त हैं ,जिनकी स्थापना किसी ज़माने के राजतन्त्र नें की है .ऐसे मन्दिर प्रतिष्ठित और भव्य हैं ,उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक स्वीकृति भी है .दक्षिण भारत के कई प्रतिष्ठित मंदिर ऐसे ही हैं .ऐसे मंदिरों में परम्परागत अनुशासन और व्यवस्था भी है .एक प्रभावित करने वाला सांस्कृतिक वातावरण भी मिल जाता है .लेकिन ऐसे प्रतिष्ठित मंदिरों की स्थापना क्योंकि राजतन्त्र या सामन्ती युग की हुई है तथा उन पर उत्तराधिकार में जाति-विशेष के एक ही परिवार का अधिकार है ,इसलिए उसमें मानवतावादी वातावरण नहीं मिलाता.कई बार आधुनिक शिक्षा और मूल्य-बोध से वंचित होनें के कारण जातीय दम्भ एवं जातीय दुर्व्यवहार के दर्शन भी होते हैं .इसका एक दूसरा पक्ष भी मिलाता है .प्राचीन मंदिर निजी आवास में बदल जाते हैं.या फिर सार्वजानिक भूमि का अतिक्रमण कर जन-सुविधाओं को अवरुद्ध कर दिया जाता है .यद्यपि हिन्दू धर्म में धर्मशालाओं की परंपरा है ,लेकिन अधिकांश मंदिरों में शरण लेने या सेवा की संस्कृति का प्रावधान नहीं है .यद्यपि दक्षिण भारत के मंदिरों में बड़े परिसर,पाठशालाओं तथा सेवा की संस्कृति की शानदार परंपरा भी रही है ,लेकिन अधिकांश में ऐसा नहीं है.
दूसरी बात यह है कि कई स्थलों पर पेशेवर जातीय सुविधाओं की परंपरा तो है लेकिन प्रायः भिक्षा और दक्षिणा के अर्थ -तन्त्र पर आधारित होनें के कारण उसकी सांसकृतिक परम्पराओं में सेवा संस्कृति का अभाव मिलाता है .
यद्यपि सन्त परम्परा के कुछ केन्द्रों में जाति-निरपेक्ष आध्यात्मिकता का सांस्कृतिक वातावरण भी दिखता है लेकिन वे भी आध्यात्मिकता के बहानें मनोवैज्ञानिक उपचार केन्द्र से अधिक महत्व नहीं रखते ,
क्योंकि भारतीय मूल की अनेक आध्यात्मिक अवधारणाओं का विकास जाति-विशेष नें किया है ,इस लिए उसके कई उत्तराधिकार में मिले आनुवांशिक रहस्य जाति-विशेष के पास ही सुरक्षित हैं.वह कपोल-कल्पनाओं और मनगढ़न्तों का पिटारा बन कर रह गई है .क्योंकि परंपरागत आचरण पद्धति का सामन्ती पृष्ठभूमि से सम्बंधित होने के कारण आधुनिक लोकतान्त्रिक संसकृति से पर्याप्त विरोध है ,मुझे कई बार लगता है कि भारत में जाति-निरपेक्ष आध्यात्मिक अवधारणाओं का विकास हुए बिना उसकी संस्कृति और सांस्कृतिक आदतों का आधुनिकीकरण नहीं किया जा सकता .ऐसा करना आवश्यक है ,क्योंकि सांस्कृतिक तन्त्र अपने स्थाई प्रशिक्षण -तन्त्र के कारण राजनीतिक दण्ड-विधान से अधिक उपयोगी और सार्थक हो सकता है .वर्तमान में यह लोकतन्त्र की राजनीतिक संस्कृति के विरोध में है .इसे पूरक और सहयोगी रूप में ,नई अव्धार्नाओं के अनुरूप विकसित किया जाना चाहिए .
दूसरी बात यह है कि कई स्थलों पर पेशेवर जातीय सुविधाओं की परंपरा तो है लेकिन प्रायः भिक्षा और दक्षिणा के अर्थ -तन्त्र पर आधारित होनें के कारण उसकी सांसकृतिक परम्पराओं में सेवा संस्कृति का अभाव मिलाता है .
यद्यपि सन्त परम्परा के कुछ केन्द्रों में जाति-निरपेक्ष आध्यात्मिकता का सांस्कृतिक वातावरण भी दिखता है लेकिन वे भी आध्यात्मिकता के बहानें मनोवैज्ञानिक उपचार केन्द्र से अधिक महत्व नहीं रखते ,
क्योंकि भारतीय मूल की अनेक आध्यात्मिक अवधारणाओं का विकास जाति-विशेष नें किया है ,इस लिए उसके कई उत्तराधिकार में मिले आनुवांशिक रहस्य जाति-विशेष के पास ही सुरक्षित हैं.वह कपोल-कल्पनाओं और मनगढ़न्तों का पिटारा बन कर रह गई है .क्योंकि परंपरागत आचरण पद्धति का सामन्ती पृष्ठभूमि से सम्बंधित होने के कारण आधुनिक लोकतान्त्रिक संसकृति से पर्याप्त विरोध है ,मुझे कई बार लगता है कि भारत में जाति-निरपेक्ष आध्यात्मिक अवधारणाओं का विकास हुए बिना उसकी संस्कृति और सांस्कृतिक आदतों का आधुनिकीकरण नहीं किया जा सकता .ऐसा करना आवश्यक है ,क्योंकि सांस्कृतिक तन्त्र अपने स्थाई प्रशिक्षण -तन्त्र के कारण राजनीतिक दण्ड-विधान से अधिक उपयोगी और सार्थक हो सकता है .वर्तमान में यह लोकतन्त्र की राजनीतिक संस्कृति के विरोध में है .इसे पूरक और सहयोगी रूप में ,नई अव्धार्नाओं के अनुरूप विकसित किया जाना चाहिए .