जिनकी जाति में मैं पैदा नहीं हुआ
उनसे मैं मांगता
हूं क्षमा....
जिनके कुल जैसा
मेरा कुल नहीं था
जिनके घर जैसा घर
नहीं था मेरे पास
जिनके देश धर्म
और सम्प्रदाय में पैदा नहीं हो सका मैं
उनसे मैं मांगता
हू़ क्षमा !
जिनके समय में
मैं पैदा नहीं हुआ
जिनकी चमड़ी के
रंग सा रंग नहीं है मेरा
जिनकी आंखों जैसी आंखें नहीं हैं मेरे पास
और न ही जिनकी
नाक जैसी नाक है मेरी
जिनकी भद्र-अभद्र
हरकतों जैसी हरकतें नहीं कर पाता मैं
उन सभी से मैं
मांगता हूं क्षमा !
सच मानिए ! इन सब
में मेरा कोर्इ कसूर नहीं
कोर्इ भ्री दोष
नहीं है मेरा !
सभी के प्रति
अपनी निश्छल सहानुभूति के बावजूद
मैें इस बात के
लिए क्या कर सकता हूं-
यदि मेरे पुरखे
भोजन और पानी की खोज में
उनके पुरखों से
दूर
धरती के किसी
दूसरे छोर की ओर भटक गए
रीझ गए किसी
फलदार पेड़ की घनी छाया पर
या फिर घनी
झाडियों में गुम हो गए
किसी शिकार का
पीछा करते हुए निकल गए
जंगलों और
पहाड़ों के उस पार
जाकर बस गए मिटटी
के किसी अज्ञात उपजाऊ समतल प्रदेश पर.....
और इस प्रकार
निकल गए मेरे पुरखे
उनके पुरखों की
जिन्दगी से
हमेशा-हमेशा के
लिए बाहर और दूर
जिसके कारण आज तक
मैं उन्हें जीने के लिए
उनकी जिन्दगी में
वापस नहीं लौट पाया हूं !
इस समय भी इस
धरती पर
हंस-बोल खा-पी
रहे हैं अरबों-खरबों लोग
जिनके समय में
होते हुए भी
जिनके साथ
हंसते-बोलते खाते-पीते हुए
उन्हें मैं जी
नहीं पाया !
असितत्व के सारे
विभाजनों के बीच और बावजूद
मोहभंग वाली बात
यह है कि
यदि कदाचित मांओं
और पिताओं की जोडि़यां
विवाह के पहले ही
आपस में बदल गयी होतीं तो
तब भी मैं और आप
न सही
कोर्इ न कोर्इ तो
अपरिहार्यत: पैदा हो ही जाता
अपने कुल, जाति और धर्म की
नैसर्गिकता और
थोपी गयी सारी
वर्तमान पहचानों कोे झुठलाता हुआ
निरपराध, भौंचक और अवाक !
जिस किसी को भी
अपनी जाति,कुल और सम्प्रदाय
की श्रेष्ठता को लेकर
ग्लानि ,लज्जा या खेद है