('मैंने अपना ईश्वर बदल दिया है ' पुस्तक की भूमिका से )
मैं जो कहना
चाहता था,उसे बिना र्इष्वर
को बीच में लाए ही कह देता तो और अच्छा होता । क्या मैं कह सकता था ? कहीं यह मेरा
लौटना किसी छूटे हुए को पकड़ने के रूप में तो नहीं था? था -तो किस रूप में ? समस्या के कारण के रूप में या उसके निवारण के
रूप में ? मैं एक बार फिर
कहना चाहता हूं कि यदि मैं बिना र्इष्वर के कह पाता तो और भी अधिक प्रसन्न होता।
क्योंकि मेरी किसी भी अवधारणा में कोर्इ भी दिलचस्पी नहीं रह गयी है। मैं बिना
अवधारणाओं के भी जी सकता हूं और अवधारणाओं के बाहर जीना जान भी लिया है। लेकिन
चेतना का मोहरहित अनावृत्त दर्षन-विषुद्ध चैतन्य से साक्षात्कार....चैतन्य का
निरपेक्ष प्रस्थान-बिन्दु,जो इतना मुक्त कर देता है कि हम कोर्इ अच्छा विष्वास रचें
या अन्धविष्वास। विष्वासों के विषेशज्ञ निर्माता की तरह...जैसा कभी कृश्ण नें रचा
था,र्इसा और मूसा
नें रचा था और रचा था मुहम्मद साहब ने ।
वे जो मानव-जाति के लिए अवधारणा की ओर से
पहली गवाही के दावेदार रहे और हमारी पीढ़ी के अधिकांष पुराजीवियों की ओर से आखिरी।
वे जिन्होंने अपने युग के सम्पूर्ण विष्लेशण और पूरी समझ के साथ अवधारणा में घुसकर
न सिर्फ उसे पुननिर्मित किया,बलिक किसी सधे ड्राइवर की भांति उसे चलाया , उसपर चले और
लोगों को भी चलाया-वे जो स्वदृश्ट अवधारणा से इतने एकाकार हो गए कि उन्हें उनकी
स्वनिर्मित अवधारणा से अलग करके देखा और पहचाना ही नहीं जा सकता । सिर्फ इस लिए कि
वे अपनी अवधारणाओं के सिर्फ पिता ही नहीं थे,बलिक उन्होने उससे अपने जीवन को ही सर्वप्रथम
आच्छादित किया और उसे जिया।
हमारी वर्तमान सभ्यता की मुख्य समस्या ही
यही है कि हम अपने युग में प्रचलित अवधारणाओं को जीने के धरातल पर पिता-पीढ़ी का
प्रतिनिधित्व नहीं करते । हम सभी पु़़़़़त्र-पीढ़ी के अवधारणा-धारक और विष्वासजीवी
हैं। अवधारणा के धरातल पर ही हम सही अथोर्ं में बूढ़ी मानव-जाति के प्रतिनिधि हैं
। पुत्र-पीढ़ी का होने के कारण ही हम अवधारणाओं के निर्माता नहीं,बलिक निर्मिति बन
गए हैं।
हां मैं अवधारणाओें की विविध संभावनाओं को,उनकी प्रकि्रया
को,उनके विविध
तातिवक और ताथियक पक्षों के साथ पूरी मानव-जाति के सामने रखना चाहता हूं। इसलिए कि
अवधारणाओं कें ऐतिहासिक निर्माताओं के हाथ से फि सलकर अवधारणाएं आज अराजक रूप से
स्वतंत्र हो गयी हैं। उन्होंने भटक जाने की दूरी तक ऐतिहासिक यात्रा कर ली है। कि
मृत्यु के पहले की छटपटाहट और प्रतिरोध जैसा उसको मानने वाले अपनी मरती अवधारणाओं
के पक्ष में अनितम विकल्प के रूप में हिंसक हो चले हैं। कहीं ए.के.सैंतालिस है तो
कहीं आर.डी.एक्स. और डायनामाइट; कहीं 11 सितम्बर है तो कहीं फिलस्तीन और काष्मीर,तो कहीं परमाणु,हाइड्रोजन और
न्यूट्रान बम है । आष्चर्य तो यह है कि विज्ञान की इन विनाषकारी कृतियों से
मध्ययुगीन अवधारणाओं-जैसे र्इष्वर और खुदा को बचाया जा रह्राहा है । इसप्रकार भोले
अनुयायी वैज्ञानिक उपलबिधयों को अवैज्ञानिक अवधारणाओं के लिए प्रयोगकर सम्पूर्ण
मानव-जाति के लिए आत्मघाती सिथतियां पैदाकर रहे हैं ।
मेरे द्वारा प्रारम्भ में उठाए गए
प्रष्नों का उत्तर मानव-सभ्यता के प्रतिगामी विकास की इसी वै षिवक विडम्बना और
चिन्ता में छिपा हुआ है। कि क्या जो मैं कहना चाहता हूं,उसे हजारों वशोर्ं के र्इष्वर सम्बन्धी
हजारों-लाखों टन उपलब्ध साहित्य, अवधारणा से मुकित घटित करने के स्थान पर , अर्थ-संक्रमित कर
भ्रामक आषयों की सृशिट तो नहीं करेगा ! दूसरे षब्दों में मेरे अवधारणात्मक
पुनसर्ृजन की वैचारिक निजताओं या रचनात्मक
विषिश्टताओं को समझने में अपने ऐतिहासिक एवं संस्कारगत पूर्वाग्रहों के कारण
मेरे समकालीन
असमर्थ एवं अयोग्य तो नहीं होंगे ! यह मेरा एकानितक भय रहा है,जिसके कारण मैं
लगभग पचीस वशोर्ं से
इस कृति का
प्रकाषन करने से बचता रहा हूं। यह भय पुरातनपंथियों से भी रहा है और वामपंथियों से
भी; फिर भारत जैसे
औपनिवेषिक अतीत वाले देष में तो एक तीसरा
पंथ भी है-पषिचमपंथियों का ! मेरा आषय यह है कि इन सभी पंथों से सम्बनिधत साहित्य
एवं पत्रकारिता के बाजार में उपलब्ध विचारक
प्राय: उन विचारधारा-प्रवर्तकों की पुत्र-पीढ़ी की अनुयायी विचारषीलता ,पूर्वाग्रहों और
अंध-भकित के कारण प्रथम श्रेणी की बिल्कुल मौलिक विचारषीलता के मूल्यांकन करने के
अयोग्य हैं ।
इसलिए कि प्रथमश्रेणी की मौ लिक
विचारषीलता का जन्म वैचारिक निश्कशोर्ं के प्रति न्यायिक तटस्थता,निश्पक्षता और
साहस के बिना संभव ही नहीं है । यह सच है कि सभी विचार देष-काल सापेक्ष होते हैं
और निश्कर्श भी । लेकिन यह भी सच है कि विषुद्ध विचारषीलता,विचार करने की
उन्मुक्त स्वतंत्रता के अभाव में संभव ही नहीं । दुनिया ओर जीवन जैसा है और जैसा
होना चाहिए-हर नया विचार एक नया दृशिट-संयोजन होता है और हर नया विचारक अपनी देखी
हुर्इ दुनिया को पुनप्र्रस्तुत करता है । इसीलिए विचार के क्षण एक पूर्ण विचारक
सम्प्रभुता की मांग करते हैं , ताकि कोर्इ भी विचारक अपने ही निश्कशोर्ं,तथ्यों,इच्छाओं और
रुचियों के अनुरूप अपने ही सौन्दर्य-बोध के आधार पर अपने विचारों का कलात्मक संयोजन
कर सके । संयोजन की ऐसी निरंकुष सम्प्रभुता एवं प्रथमिक स्वतंत्रता किसी
राजनीतिज्ञ को देने के विरुद्ध हूं- जब तक कि अपने युग के दूसरे मनुश्यों को वी
अपने पक्ष में न कर ले । क्योंकि किसी विचारक की स्वायत्त सृशिट इसी दुनिया में
देषान्तर की तरह बनी रहती है ।
कोर्इ भी अवधारणा यदि मानव सभ्यता
के विकास को दुश्प्रभावित करती है तो उसे बदल या संषोधित कर देना चाहिए ।
लेकिन सही अवधारणओं को विकसित कर उन्हें
अधिकतम सामूहिक स्तर पर जीना भी आवष्यक है ताकि हम एक व्यवसिथत और एकरूप अनुकूल
समाज में रह सकें । किसी भी रूप में व्यकितत्व-षून्यता की सिथति एक अराजक मानव
समाज को ही जन्म देगी । अवधारणा-षून्यता हमें बुरी और आपराधि क आदतों से भी भर
सकता है । इन्हीं चिन्ताओं के साथ मैंने अधतन वैज्ञानिक -मनोवैज्ञानिक सूचनाओं के
आधार पर र्इष्वर की निर्दोश और षोशण मुक्त अवधारणा को अपने लिए पाने का प्रयास
किया है । मैं र्इष्वर की अवधारणा के सहारे इतिहास के कीचड़ में लथपथ
व्यकितत्व-हीन और जड़ीभूत हो चुके मनुश्य की अवरुद्ध अवधारणओं से बाहर निकल सकूं
तो ठीक ,अन्यथा आदिम
मनुश्य के उस विषुद्ध आष्चर्य और कौतूहल को पाकर ही धन्य हो जाऊंगा-जो आज भी हर
नव-जन्में षिषु के साथ जन्म लेती है । बूढ़ी मनुश्य जाति के बूढ़े ज्ञान के दबोच
लेने के ठीक पहले के नए जीवन और मन की तरह ! बूढ़ी अवधारणाओं को दूसरों के लिए
जीने को छोड़कर....। संभवत: यही कारण है कि इस कृति का अन्त किसी अवधारणा के अन्तर्गत
नहीं बलिक अवधारणा से मुकित में हुआ है । अपनी लम्बी इतिहास-यात्रा में मानव-जाति
की आंखें अपने ही पैरों से उड़ार्इ गर्इ धूल से मुंद रही हैं। उसकी चेतना लावारिस
ढहते विचारों के मलबे के बोझ तले ढक गर्इ है और उसका मसितश्क अवांछित स्मृतियों के दंष से लहूलुहान हो चुका
है । ऐसी सिथति में अवधारणओं को जीने की युगों पुरानी आदतों से बाहर निकलकर
अवधारणओं से मुक्त एक ऐसे दायित्वपूर्ण,प्रबुद्ध और प्रषिक्षित आत्मनिर्भर मसितश्क
वाले मनुश्य को यह कृति समर्पित है ,जो मानव जाति के सम्पूर्ण विकास को जीते हुए भी
अभी-अभी जन्मी हुर्इ मानव जाति के नवीनतम वारिस की तरह मुक्त जीवन जिए । सिर्फ तभी
वह बिना हिन्दू,मुसलमान,यहूदी ,बौद्ध या र्इसार्इ बने बिना मनुश्य जाति के सम्पूर्ण साझे उत्तराधिकार का लाभ
उठा पायेगा । अवधारणाओं की अन्तग्र्रस्तता से बाहर निकल चुकी एक नयी समझदार
मानव-जाति का विकास संभव हो सकेगा ।