मंगलवार, 26 जून 2012

प्रेम-त्रासदी

उन दिनों प्रेमी का असितत्व और चेहरा
कहीं खोया हुआ था दुनिया की भीड़ के बीच
जिसकी अनथक तलाश करनी थी हमें
मित्रगण पिट रहे थे
और रात-रात भर जाग कर काट रहे थे अपना समय
प्रेम की असफल तलाश में...

उन दिनों सड़क पर प्रेम खोजने से अच्छा था
बन्द कमरे में बिस्तर पर लेटकर
की गयी प्रेम की कल्पनाएं ....
इस तरह हमारा काफी लम्बा समय 
प्रेम की प्रतीक्षा और उसकी तैयारियों में निकल गया

लम्बे समय तक हम यही तय नहीं कर पाये कि
हमें प्रेम करने की पहल करनी है
या करनी है किसी और द्वारा प्रेम में पहल की प्रतीक्षा.....
सड़कों पर लड़कियां कम थीं
और उनसे टकराने के अवसर और भी कम
या फिर ऐसी थीं जिन्हें कोर्इ भी
पसन्द करने से बचना चाहता था

निर्दोष चेहरे बहुत कम थे
और सच्चे और सही प्रेम की तलाश में
अपनी हार स्वीकार चुके मेरे मित्र
फिल्मी नायिकाओं के पोस्टरों से काम चला रहे थे
या फिर चुपके-वुपके यात्रा काते हुए भी टकरा जा रहे थे
एक ही पसन्द के चौराहे पर

कर्इ बार बाल-बाल बचे हम
हो सकने वाली भीषण टक्कर से
कर्इ बार मित्रों को सहलाते-समझााते और स्वस्थ करते रहे
प्रेम के भीषण टक्कर से हुर्इ नुकसान से......

कर्इ बार हम ऐसे अनुभव से गुजरे
जब कल्पना छिन गयी
और पूरी तरह जमीन पर आ गये हम
लेकिन बिना नाम-पता पूछे खो गयी चिटिठयों की तरह ही
खत्म हो गए प्रेम के ऐसे संभावित पड़ाव
तो कर्इ बार र्इष्र्या से बीमार मित्रों को बचाने के लिए
प्रेम के अवसरों का बहिष्कार कर आगे बढ़ गए हम

सच तो यह है कि प्रेम की तलाश में निकलना
मेरे लिए एक श्रमसाध्य और त्रासद अनुभव की तरह रहा
मैं एक युद्ध में फंसा था सामाजिक अपमान के
और मेरा अधिकांश समय उसके प्रतिकार की तैयारियों में नष्ट हो रहा था
मेरे लिए प्रेम में भटकने से अधिक महत्त्वपूर्ण था
मेरा उर्वर और सृजनात्मक मानसिक समय
मैं किसी भी प्रिय-अप्रिय अनुभव-क्षण के कालिक-विस्तार में फंसना नहीं चाहता था.....

अनितम निष्कर्ष यह कि
घर के भीतर रहने और उसे बाहर से देखने के अनुभव की तरह
जनसंख्या की आवृतित के साथ
प्रेम के वैकलिपक तलाश की दुविधा कर्इ बार बनी रहती है
सबके लिए संभव नहीं है मिल पाना वांछित और निर्विकल्प प्रेम

अनुभव के ऐसे ही एक विशेष क्षण में
मैंने उसे देखा
उसका होना एक अपरिहार्य विचार की तरह
छा रहा था मेरे मन-मसितष्क पर
मैंने उसके बारे में सोचा....और-और सोचा तथा
उसके विकल्पों के द्वन्द्व से बाहर निकलने की प्रतीक्षा की......
मैं उसे विचारों से बाहर निकालकर
जीवन में भी जीना चाहता था
मैंने सोचा और सोचा-उसके बारे में और सोचना
मेरे लिए एक पीड़ादायक विचार की तरह था
मैंने उसे अपने विचारों की दुनिया से निकाल बाहर किया
और वापस अपने पास लौट आया....
औसत प्रेम बाजार के किसी सामान को अपना बनाकर
उसे घर में बदल देने वाले अनुभव में पूरा होता है ।