रविवार, 27 मई 2012

कबीर : जल जलहिं समाना....

Dhai Aakhar    Editor-Aacharya Vivekdas me prakashit
जल जलहिं समाना....


धरती बांझ थी और आसमान निरर्थक
नि:संतान था पिता अपने पुत्र के बिना
प्रकृति विधवा थी और परम तत्त्व ओझल
तब अन्धकार की कोख में ज्योति की तरह वह उतरा......

तब चेतना डूबी थी विचारों की जड़ता में
और स्मृतियां जंगल में बदल गयीं थीं
पोथियों पर मूर्खताएं छपी थीं और ग्रन्थों में षडयन्त्र
कपटियों ने सारे प्रकाश को अपने पुत्रों-वंशजों के लिए
चुराकर बन्द कर लिया था

ज्ञान ऐश्वर्य के लिए था और र्ठश्वर व्यापारियों के लिए
परजीवियों का सत्य याचना के लिए-'मुल्ला का बांग' और 'पंडा का पाथर
मकड़ी जैसे अपने बुने जाल में पुकारती है कीट
धर्मग्रन्थों के शब्द कंटीली झाडि़यों में बदल गए थे- मारते हुए मनुष्य.....

जिन्हें कहा जा सकता है नीच-कहा जायेगा
बाझिन को बांझ.....कि द:ुखी का दु:ख सुखी के सुख का विषय है
निपूती का दु:ख.... गोद भरी मांओं की खुशी -हुआ ऐसा....

उतरा वह परम विवेक
जीवन-ज्यों सारे ब्रह्रााण्ड के गर्भ से अभी-अभी फूटा हुआ
निर्विकार अनाम पवित्र निस्सीम सागर-शिशु
आदिम मूल तत्त्व की तरह-अनन्त की ओर से
बंधीं और अनर्वर मानव-जाति के लिए.....

तालाब में जैसे खिलता है कमल
शिशु मिला वह नीरू को अपूर्व
खुले आसमान के नीचे प्रकट हुर्इ दिव्य ज्योति
पुरानी बसितयों के अंधेरे सीलन भरे दुर्गन्धाते तहखानों और बूढ़ी कोठरियों से दूर
खुली हवा में-जंगल-सी अनछुर्इ-अबोध पवित्र और अनायास.....

किसका जीवन है यह !....सोचा नीरू नें
किसका जीवन है यह !....पूछा नीरू नें बार-बार
उसकी सारी प्रतिध्वनियां उस तक ही लौट आयीं.....

यह मेरे लिए है-उसने आसमान की ओर
कृतज्ञता से भरे अपने दोनों हाथ उठाए और झुक गया धरती की ओर
उठाने के लिए एक अपूर्व दिव्य शिशु......


जो किसी का नहीं है ,सबका है-आसमान नें कहा
मेरी धरती पर जो भी जन्मा है-मेरा है....मेरी ओर से है
विरासत है....प्रतिनिधि है सम्पूर्ण असितत्त्व का-दुहराया ब्रहमाण्ड नें बार-बार......

जो किसी का नहीं है ,सबका है
सारे मायावी जोड़-तोड़ और अंकों की भीड़ के लिए
यह सिर्फ एक मानव-शिशु ही नहीं एक विराट शून्य है-सत्य-स्फुर्लिंग !
काल-जनित विकृतियों के....इतिहास के दुखती स्मृतियों के
उन्मादों-अपराधों.... पापों-दुर्घटनाओं के सारे प्रदूषणों का अन्त यह.......

यह किसी का नहीं है ,सभी का है-सबके लिए.....सब कुछ की ओर से
भटके समाज के हर गणित को शून्य करता हुआ
निरस्त करता हुआ सारे गलत-जीवन छलका ज्यों
मानव-जाति की रुद्ध दीवारों वाली सारी परम्पराएं तोड़ ---