रविवार, 27 मई 2012

जीना

Samkaleen Soch   editor P.N.Singh me prakashit


क्या धरती घूमने से इन्कार कर रही है या सूरज जलने से....
क्या हवा चलने से इन्कार कर रही है या बादल बरसने से......
क्या नदियां बहने से इन्कार कर रही हैं या सागर लहराने से.....
क्या बीज अंकुराने से इन्कार कर रहे हैं या पौधे बढ़ने से !

जैसे कोर्इ वृक्ष अपने भीतर से बढ़ते हुए
सहसा ठहर जाता है-पूरी विनम्रता और र्इमानदारी के साथ....
सूरज की किरणों और मिटटी को
दूसरों के लिए मुस्कराते हुए छोड़कर......
जीना चाहता हूं मैं अपनी उपसिथति को
तुम्हारे साथ और तुम्हारे समानान्तर
जीते हुए अपनी सुरक्षित और अनुशासित गति और यति....

जैसे पृथ्वी पृथ्वी ही रहेगी
जैसे पृथ्वी सूर्य नहीं बन सकती
न ही सूर्य पृथ्वी ही बन सकता है.....
जैसे मंगल वृहस्पति नहीं बन सकता
न ही वृहस्पति शनि ही बन सकता है
मैं वही बनना चाहूंगा जो कि मैं हूं!

मुझे धरती और सूरज की तरह
घूमते और जलते हुए बार-बार होना है
होते रहना है मुझे अनथक जिजीविषा के साथ

अपने भीतर के सारे विस्फोटों को
अपनी ही परिधि में नियम-संयम से बांधे हुए
अपने निर्धारित वृत्त-पथ में करते हुए नृत्य
जैसे अपने सारे कुनबे के साथ सूर्य
अनन्त आकाशगंगां के साथ घूमता है
जैसे आकाशगंगा घूमती हैं
अपनी अनन्त सहचर आकाशगंगाओं के साथ....