धर्म और ईश्वर : मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य
धर्म तो किसी न किसी रूप में मानव-जाति के बने रहने तक रहेगा ही । जरूरत निर्दोष धर्म के खोज की है और पूर्वजों से विरासत में प्राप्त होने के कारण ईश्वर की सही दार्शनिक अवधारणा के पुनर्शोध और पुनर्परीक्षा की भी । इसलिए भी कि केवल कूछ ही बुद्धिमान एवं साहसी लोगों को सुरक्षित पर्यावरण मे ही समय एवं स्थितियों के सापेक्ष नास्तिक बनाना संभव है । बचपन से लेकर युवावस्था तक माता और पिता से मिला अभिभावकत्व, संरक्षण और पालन-पोषण के बाद जैसा कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गीतांजलि की अपनी एक कविता मे व्यक्त किया है ईश्वर की अवधारणा भी हमारे मातृत्व,पितृत्व और नेतृत्व से सम्बन्धित जटिल अनुभवों का ही मनोविज्ञान सम्मत उदात्तीकरण है। एक सामाजिक प्राणी होने के कारण अकेले अस्तित्व का अपूर्णताबोध भी वह मनोवैज्ञानिक रिक्ति देता है जिसे आस्था से जुड़ी विभिन्न काल्पनिक-पौराणिक या मिथकीय किम्वदन्तियो एवं मनोनिर्मितियाॅ भरती हैं । इसी रिक्ति मे समाज, संविधान, नियम-कानून और राष्ट्र भी है । आस्था एवं प्रत्यक्षीकरण के अवलम्ब मूर्त और अमूर्त दोनो हो सकते हैं । मूर्त अवलम्ब बहिर्मुखी तथा सक्रिय व्यक्तित्व जीते है जबकि अमूर्त अवलम्ब अन्तर्मुखी एवं निष्क्रिय व्यक्तित्व वाली जनता जीती है । सिर्फ मानसिक प्रत्ययो-संकल्पनाओं मे जीवन और जगत को जी पाना असुविधाओ,अवसरों की कमी तथा संसाधनों पर स्वामित्व के अभाव के कारण एक बड़ी आबादी की जीवन-नियति रही है । भक्तों के भक्त बनने की प्रक्रियागत मनोवैज्ञानिक आवश्यकता और निरीहता को इसी परिप्रेक्ष्य मे ही सही-सही समझा जा सकता है और नेतृत्व के लिए सर्वश्रेष्ठ चुनने की संस्थागत और प्रजातीय अस्तित्व की अपरिहार्यता को भी ।
मै कुछ इस तरह से भी सोचता हूँ कि सृष्टि और जीवन की जिस जटिल विकास-यात्रा को समझने के लिए आज भी वैज्ञानिक बुद्धि लगा रहे हैं उस प्रकृति को सैद्धांतिक रूप से बुद्धिमान होने का दर्जा तो देना ही पड़ेगा । आखिर जिस सृष्टि ने सुचिन्तित होने और सजीवित होने का प्रमाण प्रस्तुत किया है उसे सचेतन होने की कल्पना कर उसका ईश्वर के रूप में चरम-परम मानवीकरण व प्रत्ययीकरण आदिम मनुष्य के ज्ञान एवं चिन्तन की संभवतः औचित्यपूर्ण आवश्यकता भी थी । पश्चिम के प्रकृति और ईश्वर की संकल्पना को सही-सही समझने के लिए उसे भौतिकवादी आध्यात्मिक मानना या आध्यात्मिक भौतिकवादी कहना अधिक उचित होगा । उनके पास बहिर्मुखी आध्यात्म है जो सृष्टि को देखकर उसके एक सृजनकर्ता के रूप में ईश्वर के होने की कल्पना करता है । हम भारतीयों के पास अन्तर्मुखी, जीवनोन्मुखी एवं जगत-निरपेक्ष आध्यात्म है । मुझे तो दोनों पूरक लगते है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को ही ईश्वर के मस्तिष्क की प्रज्ञा-कौंध से आच्छादित, आलोकित एवं निर्देशित मानना कहीं न कहीं बुद्धि एवं चेतनातत्व की सूक्ष्म, निर्णायक एवं प्रभावी भूमिका का ही स्वीकार है । भारतीय दर्शन की महत्ता ज्ञान के एक विभाग की तरह स्वयं मानव-अस्तित्व की आन्तरिक शक्तियों एवं संभावनाओं को समझने मे है । देखा जाय तो आदि शंकराचार्य का मायावाद जगत को समझने से इन्कार करना ही है । जगत को मिथ्या मानना भारतीय दार्शनिकों की जगत को समझने मे रुचि के अभाव और निषेध को भी व्यक्त करता है । भारतीय आध्यात्म की दो धाराएं वशिष्ठ और विश्वामित्र के पौराणिक आख्यानों से होते हुए उपनिषद काल और मध्यकाल में गोरखनाथ, कबीर और तुलसीदास तक साफ-साफ देखी जा सकती हैं । दोनों मे दो भिन्न जीवन-दृष्टियाॅ छिपी है । इसीलिये यह देखना भी रुचिकर होगा कि राम,कृष्ण और बुद्ध जैसे कर्मजीवी जातियों में जन्मे यहाँ तक कि परवर्ती आध्यात्मिक नायक गोरखनाथ और कबीरदास भी अपने चरित-आख्यानों के माध्यम से जो आध्यात्मिक दृष्टि सौंपते हैं, उसका ब्राह्मणजातीय संस्करण और पाठ कितना संकीर्ण, सीमित,अव्याप्तिकर एवं अकर्मण्य प्रकृति का है । ब्राह्मणजातीय दार्शनिकी एवं सांस्कृतिक अभियांत्रिकी की प्रतिगामिता एवं पिछड़ेपन को यदि ईमानदारी से स्वीकार नहीं किया गया तो उसे निर्दोष रूप में अप्रासंगिक नहीं बनाया जा सकेगा ।
निष्कर्ष यह भी कि विज्ञान की विषयगत एवं संस्थागत तथा वैज्ञानिकों की विवेकगत स्वायत्तता बनाए रखते हुए यदि प्रकृति को समझने मे लगे विज्ञान का मानवीकरण नहीं किया गया और एक जीव-प्रजाति को समर्पित मानवीकरण को सम्पूर्ण प्रकृति तक आत्मविस्तारित ईश्वरीकरण से न जोड़ा गया तो विध्वंसक और क्रूर विज्ञान एक शैतानी विज्ञान बनकर रह जाएगा । तब वह प्रकृति के आत्म मे समाहित और सम्मिलित एक आत्मीय और कल्याणकारी विज्ञान कभी नहीं बन पाएगा ।
(27/02/2020)