रविवार, 17 जनवरी 2016

हिंदी-प्रकाशन

जब भी मैं अपनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए सोचता हूँ मुझे वहां भी धन ,प्रचार और छवि-निर्माण की वर्ण व्यवस्था नजर आने लगती है .अपने विज्ञापन बल के आधार पर प्रकाशकों में ही कोई दलित सा उपेक्षित तो कोई सवर्ण सा दबंग नजर आने लगता है .बाजार के ये मनोवैज्ञानिक पूर्वाग्रह पाठकों को भी भ्रमित कर सकते हैं .वह पिछले दरवाजे की पहुँच से छपी किसी नामी प्रकाशक की किताब भी महत्वपूर्ण मानने लगता है .वह बिना पढ़े मानकर चलने लगता है कि वहां से छपा है तो जरुर अच्छा होगा .जब कि हिंदी की वास्तविकता यह है कि कई बड़े नामों के पीछे परस्पर के स्वार्थों से बंधे एक गुटबंदी या गिरोह सक्रिय रहता है .जैसे काई प्रजाति की वनस्पति पहाड़ के ऊपर तक पहुँच जाति है -वैसे ही लघु प्रजाति के साहित्यकारों की बड़ी जमात जन-सरोकारों से दूर आर्थिक राजनीतिक तंत्र के इर्द -गिर्द देखी जा सकती है .
तथाकथित बड़े प्रकाशकों के यहाँ से भी इतनी सामान्य सी पुस्तकें विशिष्ट बनाकर छप चुकी हैं कि उनकी साख या श्रेष्ठता के आधार पर अब मेरी उनके यहाँ से छपने की दिलचस्पी भी ख़त्म हो चुकी है .सच कहें तो किसी कूड़े की ढेर में या गोदाम में जाने जैसा लगता है .वैचारिक संभावना की दृष्टि से तो पहले भी यह देश उसर जैसा ही था ; अब तो और पक्षाघात का शिकार हो चला है .उनके यहाँ से प्रकाशित ज्यादातर लेखक अपनी पूर्वाग्रही वैचारिकी के कारण मुर्खतापूर्ण हैं .उनकी संभावनाएं समाप्त हो चुकी हैं .
                    कुछ पीछे जाकर देखें तो एक ज़माना था जब नामवर सिंह जांचकर घोषित कर देते थे और उस व्यक्ति को बड़ा लेखक मान लिया जाता था .अब वे भी बूढ़े और शिथिल हो चुके हैं .उनका काउंटर भी बंद हो चूका है नए लेखकों की भीड़ भी इतनी अधिक हो चुकी है कि उनसे और अपेक्षाएं करना उनके साथ ज्यादती ही होगी .भीड़ बाजार की ओर मुड गयी है .सब अपना भाग्य लेकर जनता के पास भी नहीं जा रहे हैं .सरकारी गोदामों की ओर भेजे जा रहे हैं .इसे कोई कहना चाहे तो पुस्तकों का कारावास भी कह सकता है .फिलहाल मैं अपनी पुस्तकों के लिए किसी मगहर प्रकाशन की कल्पना कर रह हूँ .सिर्फ एक ही इच्छा है कि मेरे लिखे को अधिक से अधिक लोग जांचें और देर तक जांचें .फ़िलहाल जब तक कोई मगहर प्रकाशन नजर नहीं आता मेरी पुस्तकें आने से रहीं .मेरे दिमाग में कुछ इस तरह की ग्रंथि बैठ गयी है कि जल्दी छपना संदिग्ध और अविश्वसनीय होना है .
                       हिंदी साहित्य के इतिहास पर नजर डालेंगे तो इस वर्णवाद का ठोस ऐतिहासिक आधार भी नजर आएगा .लम्बे समय तक हिंदी साहित्य दो साहित्यिक व्यक्तियों नामवर सिंह और अज्ञेय के इर्द-गिर्द ध्रुवीकरण से निर्मित हुआ है .नामवर सिंह नें सत्ता के केंद्र को आलोचना के सम्पादक और सलाहकार के रूप में राजकमल प्रकाशन को विकसित किया था तो ; भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक लक्ष्मीचंद्र जैन से अपनी निकटता और मित्रता के आधार पर अज्ञेय नें तारसप्तक और सप्तकों की श्रंखला के आधार पर ज्ञानपीठ के प्रकाशन को अपने छवि -निर्माण से जोड़ा था..इन दोनों के प्रभामंडल को आधार बना कर हिंदी साहित्य का प्रतिमानीकरण प्रकाशकों को केंद्र में रखकर ब्राण्डवाद का पर्याय बन गया .स्थिति कुछ वैसी ही हो गयी जैसे काशी और काबा न जाने वाले धार्मिकों की होती है .अगर इन दोनों जगहों से न छपे तो मान्यता -प्राप्त साहित्यकार ही नहीं बन पाए .इन्हें हिंदी साहित्य के तथाकथित ' आई एस आई 'एवं 'आई एस ओ' मार्क के रूप में देखा जा सकता है .इस विश्व राजनीति में अमेरिका और सोवियत रूस के शीत युद्ध की तरह हिंदी प्रकाशन जगत में इसके दुष्प्रभाव को राजेंद्र यादव नें नजदीक से महसूस किया था . उनका अक्षर प्रकाशन जो आगे चलाकर धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान के बंद होने के पश्चात् हंस पत्रिका के प्रकाशन का आधार बना -उन्होंने इसी प्रतिरोध को ध्यान में रखकर शुरू किया था .फिलहाल .इस ध्रुवीकरण नें हिदी प्रकाशन जगत में ब्राण्डवाद या प्रतिमानीकरण का दो मंच दिया था .जैसे भारत में बहुत दिनों तक सडकों पर सिर्फ अम्बेसडर कार ही दौड़ती रही ,कुछ वैसी ही हैसियत इन साहित्यिक प्रकाशकों की रही .इन संस्थानों से जो भी छपे वे प्रायः महत्वपूर्ण साहित्यकार मान लिए गए .अब तो अपनी पुरानी शाख से ही वे नए साहित्यकारों को स्थापित करने के लेखक प्रक्षेपक केंद्र बन गए हैं .एक और महत्वपूर्ण बात यह लगती है कि जैसे दरियागंज में विदेशी सामानों का अद्यतन देशी संस्करण खूब बिकता है ,वैसे ही ही दिल्ली में विचारधारा और साहित्यिक प्रवृत्तियों का भी बहुत बड़ा चोर -मार्केट है .इस दृष्टि से दिल्ली के प्रोफ़ेसर ,पत्रकार और साहित्यकार सभी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं .
              .साहित्यिक प्रभाव की दृष्टि से देखें तो कभी नामवर और अज्ञेय तथा राजकमल और भारतीय ज्ञानपीठ में छवि निर्माता की भूमिका वाले इस विज्ञापक ध्रुवीकरण नें साहित्य की सृजनात्मक विविधता का विनाश ही कर दिया .इतने अधिक जुड़वा पैदा किए कि पाठक हिंदी साहित्य को पढ़ना छोड़ कर लोकप्रिय उपन्यासों और फिल्मो की और स्थानांतरित हो गया .आर्थिक आलोचना की दृष्टि से देखें तो साहित्य के बाजार को हर्षद मेहता की तरह बड़ी पूंजी से नियंत्रित करने का भी यह इतिहास रहा .कोई भी देखा सकता है कि राजेंद्र यादव के उकसावे से ही आगे का इतिहास अपनी नयी दिशाएं तलाश सका .इन दो गुटों का प्रवृत्यात्मक अवशेष अब भी प्रेतछाया के रूप में या मनोवैज्ञानिक पूर्वाग्रह के रूप में -उनकी दूसरी पीढ़ी के के माध्यम से देखा और महसूस किया जा सकता है .यहाँ ठहर कर अपनी शराबी उदारता और खुलेपन के लिए रवीन्द्र कालिया की प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने इस अर्थ में भारतीय ज्ञानपीठ को विस्तार दिया कि भारतीय ज्ञानपीठ की आकाशीय श्रेष्ठता का पूर्वनिर्मित बाँध तोड़कर पर्याप्त समतलीकरण और विस्तार किया .इससे नयी पीढ़ी को पर्याप्त महत्ता मिली .यद्यपि यह महत्ता रूचि और सम्बन्ध -दोष से दूषित हो सकती है -लेकिन राजनीति से कांग्रेस के बाहर होने की तरह हम इस बात पर खुश हो सकते हैं कि अब साहित्य में प्रतिमान का कोई भी पहाड़ नहीं बचा .अब सिर्फ बाजार है सांठ -गाँठ है .यद्यपि इधर हिंदी में आधार ,नयी किताब ,अंतिका ,अनामिका,सामायिक ,ग्रन्थ शिल्पी,शिल्पायन ,मेधा और प्रतिश्रुति आदि प्रकाशनों नें वैकल्पिक सार्थक मंच उपलब्ध कराए हैं ; लेकिन अभी भी वे पूर्व-निर्मित पूर्वाग्रहों को कितना तोड़ पाए हैं -कहना मुश्किल है .