सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

माओं का सृजन-लोक

सम्पूर्ण सृष्टि में माँ का स्थान बहुत ऊंचा है . सच तो यही है कि जीवन और मृत्यु के आर-पार फैले हुए रिश्ते का नाम ही है माँ .माँ  सिर्फ  हमारे  अस्तित्व की ही नहीं बल्कि हमारी सामाजिकता की भी जननी हैं . किसी भी प्राणी का अपनी माँ और उसकी संतान के बीच का अटूट रिश्ता ,उसके जन्म के पहले ही उसके गर्भकाल से ही शुरू हो जाता है .हर प्राणी के लिए यह समय भी उसके अचेतन-अविकसित अस्तित्व को सुरक्षा का अव्यक्त अहसास सौंपता है .
        मैं कभी –कभी मौज में ऐसा भी सोचता हूँ कि बच्चे अपनी माँ से डर न जाएँ ऐसा सोचकर ही प्रकृति नें स्त्रियों को दाढ़ी नहीं दी होगी . इसके विपरीत पुरुषों को इसलिए दाढ़ी दी होगी कि वह दूसरे प्रजाति के पशुओं और यहाँ तक कि बबर शेरो को भी डरा सके .एक प्रजाति के जैविक अस्तित्व को संभव करने से लेकर उसके संरक्षण तक के समस्त दायित्व प्रकृति नें स्त्री जाति को ही मुक्त होकर सौंपे हैं .यहाँ तक कि दुनिया के सभी महापुरुष दया ,ममता ,करुणा आदि स्त्रियोचित गुणों से समृद्ध होने के कारण ही महापुरुष बन पाए .अन्यथा पुरुष हारमोन का चरित्र, स्वभाव और प्रभाव तो हिंसक ही है .उसे संभवतः प्रकृति नें अपनी प्रजाति की रक्षा के लिए लड़ने और मरने के लिए ही बनाया है –जैसा कि पशु-जगत  में भी देखा जाता  है .
बंदरिया माँ के लिए तो लोक में यह मान्यता और कहावत ही है कि बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को भी सीने से लगाए हुए  घूमती है . माँ के वात्सल्य के लिए एक दृष्टान्त ही बंदरिया का दिया जाता  है , स्तनधारियों के अतिरिक्त अंडज –जिनमें सरीसृप और पक्षी-वर्ग दोनों ही शामिल हैं; माता को अपनी संतति रक्षा में जिसप्रकार संलग्न देखा जाता है –वह ममता और मातृत्व के मामले में कई बार मानवी माओं को भी पीछे छोड़ने वाला होता है .
       यद्यपि अपनी प्रजाति की चिंता तो सभी जातियों के नरों में भी पाई जाती   है लेकिन तुलना में गर्भधारण से लेकर स्तनपान करने और  शैशव की असहायावस्था से निकलकर वयस्क बनने तक माँ की भूमिका, पिता की भूमिका से कुछ अधिक ही गहरी और निर्णायक होती है . वैसे भी अपनी सौ वर्ष लम्बी आयु और लगभग बीस वर्ष के लम्बे विकासकाल के साथ मनुष्य का बचपन कुछ अधिक और पर्याप्त लम्बा अभिभावकीय संरक्षण मांगता है .
          पशु जगत में भी  लकडबग्घों और हाथियों का परिवार तो माँ-प्रधान ही होता है . दरअसल सामाजिकता का आधार भी माँ और संतान के बीच के रिश्ते हैं .  विद्वानों की यह भी धारणा है कि आदिम मानव का परिवार भी मातृ-प्रधान समाज ही रहा होगा . मार्क्स के अनुसार तो पूँजी और संपत्ति के विकास नें ही मानव-सभ्यता को पुरुष-प्रधान समाज में बदल दिया .संतान की उत्पत्ति और उसके पालन में लगी रहने के कारण स्त्री जाति पिछड़ती चली गयी .इसके बावजूद परिवार संस्था की पुरातन संरचना में स्त्री का केन्द्रीय महत्त्व मध्यकाल में भी सुरक्षित ही रहा है .
         संतानों के पालन-पोषण में मातृ-मात्र का निवेश शरीर से लेकर मन और आत्मा के स्तर तक देखा जा सकता है . गर्भधारण से लेकर दुग्धपान तक तो माँ की देह का ही आश्रय है .यद्यपि पशुपालन के साथ इस आश्रय का वृत्त गाय माता से लेकर भैंस मौसी तक और उससे भी आगे मातृभूमि तक भी चला गया है .इस तरह सारी पृथ्वी ही हमारी माँ है .यह जननी महाभाव का विस्तार है .’जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” का भाव-आधार भी यही है . यद्यपि पुरुष-प्रधान आध्यात्म ममता-मोह की काफी भर्त्सना करता  है ; लेकिन सच्चाई यही है कि स्त्री ही सारी सृष्टि  के जैविक अस्तित्व ,समुदाय और सामाजिकता का भी आधार  है . मध्यकालीन भारतीय समाज ममत्व का जिसप्रकार निष्ठुरता की सीमा तक भर्त्सना करता रहता था वह मानवीय दृष्टि से उचित नहीं था.यह मुझे उसी प्रकार वास्तविक सत्य को छिपाने और भ्रमित करने वाला लगता  है ,जैसा कि भिक्षा और दान माँगने वाला भिक्षा देने वाले को सब कुछ को मिटटी और व्यर्थ होने का उपदेश देता  है . इस तथ्य और सत्य को छिपा कर कि यदि सब व्यर्थ है तो तुम मांग क्यों रहे हो भाई . दरअसल गृहस्थ ही सभी धार्मिक व्यापारों का भी आधार है और गृह का केंद्र है नारी का मातृ रूप . उसी को केंद्र में रखकर सभ्यता की संपूर्ण ईकाइयों का विकास हुआ है .
     वस्तुतः मानवीय चेतना सामान्यीकरण और विशेषीकरण के दो सीमांतों को स्पर्श करते हुए प्रवाहित होती है . इसे व्याकरण की भाषा में जातिवाचक संज्ञा और व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते हैं . जातिवाचक संज्ञा हमारे सामान्य बोध की उपज है और व्यक्तिवाचक संज्ञा हमारे विशेष बोध की उपज . यह देखा जाता है कि जंगल में पशुओं के बच्चे भी अपनी माँ की विशेष पहचान रखते हैं . यह विशेषता मानव-शिशुओं में भी होती है . वे अपनी माँ और दूसरी स्त्री में फर्क करने लगते हैं . अपरिचित स्त्री चहरे को देखकर शिशुओं का रोने लगना बोध के विशेषीकरण से ही संभव होता है . श्रीकृष्ण की कथा में तो  शिशु श्रीकृष्ण अपरिचित स्तन को देखकर ही उन्हें विषाक्त दूध पिलाने आयी पूतना को दांत गड़ाकर मार ही डालते हैं .यह दूसरी बात है कि पूतना शब्द भी प्रतीकात्मक और सांकेतिक है और वह संतानहीन स्त्रियों में मिलने वाले ईर्ष्या-भाव के प्रति ही हमें सजग करता है . अपने पुत्र-प्राप्ति के लिए दूसरे के पुत्रों की बलि जैसी घटनाएँ तो पिछड़े समुदायों से आज भी सुनने को मिलती हैं .
       मुझे तो श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व का मनोवैज्ञानिक रहस्य भी जन्म देने वाली देवकी माँ से अलग यशोदा माँ के त्यागपूर्ण मातृत्व में ही दिखता है . कहते हैं कि इस दम्पति नें श्रीकृष्ण को बचाने के लिए अपनी नवजात पुत्री ही कंस के हाथों में सौंप दी थी . सिर्फ देवकी के श्रीकृष्ण तो एक सामान्य राजपुत्र बनकर ही रह जाते लेकिन श्रीकृष्ण का सामान्य प्रजा में से एक लोक- माँ यशोदा का पुत्र होना भी उन्हें लोक से न सिर्फ जोड़ता है बल्कि ऐसा ऋणी बना देता है कि वे जीवन भर उसका कर्ज उतारते हुए ही भगवान की कोटि तक पहुँच जाते हैं . मैं यहाँ जानबूझकर उन्हें पुराणों की तरह पहले से भगवान मानकर नहीं चल रहा हूँ .क्योंकि उन्हें भी भगवान होना प्रमाणित करने के लिए जीवन भर परीक्षा देनी पड़ी थी .यह परीक्षा लोक नें ली थी ,कंस नें ली थी और अंत में उन्हें ग्वाल कहने और समझने वाले दुर्योधन नें भी ली थी . श्रीकृष्ण इसीलिए दिव्य शिशु हैं कि वे दो माओं का मातृत्व पाने और जीने वाले असामान्य शिशु हैं . यह असामान्यता ही उनकी विशिष्टता है .यही सौभाग्य ही उन्हें लोकोत्तर और दिव्य शिशु बनाता  है . वे नन्द गोप के पूरे कबीले द्वारा संरक्षित और पाले गए शिशु हैं . वे ब्रज की संपूर्ण महिलाओं द्वारा स्नेह-सिंचित शिशु हैं . यह तथ्य आज भी देखा जा सकता है कि जिन शिशुओं को अधिक से अधिक हाथों में पलने और स्नेह पाने का अवसर मिलता है –वे तुलना में उन शिशुओं से अधिक सामाजिक होते हैं जिन्हें सिर्फ अपनी माँ का ही स्नेह मिला होता है .
       दो माओं का मातृत्व पाने वाले श्रीकृष्ण की तुलना में अपनी आँखों पर पट्टी बांधने वाली गांधारी के असामान्य मातृत्व नें जिस जिद्दी और खलनायक संतान का विकास किया वह दुर्योधन है . कल्पना किया जा सकता है कि गांधारी नें कभी अपने शिशु की आँखों में झांक कर देखा ही नहीं होगा . दुर्योधन मातृत्व की दृष्टि से एक अभिशप्त ,दुर्घटनाग्रस्त और लावारिस बच्चा ही था .  माली यदि अपने लगाए उपवन से उदासीन हो जाए तो वह उपवन एक दिन वन में बदल जाएगा . अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर गांधारी माँ नें चाहे अपने पतिव्रता होने का असाधारण  आदर्श उपस्थित किया हो लेकिन उसके उस आदर्श में उसके पुत्र के लिए जगह नहीं थी .ऐसे मातृ-स्नेह से वंचित अतृप्त शिशु को एक दिन दुर्योधन ही होना था . मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करने पर भीष्म का शैशव भी ऐसा ही विकलांग शैशव है . यद्यपि अपने पूर्व शिशुओं की हत्या से क्षुब्ध शांतनु अपनी प्रेयसी गंगा को शिशु भीष्म को नहीं मारने देते . गंगा उन्हें पालती भी हैं लेकिन एक हठधर्मी क्रूरता का माँ से मिला उत्तराधिकार ,युवा पुत्र की चिंता करने के स्थान पर स्वयं के प्रेम को जीने वाले पिता के प्रति वितृष्णा (याद करें सत्यवती और शांतनु का वह प्रसंग जिसकी शर्तों को पूरा करने के लिए भीष्म को आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा करनी पड़ी) तथा गंगा जैसी माँ ; जो भीष्म को शांतनु को सौंपने के बाद कभी उनकी जिंदगी में वापस लौटी ही नहीं – भीष्म की प्रतिज्ञा भी अपने भाइयों की हत्यारिन एवं उदासीन माँ के प्रति उसी प्रकार अनुभव जन्य घृणा एवं विरक्ति का परिणाम है जैसा कि राम नें कभी तीन रानियों वाले पिता दशरथ के पारिवारिक जीवन का हश्र देखकर सिर्फ एक ही पत्नी से संतोष किया – यहाँ तक कि अपनी इकलौती पत्नी सीता को गवां कर भी दूसरी शादी का दृष्टान्त उपस्थित नहीं किया . इस तरह वे एकल दांपत्य के प्रेरक और प्रवर्तक आदर्श पूर्वज बनें . राम का चरित्र भी अपनी माँ कौशल्या के चरित्र की तरह ही अंतर्मुखी और दूसरों के जीवन में अनुचित हस्तक्षेप न करने वाला है . इससे भी माँ की महत्वपूर्ण भूमिका का पता चलता है .
     रामकथा के अनुसार राम को बचपन में ही विश्वामित्र द्वारा मांगे जाने पर पिता दशरथ ही नहीं बल्कि अपनी माँ कौशल्या से भी दूर जाना पड़ा था . आगे चलकर सीता के त्याग और शम्बूक वध के प्रसंग में राम में जो चारित्रिक क्रूरता और संवेदनहीनता मिलती है ,उसका सम्बन्ध असमय तोड़े गए पुष्प की तरह माँ से कम आयु में ही अलग कर दिए गए राम के इसी वात्सल्य कुपोषण में मिलता है .स्वाभाविक है कि अपनी माँ के बिना जीना सीख लेने वाला बच्चा वयस्क होने पर अपनी पत्नी सीता के बिना भी जी सकता  है .
           स्पष्ट है कि माँ सिर्फ धरती की प्रतीक और उसकी प्रतिनिधि ही नहीं है बल्कि उसका गुण-धर्म ,प्रभाव और महत्त्व भी धरती के सामान ही हैं .जैसे धरती का उचित पोषण एक स्वस्थ पौधे का विकास करता है उसीप्रकार माँ के स्नेह एवं स्वस्थ मातृत्व की छत्रछाया में ही स्वस्थ मनुष्य का विकास होता है .आधुनिक असामान्य मनोविज्ञान भी यह मानता है कि व्यक्ति जो कुछ भी बनता है उसके पीछे उसके बचपन के रिश्तों और संबंधों के स्वरूप से निश्चित सम्बन्ध होता है . सभी अपराधी बचपन में अपनी माँ द्वारा उपेक्षित संताने ही हैं ,चाहे यह कुपोषण अधिक संतानों की भीड़ के कारण ही क्यों न हुआ हो . कौरवों के बुरा और लड़ाकू होने का यह भी एक मनोवैज्ञानिक कारण रहा होगा . आखिर सौ पुत्रों की भीड़ कोई कम तो नहीं होती ! 

शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

त्रिलोचन

मैंने भी कवि त्रिलोचन को जिया है
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सीधा-सादा कवि किसान-छवि
कवियों के मुखिया जैसा
कविता की पगडंडी पर हो पैदल चलता
जीवन के सच्चे टुकड़ों से कविता बुनता
इतना सहज कि कभी कहीं से कवि न लगता
कवियों के बीच शुद्ध सच्चाई जैसी
सच्चे कवि प्रिय त्रिलोचन की कमाई ऐसी....

( बांदा में आयोजित केदार सम्मान कार्यक्रम में दो दिनों तक मैंने उन्हें जिया था.
उनके काव्य में बहुत सी छवियाँ उनके ननिहाल (डोभी क्षेत्र,जौनपुर) की भी थी,
इसे उन्होंने बातचीत में स्वीकार किया था.
मैं उनके ननिहाल का हूँ यह जानकर वे अति प्रसन्न हुए थे)

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

महानता

पहली बार महान आते हैं स्वतःस्फूर्त
प्रतिरोधी समय से संघर्ष करते और उसे जीतते हुए
दूसरी बार आते हैं महानता के विशेषज्ञ
तीसरी बार महानता के प्रायोजक
चौथी बार महानता के विपणक
पांचवी बार आते हैं महानता के विक्रेता
फिर महानता घर-घर पहुँच जाती है
उसके बाद
बार-बार आतेे हैं
आते ही रहते हैं महानता के नकलची
महानता का शास्त्र रच दिए जाने के बाद ....

शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

भगदड़

उनके सोचने के सारे दरवाजों पर
लगे हुए थे दूसरों के ताले
उनके निकालने के सारे रस्ते बंद कर दिए गए थे ....

उनसे  छीन लिया गया था उनका चेहरा
उनकी निरीह  सामाजिकता  को
एक बड़ी भीड़  के रूप में वापस सौंपकर
उतर दिया गया था बाजार  की सडकों पर
एक जैसे लिखे गए नाम और तख्तियों के साथ ....

भगदड़  के बाद भी
कुचले जा चुके लोगों के हाथ में
सही-सलामत पड़ी  थीं  जो .

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016

असभ्य भाषा और असमानतावादी वैचारिकी का सामाजिक तंत्र

हिंदी समाज की सबसे बड़ी समस्या मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो वह वनमानुष या औरंगउटान है जो जब तब हमारी बोलचाल की भाषा में हमारी अचेतन आदत का हिस्सा बना बाहर आ ही जाता है . भाषा का सबसे असभ्यतम हिस्सा उन गालियों का है.जो स्त्री जाति की लैंगिक समानता और सम्मान पर आधारित न होकर असमानता और अपमान पर आधारित हैं. उनमें कुछ ऐसा अचेतन छिपा है जैसे स्त्री होना दूसरे दर्जे का नागरिक होना है और अपमान की विषय-वस्तु है.भाषा में शब्दों के बाद भेद-भाव वाली भाषा की अभियांत्रिकी व्याकरण के स्तर पर मिलती है.प्राचीन काल जब भारत में स्त्री-पुरुष असमानता का भेद-भाव बहुत नहीं था तब भाषा भी बहुत विभेदकारी नहीं थी और राम तथा सीता दोनों के साथ 'गच्छति लग सकता था. मध्यकाल में इस्लाम के भेदकारी संस्कार नें राम और सीता को अलग-अलग 'जाता-जाती' कर दिया.
हिंदी में भाषिक असमानता,अपमान और अमानवीयता का सर्जक कबाड़ जातीय पूर्वाग्रहों के प्रचारक शब्दों में भी छिपा है.जिसे मानसिक रूप से कुछ पिछड़े लोग लज्जित होने के स्थान पर समूह-आपराधिक ढंग से अगड़ा होने का साधन समझते हैं.क्योंकि कुछ लोग ऐसी अनैतिक विरासत से असभ्यी सुख-लाभ करना चाहते हैं .इसलिए अवैध हथियारों की तरह उनका इश्तेमाल करना गर्व की वस्तु समझते हैं. राजनीति के अतिरिक्त भाषा ही इस विषमता की सबसे सशक्त प्रचारक है. ये वर्जित, निन्दित और घृणित शब्द यथार्थ में तो नहीं किन्तु आभासी रूप में असमनातावादी श्रेष्ठता का भ्रम सृजित करते रहते हैं.
यह दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य है कि एशियाई मूल कीहिन्दू और मुसलमान दोनों ही जातियों के धर्म अन्त:;उपस्थित पुरोहितवादी सामूहिक अचेतन के कारण अपनी जाति और व्यक्ति केन्द्रित महिमामंडन के सांप्रदायिक प्रयास में सम्पूर्ण मानव-जाति की सृजन और अस्तित्वपरक संभावनाओं का मजाक उड़ाते हैं और उनकेप्रति अनास्था व्यक्त करते हैं.बहुत से लोग जो पिछले ज़माने के आध्यात्म के सामंती पृष्ठभूमि को नहीं समझ पाते वे नहीं समझ पाते कि उनके आध्यात्म का भी कोई आपराधिक चेहरा हो सकता है और वह उनके महान ईश्वर को ही अप्रतिष्ठित करता है .उदहारण के लिए शूद्र भी एक आध्यात्मिक श्रेष्ठता की अवधारणा का ही अवधारणात्मक और वैचारिक प्रति-पक्ष है. ईश्वर के नाम पर विकसित यह जातीय दंभ भी दूसरों में हीनता का प्रचार कर स्वयं को अनैतिक रूप से महिमा-मंडित करता है. हिदुत्व केसाथ-साथ इस्लाम भी ऐसी ही आध्यात्मिकता को लेकर मानवता विरोधी होने का अभिशाप झेल रहा है..हिन्दुओं में जहाँ सत्य (और ईश्वर को भी ) को जाति का बंधुआ बनाया गया है वहीँ इस्लाम सिर्फ एक ही महान व्यक्ति की गवाही पर आधारित है .इस अवधारणा में किसीदूसरे मनुष्य की संभावित महानता का निषेध भी छिपा है. मेरी दृष्टि में यह संरचना श्रद्धेय के परिवार की पुरोहितीय पृष्ठभूमि के कारण ही है.जिसके कारण भावी मानव जाति के भी किसी भी मनुष्य की ईश्वर से साक्षात्कार की सैद्धांतिक गुंजाइश नहीं बचती. मेरा मानना है कि व्यक्तिगत रूप से कोई कितना भी बुद्धिमान हो ले उसे अपनी बुद्धिमानी की सृष्टि के लिए और भविष्य की बुद्धिमानी के लिए भी मानवजाति की सृजनात्मक संभावनाओं पर आस्था रखनी ही चाहिए. किसी एक व्यक्ति की तुलना में सम्पूर्ण मानव-जाति अधिक श्रद्धास्पद और महिमाशाली अस्तित्व है.
हिंदी में मिलने वाले बहुत से अपशब्द तो आध्यात्मिक मूल के धातु एवं अर्थों को छिपाए हुए हैं- जैसे चूतिया शब्द को ही लें तो इसके पीछे संस्कृत का च्युत शब्द है जिसका अर्थ है गिरा हुआ या पतित लेकिन अर्थ-परिवर्तन से यह आध्यात्मिक पतन कराने वाली स्त्री से जोड़ दिया गया है . इसी तरह दो- तीन दिन पूर्व मेरे एक अभिन्न मित्र नें मेरे शब्द - ज्ञान में यह कहकर इजाफा किया कि जिस छक्का को मैं छ: से बना मानता हूँ वह अपने पीछे हिजड़े का अर्थ भी छिपाए हुए है . यह सच है कि इस अर्थ के लिए भी हिंदी समाज ही जिम्मेदार है - लेकिन यदि ऐसा एक असभ्य समाज नें दिया है तो हमें उसके प्रचलन का निषेध करना चाहिए. लेकिन इस ज्ञानार्जन में एक बात मुझे खटकी. वह यह कि जैविक हीनता याजीनेटिक विकृति के शिकार किसी लैंगिक विकलांग को उसकी हीनता के लिए इसप्रकार अपमानित करना चाहिए जिस प्रकार हिजड़ा शब्द का प्रयोग करते हुए हम करते हैं. मित्र में भी मुझे हिजड़ा को हिकारती दृष्टि से देखने वाला परंपरागत असावधान मध्ययुगीन अचेतन व्यक्तहोता दिखा .
मुझे अष्ट्रावक्र ऋषि याद् आए जिन पर जनक के दरबार में उनकी विकलांगता पर हंसा गया था और उन्होंने प्राकृतिक विकलांगता पर हंसने वालों को मूर्ख कहा था . अपने एकाक्षी होने पर हंसने या उपहास करने वालों को जायसी ने भी ठीक नहीं माना . उनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं - मोहि पर हंसहु या हंसहु कुम्हारहू. अर्थात तुम मुझ पर हंस रहे हो या मुझको बनाने वाले कुम्हार पर !
यही सोचकर मैंने अपनी एक कविता में जो' नया-ज्ञानोदय में प्रभाकर श्रोत्रिय जी के समय छपी थी नपुंसक लिंगियों के लिए' अंतज' शब्द प्रस्तावित किया था- जिसका तात्पर्य था सबसे अंत में पैदा होने वाला. क्योंकि उनसे वंश - परंपरा आगे नहीं चल पाती इस लिए उन्हें अंतज कहा था. अन्यथा एक मनुष्य के रूप में जीवित उपस्थिति तो वे भी हैं ! हम एक संवेदनशील मानवीय समाज की रचना से कितने दूर हैं अब भी?

रामप्रकाश कुशवाहा
१२.१०.१६