इतिहास में बहुत सी घटनाएँ ऐसी घटी हैं जैसी नहीं घटनी चाहिए थीं.युद्ध और हत्याएं तो आज भी नहीं होनी चाहिए. मानव जाति की एक विशेषता है कि वह जीवित लोगों के पक्ष में मृत लोगों को विस्मृत कर देती है. कुछ ऐसे कि जैसे जीवित रहना अपने आप में सही होने का एक पक्ष हो.हारे हुआ के वंशज भी पराजय बोध की हीनता से बचने के लिए चुप होने लगते हैं. कभी-कभी तो हराने वालों के वंशज भी हराने वालों की ओर से हराने का जश्न मनाने लगते हैं. ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि ऐसी घटनाओं को दो इंसानों या मानव-समूहों के बीच युद्ध केरूप में देखें .कुछ लोग कुछ इस तरह रागात्मक जुडाव अनुभव करने लगते हैं कि लगता है कि लड़ने,हारने और जीतने वाले कोई और नहीं स्वयम वे ही हैं.हम जबतक अतीत की घटनाओं को उचित दूरी से नहीं देखेगे स्वयं ही एक पक्ष बन जाया करेंगे. इतिहास की पुरानी गलतियाँ दुहरायी जाति रहेंगी.इसलिए सब से अधिक जरुरी है इन्सान को इन्सान के रूप में देखना.ताकि हम स्वस्थ मानवीय संबंधों वाला नया इतिहास बना सकें.इतिहास में बहुत सी घटनाएँ ऐसी घटी हैं जैसी नहीं घटनी चाहिए थीं.युद्ध और हत्याएं तो आज भी नहीं होनी चाहिए. मानव जाति की एक विशेषता है कि वह जीवित लोगों के पक्ष में मृत लोगों को विस्मृत कर देती है. कुछ ऐसे कि जैसे जीवित रहना अपने आप में सही होने का एक पक्ष हो.हारे हुआ के वंशज भी पराजय बोध की हीनता से बचने के लिए चुप होने लगते हैं. कभी-कभी तो हराने वालों के वंशज भी हराने वालों की ओर से हराने का जश्न मनाने लगते हैं. ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि ऐसी घटनाओं को दो इंसानों या मानव-समूहों के बीच युद्ध केरूप में देखें .कुछ लोग कुछ इस तरह रागात्मक जुडाव अनुभव करने लगते हैं कि लगता है कि लड़ने,हारने और जीतने वाले कोई और नहीं स्वयम वे ही हैं.हम जबतक अतीत की घटनाओं को उचित दूरी से नहीं देखेगे स्वयं ही एक पक्ष बन जाया करेंगे. इतिहास की पुरानी गलतियाँ दुहरायी जाति रहेंगी.इसलिए सब से अधिक जरुरी है इन्सान को इन्सान के रूप में देखना.ताकि हम स्वस्थ मानवीय संबंधों वाला नया इतिहास बना सकें.
एक और बात यह है कि मध्यकालीन राज्य-व्यवस्था वंशानुगत होते हुए भी उनके पीछे कोई न कोई समूह रहता था.कहीं न कहीं वे समूह और उनके वंशज आज भी हैं .इसीलिए चीजें संवेदनशील हो जाती हैं. राणाप्रताप और अकबर का युद्ध भी ऐसी घटनाओं में से एक है.कभी-कभी लगता हैकि राणाप्रताप अगर नहीं लड़ते तो मानसिंह वाला रिश्ता हिन्दू-मुसलमानों को और समीप लाता.लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ऐसा करना अकबर और मानसिंह के हाथ में भी नहीं था.सबसे पहले तो मृत्यु-संस्कार की बिलकुल भिन्न रूढ़ियाँ हिन्दू और मुसलामानों को दो अलग समुदायों में बांटती हैं.फिर हिन्दू धर्म जातीय होने से जब तक ब्राह्मण जाति अकबर को क्षत्रिय मानकर उससे अपने ढंग का पूजा करवा कर भरपूर दान-दक्षिणा नहीं लेती तब तक अकबर को क्षत्रिय राजा नहीं मान सकती थी,इस जाति के पास असहमत लोगों को सिर्फ शूद्र मान लेने का ही जातीय बोध है.यदि उनका बस चलता तो अकबर को भी शूद्र राजा मानकर हिन्दू धर्म में शामिल कर लेते.या फिर आग-पानी पत्थर आदि किसी के भी कुल का घोषित कर देते..राणाप्रताप नें भी अकबर को संभवतःसांस्कृतिक रूप से स्वीकार नहीं किया था.इस दृष्टि से वे पूर्वज (मध्यकालीन)भाजपाई कहे जा सकते हैं.इसके बावजूद उन्हें अपनी प्रजा के शासक के रूप में स्वतन्त्र रहने का अधिकार था.वे दूसरे व्यक्ति और समूह की अधीनता क्यों स्वीकार करते. वे अपनी स्वतंत्रता की भावना के लिए सम्माननीय हैं .इतिहास का अनुभव हमें बताता हैकि कभी-कभी सारी दुनिया गलत हो सकती है और सिर्फ एक व्यक्ति सही.मैं किसी के पक्ष के सही-गलत का निर्णय बहुमत के आधार पर नहीं करना चाहता.
एक और बात यह है कि मध्यकालीन राज्य-व्यवस्था वंशानुगत होते हुए भी उनके पीछे कोई न कोई समूह रहता था.कहीं न कहीं वे समूह और उनके वंशज आज भी हैं .इसीलिए चीजें संवेदनशील हो जाती हैं. राणाप्रताप और अकबर का युद्ध भी ऐसी घटनाओं में से एक है.कभी-कभी लगता हैकि राणाप्रताप अगर नहीं लड़ते तो मानसिंह वाला रिश्ता हिन्दू-मुसलमानों को और समीप लाता.लेकिन ध्यान से देखने पर पता चलता है कि ऐसा करना अकबर और मानसिंह के हाथ में भी नहीं था.सबसे पहले तो मृत्यु-संस्कार की बिलकुल भिन्न रूढ़ियाँ हिन्दू और मुसलामानों को दो अलग समुदायों में बांटती हैं.फिर हिन्दू धर्म जातीय होने से जब तक ब्राह्मण जाति अकबर को क्षत्रिय मानकर उससे अपने ढंग का पूजा करवा कर भरपूर दान-दक्षिणा नहीं लेती तब तक अकबर को क्षत्रिय राजा नहीं मान सकती थी,इस जाति के पास असहमत लोगों को सिर्फ शूद्र मान लेने का ही जातीय बोध है.यदि उनका बस चलता तो अकबर को भी शूद्र राजा मानकर हिन्दू धर्म में शामिल कर लेते.या फिर आग-पानी पत्थर आदि किसी के भी कुल का घोषित कर देते..राणाप्रताप नें भी अकबर को संभवतःसांस्कृतिक रूप से स्वीकार नहीं किया था.इस दृष्टि से वे पूर्वज (मध्यकालीन)भाजपाई कहे जा सकते हैं.इसके बावजूद उन्हें अपनी प्रजा के शासक के रूप में स्वतन्त्र रहने का अधिकार था.वे दूसरे व्यक्ति और समूह की अधीनता क्यों स्वीकार करते. वे अपनी स्वतंत्रता की भावना के लिए सम्माननीय हैं .इतिहास का अनुभव हमें बताता हैकि कभी-कभी सारी दुनिया गलत हो सकती है और सिर्फ एक व्यक्ति सही.मैं किसी के पक्ष के सही-गलत का निर्णय बहुमत के आधार पर नहीं करना चाहता.
यह ठीक है कि राणा प्रताप आज के राष्ट्रवाद के लिए आदर्श नायक न रह कर सिर्फ जातीय नायक होने तक सिमट कर रह गए हैं.लेकिन आप जैसे विद्वान् को इतिहास के साथ छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए..उन्होंने अकबर के विस्तारवादी आक्रमण का विरोध किया था.अकबर पर आक्रमण तो नहीं किया था.अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए संघर्ष किया था.जब लडे थे तब मुसलमान सत्ता भारत के लिए विदेशी ही थी.इस बात को मुसलमान भी अस्वीकार नहीं करेंगे.यद्यपि आज की सांप्रदायिक एकता की दृष्टि से वे एक प्रासंगिक और उपयोगी नायक नहीं रह गए हैं . फिर भी एक शानदार व्यक्ति के रूप में उनका सम्मान तो अकबर भी करता रहा होगा . आप क्यों नहीं करना चाहते ! मार्क्सवादी दृष्टिकोण से भी मूल्यों का विकास सामन्त-युग में ही हुआ. कुछ नहीं तो जिन्दा रहने के लिए घास की रोटी खाने के वैकल्पिक अविष्कार का श्रेय तो राणाप्रताप को दे ही सकते हैं.इतनी घास और पेड़ों के होते हुए भुखमरी से जो मौते होती हैं वह तो नहीं होती.आखिर बन्दर तो जी ही लेते हैं.इसे हीआज के राजनीतिज्ञों के लिए उनका अवदान समझिए .
अकबर को राणाप्रताप से विस्थापित किया ही नहीं जा सकता ऐसा करना ठीक नहीं है. अकबर नें भी राणाप्रताप के सह-अस्तित्व को स्वीकार कर लिया था और उनका पुत्र भी राजा बना था.
राणाप्रताप पर सोचते हुए जब मैं अकबर की पत्नी जोधाबाई के भाई,आमेर के राजा मान सिंह के बारे में सोचता हूँ जिसके साथ भोजन करने से इनकार कर राणाप्रताप नें हल्दीघाटी का युद्ध मोल ले लिया था -इस दृष्टि से हल्दीघाटी का युद्ध वस्तुतः दो राजपूत घरानों के बीच विचारधारा आधारित युद्ध था.राणाप्रताप का पक्ष आम रूढ़िवादी हिन्दू जनता का पक्ष था तो मानसिंह का पक्ष प्रगतिशील हिन्दू जनता का.राजा मानसिंह को एक विचारक के रूप में देखने पर उसका व्यक्तित्व मुझे अबोध एवं मानवतावादी विचारधारा तथा वसुधैव कुटुम्बकम में विशवास रखने वाला भारतीय मन लगता है. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उस परिवार ने अकबर को संप्रदाय निरपेक्ष एक मनुष्य के रूप में देखा. उसे एक राजा मानकर जोधाबाई को ब्याहा . अकबर महान की छवि रचाने में सहयोगी वही प्रगतिशील भारतीय परिवार था ..इससे हिन्दू-मुस्लिम एकता के एक नए युग का सूत्रपात हुआ. बाद के औरंगजेब और अंग्रेजों की विभेदकारी भूमिका को छोड़ दिया जाय तो आज भी उस परिवार का ही गुप-चुप निवेश ध्यान आकर्षित करता है.. लेकिन मुझे लगता है कि मध्यकाल की उस हिन्दू पहल और प्रयास के बावजूद मुस्लिम समाज की अंतर्मुखी किस्म की कबीलाई मूल की सामुदायिकता इस धर्मं के अनुयाय्यियों को सम्पूर्ण मानव-जाति का हिस्सा नहीं बनने देतीं .इस्लाम की रूढ़िवादी जड़ता औरअसम्वादी प्रकृति को देखते हुए दुनिया को इस्लाम के साथ उसी तरह जीना सीखना होगा,जैसे लोग किसी बड़ी चट्टान या पहाड़ के साथ बिना किसी अपेक्षा और शिकायत के जीते रहते हैं
अकबर को राणाप्रताप से विस्थापित किया ही नहीं जा सकता ऐसा करना ठीक नहीं है. अकबर नें भी राणाप्रताप के सह-अस्तित्व को स्वीकार कर लिया था और उनका पुत्र भी राजा बना था.
राणाप्रताप पर सोचते हुए जब मैं अकबर की पत्नी जोधाबाई के भाई,आमेर के राजा मान सिंह के बारे में सोचता हूँ जिसके साथ भोजन करने से इनकार कर राणाप्रताप नें हल्दीघाटी का युद्ध मोल ले लिया था -इस दृष्टि से हल्दीघाटी का युद्ध वस्तुतः दो राजपूत घरानों के बीच विचारधारा आधारित युद्ध था.राणाप्रताप का पक्ष आम रूढ़िवादी हिन्दू जनता का पक्ष था तो मानसिंह का पक्ष प्रगतिशील हिन्दू जनता का.राजा मानसिंह को एक विचारक के रूप में देखने पर उसका व्यक्तित्व मुझे अबोध एवं मानवतावादी विचारधारा तथा वसुधैव कुटुम्बकम में विशवास रखने वाला भारतीय मन लगता है. सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उस परिवार ने अकबर को संप्रदाय निरपेक्ष एक मनुष्य के रूप में देखा. उसे एक राजा मानकर जोधाबाई को ब्याहा . अकबर महान की छवि रचाने में सहयोगी वही प्रगतिशील भारतीय परिवार था ..इससे हिन्दू-मुस्लिम एकता के एक नए युग का सूत्रपात हुआ. बाद के औरंगजेब और अंग्रेजों की विभेदकारी भूमिका को छोड़ दिया जाय तो आज भी उस परिवार का ही गुप-चुप निवेश ध्यान आकर्षित करता है.. लेकिन मुझे लगता है कि मध्यकाल की उस हिन्दू पहल और प्रयास के बावजूद मुस्लिम समाज की अंतर्मुखी किस्म की कबीलाई मूल की सामुदायिकता इस धर्मं के अनुयाय्यियों को सम्पूर्ण मानव-जाति का हिस्सा नहीं बनने देतीं .इस्लाम की रूढ़िवादी जड़ता औरअसम्वादी प्रकृति को देखते हुए दुनिया को इस्लाम के साथ उसी तरह जीना सीखना होगा,जैसे लोग किसी बड़ी चट्टान या पहाड़ के साथ बिना किसी अपेक्षा और शिकायत के जीते रहते हैं