भारतीय लोकतंत्र के आपातकालीन
निहितार्थ
रामप्रकाश कुशवाहा
आपातकाल का जो सबसे अधिक कुत्सित पक्ष था -वह था अभिव्यक्ति
की आजादी का छिनना। न्यायपालिका को अपने ढंग से एक तरह से आपातकाल लगाने से पहले
ही प्रभावित कर दिया गया था-इंदिरा गाँधी को आरोप -मुक्त करने के लिए। लेकिन नेहरू-गाँधी परिवार का भारतीय जनता से जो
रिश्ता था। इंदिरा गाँधी की तानाशाही विश्व की तानाशाहियों की सापेक्षता में कई
दृष्टियों से अलग ही मानी जाएगी। वह एक चुनी हुई सरकार को सत्ता से बेदखल कर सत्ता
में आने का मामला नहीं था। वह जनता द्वारा वैधानिक ढंग से एक चुनी गयी सरकार का अपनी वैधानिकता पर लगाए गए एक आरोप और
उससे सम्बंधित न्यायिक निर्णय से एक सरकार का असहमत होकर सत्ता में बने रहने के प्रयास के रूप
में था। देखा जाय तो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नामकरण के बावजूद उनकी पार्टी को
जनसामान्य इंदिरा कांग्रेस के रूप में ही जानता और मानता था। कांग्रेस के विभाजन के बाद अघोषित रूप से वे अपनी
पार्टी की पर्याय बन गयी थीं। न्यायालय के विरोधी निर्णय के बाद इंदिरा गाँधी
चाहतीं तो स्वयं पार्टी अध्यक्ष के रूप में अपरोक्ष संचालन करते हुए भी किसी और को
प्रधानमंत्री के रूप में प्रतिनियुक्त कर सकती थीं। यद्यपि छःवर्ष तक चुनाव लड़ने
से प्रतिबंधित करने वाले न्यायलय के निर्णय नें उनको संसद भंग कर फिर से जनता के
सामने निर्वाचन के लिए जाने से पहले ही वंचित कर दिया था। आरोप के औचित्य की
दृष्टि से देखें तो पार्टी लोकतंत्र और उसकी मुखिया होने के कारण इंदिरा कांग्रेस
पूरे देश में जीती थी.इसलिए सिर्फ अपने संसदीय क्षेत्र में उनका स्वयं का निर्वाचन अवैध घोषित होने के
बावजूद वे बहुमत से चुनी गयी सरकार की मुखिया थीं। उन्होंने न्यायालय
को प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों का सम्मान नहीं किया। ऐसा करना किसी देश के
राजनीतिक अभिसमयों -परम्पराओं की दृष्टि से जरूरी था। यद्यपि आपातकाल को भारतीय
इतिहास का एक काला अध्याय मान लिया गया है। इसके बावजूद इसकी पृष्ठभूमि और उसके
कारको की और पड़ताल जरूरी है;साथ ही उठने वाले कुछ अन्य प्रश्नों का
भी।मुझे यह नहीं पता कि किसी भ्रष्ट या चापलूस नौकरशाह नें स्वयं तो नहीं इतनी सेवाएँ दे दीं कि वह उनके विरुद्ध एक प्रमाण ही बन गया .राजनीतिज्ञ प्रायः सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के लिए ऐसा करते हैं .न्यायलय नें अवश्य ही इस बिंदु पर ध्यान दिया होगा .
पहला प्रश्न तो भारत की सुरक्षा नीति का है। रामधुन गाते हुए महात्मा गाँधी
की हत्या के बाद भी इस देश के राजनीतिज्ञों नें कुछ नहीं सीखा। फलतः देश का इतिहास
तीन गांधियों (इंदिरा और राजीव ) की निर्मम हत्या का साक्षी बना। राजनारायण के वाद
और इंदिरा गाँधी के चुनाव को अवैध घोषित कर देने वाले प्रसंग में एक विचारणीय
परिस्थिति आती है कि चुनाव आचार-संहिता लागू होते ही प्रधानमंत्री को जो अब भी कार्यकारी
के रूप में कार्य कर रहा होता है -अपने निर्वाचन क्षेत्र में प्रधानमंत्री रह
चुकने के सुरक्षात्मक विशेषाधिकारों के साथ जाना चाहिए या नहीं !सिद्धान्ततःवह एक
आम नागरिक की तरह ही जनता के पास मतदान के आग्रह के लिए जाता है। ध्यान देने की
बात है कि नयी सरकार के गठन के पूर्व तक देश की सुरक्षा और प्रशासन का दारोमदार अब
भी उसी पर है। युद्ध छिड़ जाने या बाहरी आक्रमण की स्थिति में वह ही वैधानिक शासक
के रूप में कार्य करेगा। ऐसी स्थिति को देखते हुए इंदिरा जी से चुनावी भाषणों के
लिए पैदल चलना या रिक्शे पर चलने की मांग करना अनौचित्य पूर्ण लगता है। क्योकि
जनता यदि नापसंद करना चाहेगी तो सरकारी वायुयान से आने के बाद भी यदि चुनावी
धांधली सरकारी मशीनरी नहीं करती है तो किसी भी प्रत्याशी को चुनने से इंकार कर
सकती है। इस समस्या का निराकरण पार्टियाँ अपने स्तर पर किराये के वायुयान और
हेलिकाप्टर लेकर करती हैं। यदि हम एक मानवीय समस्या के रूप में इंदिरा गाँधी को ही
उदाहरण बना कर देखें तो स्वराज भवन और आनंद भवन को राष्ट्र को सौंपकर संग्रहालय
बना देने के कारण -यदि दिल्ली में उनकी अपनी संपत्ति नहीं
रही हो या केवल सरकारी आबंटित बंगले में ही रहती रही हों तो वे तकनीकी रूप से बेघर
का दर्जा प्राप्त कर सकती थीं। राजनीति भी क्योकि एक पेशा है ,एक पेशेवर राजनीतिज्ञ से यह उम्मीद करना कि वह
अपनी आजीविका के लिए कोई और भी धंधा करता रहे -वह एक पूंजीवादी व्यवस्था का संचालन
तो करे लेकिन स्वयम गाँधीवादी ढंग से भिक्षा-याचन यानि चंदा उगाही करे -काफी
अपमानजनक और निरीह बनने वाला आदर्श है। प्रश्न यह है कि हमारा संविधान इस समस्या
को लेकर इतना विवेक-चुप क्यों है कि यदि भारत में पार्टी लोकतंत्र रहना है तो उन पार्टियों का वित्त पोषण कैसे होगा
! इसके लिए कुछ सीमा निर्धारित कर कोई कर भी लगाया जा सकता था। उन्हें अपने ढंग से
चंदा लेकर वित्त-व्यवस्था के लिए असुरक्षित छोड़ दिया गया है। महात्मा गाँधी की
परंपरा में वे भी भारतीय पूंजीपतियों पर निर्भर हैं। वे चंदे के लिए आदान-प्रदान
योजना के अंतर्गत उचित-अनुचित लाभ पहुंचाती रहती हैं। इससे हुआ यह है कि भारतीय
लोकतंत्र पूरी तरह वित्त निर्भरता के कारण पुजीपतियों के हाथ में चला गया है।
कहने का तात्पर्य यह है कि दलों के वित्त पोषण सम्बन्धी इस
संवैधानिक मौन के कारण भारत का लोकतंत्र बिना व्यावहारिक भ्रष्टाचार के नहीं चलाया
जा सकता .यह उसकी असैद्धांतिक किन्तु व्यावहारिक अपरिहार्यता है . फिर भी विपक्षी
को फंसाने या दूसरी पार्टियों के नेताओं की इज्जत उतारने के लिए इस संवैधानिक
अपर्याप्तता का प्रयोग किया जाता है .यह भारतीय नौकरशाही के लिए एक सर्वमान्य सत्य
है कि विशुद्ध नैतिकता और व्यवस्था-संचालन में कार्यात्मक विरोध है . में ऐसा
मानता हूँ कि इंदिरा गाँधी भी भारतीय संविधान की कार्यात्मक अनुभवहीनता की शिकार
हुईं .संविधान निर्माताओं नें इसके कार्यात्मक पक्ष और तंत्र-संचालन पर पर्याप्त
विचार नहीं किया था .एक अंतर्विरोध यह भी है कि मतदान का नागरिक अधिकार व्यक्तिगत
है लेकिन उसपर ढांचागत दबाव किसी संगठन या दल के प्रत्याशी को मत देने का रहता है
.इस तरह उसपर निरंतर व्यक्ति को नहीं बल्कि संगठन को मत देने का दबाव रहता है .
मैं ऐसा मानता हूँ कि इंदिरा गाँधी भी विरासत में मिली इसी संवैधानिक
अस्पष्टता की शिकार हुई थीं। राजनीतिक पार्टियों पर वित्त-संग्रह के इस दबाव नें
अनेक असंवैधानिक चोर रास्ते सृजित किए। उसमें से ठीकेदारी प्रथा ,दलालों को पोषण ,सरकारी
कामों को मूल्य बढ़ा कर करना आदि भ्रष्टाचार प्रमुख है ! इसी वित्त संग्रह के
गोपनीय तरीकों को सार्वजनिक कर विश्वनाथप्रताप सिंह नें काफी श्रेय अर्जित किया और
सत्ता में आए .ऐसे ही प्रयास में राजीव गाँधी की सरकार विश्वनाथ प्रताप सिंह के
द्वारा बाफोर्स घोटाला प्रकरण में अपमानित हुई .जबकि यह कांग्रेस पार्टी के वजूद
के लिए अत्यंत आवश्यक और सामान्य बात थी .गाँधी जी स्वयं बिरला एवं अन्य
उद्योगपतियों से मिले वित्त पर निर्भर करते थे .कांग्रेस के लिए चंदा उगाही एक
नैतिक प्रश्न कभी भी नहीं रहा .इसीलिए उसने इसे संवैधानिक स्वरूप देने की कोशिश भी
कभी नहीं की . यह इतना आम है कि सरकारी कार्यक्रमों में अतिथियों के लिए काजू और
किसमिस का पैसा वास्तव में कोलतार के क्रय-मूल्य में शामिल हो सकता है।
मुझे याद है काशी हिन्दू विश्व विद्यालय
में आयोजित सेमिनार में भ्रष्टाचार पर अपना शोध -पत्र पढ़ाने वाले राजनीति विज्ञानं
के एक प्रोफ़ेसर से प्रश्न -प्रहार में जब मैंने यही प्रश्न पूछा और कहा था कि
बाफोर्स और चारा -घोटाला जैसी समस्याए भारतीय संविधान की एक खामी या चुप्पी की भी
उपज है। यदि आपने पार्टी लोकतंत्र स्वीकार किया है तो पार्टियों के वित्त -पोषण की
संवैधानिक व्यवस्था भी देनी चाहिए थी। जो व्यय अपरिहार्य है उसे परदे के पीछे से
संदिग्ध शैली में कराना संगठनात्मक भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना है। यह भी संभव है कि एक साजिश के तहत सत्तासीन नेताओं ने जानबूझ कर ऐसा कर रखा हैे कि किसान , मजदूर या मध्य-वर्ग के बुद्धिजीवी आसानी से चुनाव
लड़कर चुनौती न दे सकें। -अनैतिक दिखते हुए भी बोफोर्स घोटाला ,चारा
घोटाला इस संवैधानिक खामी और अपर्याप्तता की भी उपज है. जिन आधारों पर इदिरा जी का
चुनाव अवैध न्यायलय ने माना था उसकी कीमत देश को बाद में राजीव गाँधी की हत्या के
रूप में सामने आई .इंदिरा जी की गलती सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने चुनाव एक सामान्य प्रत्याशी के रूप में नहीं बल्कि प्रधानमंत्री के रूप में लड़ा
था.राजनारायण जी का आरोप संवैधानिक रूप से या यह कहें कि कानूनी तकनीकी स्तर पर सही था.उनपर काला धन लेकर चुनाव लड़ते
रहने का आप आरोप भी लगा सकते है ,उनकेू आनंद भवन्
और स्वराज भवन की कीमत कितनी होगी,आमदनी काो कोई निजी जरिया
नहीं था .उनके पास.,संविधान में कोई प्रावधान नहीं था कि चुनाव खर्च के लिए
टैक्स लगाकर पार्टियों को धन उपलब्ध कराया जाय। फिर इतने बड़े देश और पार्टी का संचालन कैसे किया
या किया जा सकता है -यह प्रश्न क्यों विचारणीय नहीं है .,इसी खामी को पार्टियाँ काले धन से पूरा करती
हैं.राज्य प्रत्याशी बनते ही चुनाव का खर्च क्यों नहीं उठाता-ऐसा संभव है कि
स्वतंत्रता के पूर्व से चली आती चंदा परंपरा के कारण कांग्रेस को कभी लगा ही नहीं
हो कि इसके लिए किसी संवैधानिक प्रावधान की जरुरत है। इन परिस्थितियों
में अनुचित संसाधनों से चुनाव लड़कर यदि इंदिरा जी हतप्रभ और अपमानित
हुईं-और उसकी प्रतिक्रिया में आपातकाल लगाया-उनका भी एक पक्ष तो बनता ही है कि
उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा बचाने केलिए आपातकाल लगाया. न्यायालय ने उनपर आगामी छः वर्षों
तके चुनाव लड़ने के अयोग्य होने की सजा भी सुनाई थी-ऐसे में उनके
पास कोई विकल्प ही नहीं था.अपनी विशिष्ट मनोवैज्ञानिक
बनावट के कारण भी वे लोकतंत्र की शपथों को भूलते हुए ब्रिटिश उत्तराधिकार वाली
प्रशासन शैली की और अग्रसर होती गयीं.
विरासत की अभिमानिनी इंदिरा
गाँधी यदि अपने श्रेष्ठता के अहंकार के कारण मनोवैज्ञानिक रूप से असामान्य न हो
गयीं होती तो उनके लिए सीमित आपातकाल लगाना अधिक शिष्ट होता। तब नेताओं को
गिरफ्तार कर ,साहित्यकारों को जेल भिजवा कर उन्होंने
अपनी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया को प्रतिशोधात्मक विस्तार नहीं दिया होता। इससे
आपातकाल एक अविस्मरणीय ऐतिहासिक त्रासदी में बदल गया। अन्यथा नेहरू परिवार की होने के कारण इंदिराजी की देश
निष्ठा असंदिग्ध थी -आपातकाल को
भारत में लोकतंत्र का स्थगित होना माना जाता है-सैद्धांतिक आदर्शवाद की दृष्टि से गलत होते हुए भी भारत में अंग्रेजी राज्य की तरह उसके
भी ऐतिहासिक फायदे और भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। इसने स्वातंत्र्योत्तर
भारत में आम जनता को कांग्रेस पार्टी का विकल्प तलाशने के लिए गंभीरता से प्रेरित
किया। जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रान्ति के आवाहन नें देश को दूसरी आजादी की
परिकल्पना दी। यद्यपि यह दूसरी आजादी जनता पार्टी के अंतर्विरोधों से अंततः
दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। लेकिन इसने नयी संभावनाओं के द्वार खोले। कई प्रधानमंत्री
और कई मुख्यमंत्री कांग्रेस पार्टी से बाहर से बने। इसे राजनीतिक स्वतंत्रता के
रूप में देखा जाना उचित ही है। अब देश के पास विकल्प है। देश एक अधिक आत्मविश्वास
पूर्ण लोकतंत्र के दौर से गुजर रहा है। अब लोकतान्त्रिक तानाशाही के हश्र का
ऐतिहासिक दृष्टांत भी देश के पास है। जनता अधिक पेशेवर और दक्ष हुई है। इसका
उदाहरण मोदी के प्रभुत्व के लगभग सामानांतर ही केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री
बनने वाला जनाधार देने में भी देखा जा सकता है।
आज आपातकाल राजनीतिक प्रतिरोध का भी एक ऐतिहासिक अनुभव भी है। दरअसल हर ऐतिहासिक अनुभव क्रिया-प्रतिक्रिया की
लम्बी श्रंखला को जन्म देते . इसीलिए बुरे अनुभव भी व्यर्थ नहीं जाते उपयोगी ही
होते हैै. यद्यपि मेंरी और मेरे समवयस्क मित्रों
की युवावस्था संपूर्ण क्रान्ति के नारों को दुहराती हुई भारतीय सविधान का दुरुपयोग
करने के कारण इंदिरा जी से घृणा करते हुए बीती है.उन दिनों मैं भी राजनीति
विज्ञानं का विद्यार्थी था. यह भी एक कारण था कि किताबों में वर्णित लोकतंत्र से
भारतीय लोकतंत्र कुलीनतंत्र लगता था। आपातकाल से एक फायदा अनुभव का ही है-जो
वैक्सीनेशन और प्रतिरोध की ऐतिहासिक स्मृति ही देता है। यह देश के दीर्घकालिक हित में है कि वह हम
भारतीयों की कुलीनतावाद में यानि खानदानी निष्ठां की पराकाष्ठा से लोकतान्त्रिक
स्वाभिमान की ओर मोड़ता है। यह सीख मिलती है कि भारतीय विवेक कभी भी किसी व्यक्ति
या समूह का बंधुआ बनकर नहीं रहा है।
अब जब
कि इतिहास में भारतीय लोकतंत्र का वह अपमान-काल बीत गया है। उसकी आलोचना के साथ
-साथ और बावजूद भी प्रशंसा के जो बिंदु बनते हैं उसमें सबसे ऊपर है नसबन्दी
कार्यक्रम-जिसको उसके बाद कभी भी भारतीय राष्ट्र नें गंभीरता से नहीं लिया।
प्रशंसा का दूसरा बिंदु है कि आपातकाल में ही भारतीय प्रशासनिक तंत्र या नौकरशाही की अधिकतम कार्यकुशलता का प्रदर्शन
हुआ..तीसरी उपलब्धि है भारतीय जनता
द्वारा द्वारा गैरकांग्रेसी सत्ता की वैकल्पिक तलाश.जेल में ही -सही एक साथ बंद
होने पर विपक्षी नेताओं की तात्कालिक दोस्ती-जो जनतापार्टी के सत्ता में आने पर
तत्कालीन नेताओं के सत्ता-लोलुप चेहरों का बेनकाब होना.यहाँ यह भी नहीं कहा जा
सकता कि आपातकाल के बाद हुई उनकी हार में भारतीय जनता की विशुद्ध नकारात्मक
प्रतिक्रिया शामिल थी या जयप्रकाश नारायण का भारतीय जनमानस को उकसाने वाला नया
आशावाद जिसकी पृष्ठभूमि पर जनता पार्टी सत्ता में आई और इसी काल में अपनी संयमित
एवं शिष्ट भूमिका के कारण जनसंघ नाम से पीछा छुड़ाकर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में
आई .जिसकी चरम परिणति हम मोदी की सत्ता के रूप में देखा रहे हैं .इसमें संदेह नहीं
कि आपातकाल ने अनेक मोहभंग कराए और भारतीय लोकतंत्र के सभी पक्षों को अधिक समझदार
भी बनाया; साथ ही कई अनुत्तरित प्रश्न भी छोड़े हैं ,जिनका समाधान भारतीय लोकतंत्र
के स्वस्थ भविष्य के लिए जरूरी है .