शनिवार, 19 सितंबर 2015

डायरी से कविताएँ

कविता 


नदी की गहराई तक डूबकर 
हवा के लिए 
अभी -अभी बहार निकले 
मछुआरे की तरह .....
कविता एक बढ़ती हुई डाल है 
छाया में पलते पेड़ की 
और रोशनी की तरफ जाती ....


कोई नाटक नहीं ....



जब भी होगा
सबसे पीड़ित आदमी के संघर्ष से ही शुरू होगा मुक्ति का यद्ध
बनेगा मुक्ति का एक नया इतिहास ...और सबसे दुखी आदमी ही करेगा 
एक नयी सुखी दुनिया का निर्माण ....
अभी तो इतिहास एक मुर्ख मसखरा है
जिसकी मृत्यु घोड़े पर चढ़े
किसी बहादुर योद्धा की तरह नहीं
बल्कि गन्दी नाली में गिरे किसी झूमते शराबी की तरह होती है
अभी तो इतिहास एक हिंसक नदी है
जिसमें डूबने के बाद छिन जाती है
गुमनामी और शांति के साथ जीने-मरने की
हमारी प्राकृतिक स्वतंत्रता ....
अभी तो इतिहास एक उन्मादी संगीत है
\जिसमें वाद्ययंत्र की जगह
बजायी जाति हैं तालियाँ ..
अभी तो इतिहास एक चतुर विज्ञापन है
तूफानी अंधड़नुमा !
जिसमें टूटे पत्तों की तरह तैर रहे
अपने-अपने मूलाधार से कटे
कूछ पीले स्खलित चेहरे .....
अभी तो इतिहास एक बर्बर नाटक है
कुछ आवारों द्वारा संगठित होकर खेला गया
जो दुनिया की शेष आबादी को
सिर्फ बंधुआ दर्शक में बदल चुकी है ...
जब भी होगा...
तब इतिहास कोई नाटक नहीं होगा और टूट चूका होगा
प्रायोजित इतिहास रचाने का सारा तिलिस्म !
अभी तो है ....


वे तो जानते ही नहीं थे ...



वेदों में लिखा है कि सत्य जानने के लिए
सबसे पहले मैं यह पूछूं
कि मैं कौन हूँ !
इसके पहले कि मैं पूछूं
वे मेरी और से
कौओं की तरह चीखने लगते हैं -
तू यह है ...यह है ...यह है
वेदों में लिखा है कि
सब एक ही है -दूसरा नहीं है
कि कुत्ते और बिल्ली में भी वही है
जो तुममें है
लेकिन हिन्दू होने के लिए
तुम्हें पढ़ने होंगे पुराण
और माननी होगी शास्त्रों में कही यह बात कि
वह सब में तो है
लेकिन शूद्रों में नहीं !
(शायद ऐसा इस लिए कि
प्रभु जन सेवित हिन्दू हैं तो
शुद्र जन सेवक हिदू
इस तरह शुद्र भी हिन्दू हैं )
मैं पढ़ता हूँ पुराण
और खुश होता हूँ
कि हिंदू कोई पौराणिक या शास्त्रीय
सत्य नहीं है
कि राम नहीं थे हिन्दू
रामचन्द्र थे वे राम सिंह भी नहीं
कि कृष्ण हिन्दू नहीं थे
नहीं थे हिन्दू शिव ,विष्णु ,बुद्ध या महावीर ...
और वे तो जानते ही नहीं थे की क्या होता है हिन्दू !
वेदों में यह तो लिखा है कि
मैं संपूर्ण सृष्टि की और से हूँ
प्रतिनिधि हूँ सारे ब्रह्माण्ड का
लेकिन कहीं भी नहीं लिखा है
मेरे मनुष्य न होने
और हिन्दू होने के बारे में ....
वेदों का कृतज्ञ हूँ मै तो
और यदि मैंने कभी शास्त्र लिखा
तो जीवन को हिन्दू कह कर
अपमानित करने की जगह
नए मुहावरे में लिखने की अनुमति चाहूँगा
हे-हइन्दू माने अनपढ़ भ्रष्टाचार्य !
क्योकि सिन्धु को हिंदू कहने वाला
विदेशियों द्वारा प्रदत्त संज्ञा-विशेषण -पद
आखिर क्यों हो शिरोधार्य ?


गर्व से या शर्म से !



हमने /आपने
स्वयं को आर्य कहा
और अपने लिए लड़ने वालों को 
असम्मान से बन्दर और भालू ...
हमने /आपने अपने कन्धों पर
तलवार की तरह धारण किया
श्रेष्ठता का जनेऊ
और अपने गाढ़े के सहयोगियों के
नितम्बों पर उगा डाली पूंछ
हमने /आपने स्वयं तो गलमुच्छे धारण किए
और अपनी अपहृत स्त्री के उद्धार कर्ताओं को
वन-नर कहकर
असभ्य जंगली चौपायों में बदल दिया !
हमें /आपको
मनुष्य को मनुष्य कहते
आती रही है शर्म .....
हम/आप मनुष्य की सेवा करने वाले
मनुष्यों को महान न कहकर
कहते रहे हैं क्षुद्र ..
और अपने पड़ोसियों को
अनार्य म्लेक्छ और अंत्यज कहकर मुस्कराते रहे
हम/आप अपनी बधुओं को
दहेज़ न मिलाने पर फूंक देते हैं
जला कर राख में बदल देते हैं फूस की तरह
बदल देते हैं पत्नियाँ
शपथ लेकर जन्म-जन्मान्तर के साथ का
हम/आप जो भक्ति के नाम पर
दुनिया में फैलाते रहे दास्य -धर्म
और रचाने के बाद
गुलाम बनाने का शास्त्र
एक दिन स्वयम गुलाम हो गए हजार वर्षों के लिए ....
हम/आप जो निजी स्वार्थ के लिए
प्रकृति की सर्वोत्तम सृष्टि
मनुष्य का सिर
न सिर्फ झुकाते हैं
बल्कि पत्थरों पर पटक कर
फोड़ देते हैं नारियल की तरह ...
हम /आप जिनके पुरखे
सिर्फ जूठा पानी पी लेने के अपराध में
विधर्मी करार दिए गए ....
क्या वह हम/आप ही थे कि कभी
शास्त्रार्थ की व्यवस्था में सिर्फ बहस के द्वारा ही
शांतिपूर्वक बदल दिया करते थे
अपने मत -विचार -धर्मं !
जबकि आज - नहीं सोचेंगे...नहीं सुनेंगे के नारे के साथ
झंडे की तरह उठाए घूम रहे हैं
दूसरों कि दिया हिन्दू नाम...
आप नहीं मानेंगे तो कह देते है कि आप हिन्दू हैं
लेकिन गर्व से नहीं शर्म से
कि मुझे मनुष्य होने से कम कुछ भी स्वीकार नहीं
मेरी दृष्टि में हिन्दू या उसका सांप्रदायिक प्रतिपक्षी होना
पिछले ज़माने के मनुष्यों के विचारों को ढोने वाला
सिर्फ एक मुर्ख गधा होना है
एक बौद्धिक पिछड़ापन ....