तुम डर रहे हो
क्योंकि तुम्हें डरते रहने के लिए कहा गया था
इसके पहले कि तुम स्वयं कुछ सोचो और रचो
तुम्हें भी सौंपी गयी थी एक दुनिया
पहले से भी रची और सोची गयी ।
तुम सुविधाओं में और सुरक्षाओं में पले हो
तुम्हें जहरीले पौधों और जन्तुओं की पहचान करायी गयी है
तुम्हें सौंपी गयी हैं अनेक अव्याख्यायित वर्जनाएं
ताकि तुम उन्हें समझ पाने तक बचे रह सको....
इसतरह तुम एक उत्पाद हो पिछली पिता-पीढ़ी की समझदारी के......
तुमने जीने की आदतें सीखी हैं और कला
तुमनें डर सीखें हैं और दूसरों द्वारा विरासत में मिले हुए विश्वास.....
तुम कल तक बच्चे थे और आज बनने जा रहे हो पिता
तुम एक अवसर हो डरनें और न डरने के नए चयन के लिए
तुम एक जैविक पिता ही नहीं हो
तुम एक सांस्कृतिक और साभ्यतिक पिता भी हो
एक दुर्लभ अवसर हो नए आरम्भ के लिए.......
उठो ! यह तुम्हारे सोने का वक्त नहीं है ,सोचने का है
बहुत हो लिया अब अपने छत के ऊपर
खुली हवा में निकल आओ
यदि छत न हो ता मैदान में......
सबसे पहले अपने नाम के बारे में सोचना है तुम्हें
और यह किसी भी भाषा का हो सकता है शब्द
इसे संज्ञा भी कहते हैं.....
संज्ञा हर भाषा के वे शब्द होते हैं
जो दूसरी भाषाओं में भी जाकर बनें रहते हैं अपरिवर्तनीय
जिनका नहीं किया जा सकता कोर्इ अनुवाद
ये शब्द आते-जाते हैं बस उधार यूं ही...ऐसे ही
देश और भाषा से पक्षिओं सरीखे
जन-जन से ज्यों पेड़-पेड़ से उड़ते रहते और बैठते.....
अब सोचो - तुम क्यों हो राम !
यधपि यह है ही सहज पर बात कठिन
हालांकि है भाषा की ही समस्या
कि तुम्हें राम ही क्यों कहा गया ?
जबकि पीटर ,डैनी ,रहीम,करीम-करीमन कुछ भी
कहा जा सकता था.....
अब सोचो कितने वर्ष उम्र है तुम्हारी
पांच वर्ष ! दस वर्ष ? बीस ? पच्चीस ? पचास ?
अच्छा तो तुम चालीस वर्षों से हो हिन्दू
और तुम पचास साल से मुसलमान
पर इतना ही नहीं
दस वर्ष पहले जन्में बच्चे को
बिना पूछे ही उससे तुमनें उसे बना रखा है हिन्दू ?
उसनें मुसलमान आठ वर्षों से
पांच वर्ष से उसनें सिक्ख
ऐसे ही और-और.....
आखिर तुम हो कौन
होते कौन हो
किसी के होने के ऊपर
अपना होना थोप रहे जो !
श्रीमान मियां और पंडित जी !
पूछा तो नहीं था आप-आपने अपने-अपने बच्चों से
कि तुम जन्म लेना चाहते हो या नहीं !
तुम हिन्दू बनना चाहते हो या नहीं ?
तुम गोरा या काला,अफ्रीकन या ब्रिटिश बनना चाहते हो या नहीं ?
तुम अमुक भाषा-भाषी या देश होना चाहते हो या नहीं -
वैसे ही जैसे तुमसे नहीं पूछा था तुम्हारे पिताओं नें
हिन्दू या मुसलमान,हिन्दी-उर्दू या तमिल बनाते हुए.......
यधपि आप हैं और होते हुए भी पिता
बिना पूछे स्वयं को उसका अपना पिता बताकर
उसकी नन्ही पीठ पर लद जाने वाले
उसके मन-मसितष्क पर संकीर्ण अस्मिताओं की इबारत लिख देने वाले....
जबकि हर पिता अपनी सन्तान के साथ
उसके जन्म के साथ ही कर देता है
एक प्राकृतिक अपराध
बिना पूछे एक नए मनुष्य जीवन को धरती पर लाकर
अपनी वासना और कामना की आड़ में
किसी निरीह शिकार की तरह घायल पशु सा पटक देना
रोग-शोक,दु:ख और मृत्यु की युद्धभूमि में
एक असमाप्त और अन्तहीन लड़ार्इ लड़ने के लिए.....
हां-हां महोदय ! पितृ-ऋण नहीं
पिता-एक प्राकृतिक अपराधी सन्तान का
भुगते जो उसके पालन-पोषण की सजा
सजा पूरी हो क्षमा मिल जाने तक.....
हां-हां महोदय । यह होगा आपका अपराध
एक पुत्र को जन्म देना या पुत्री को
उतना ही जितना एक रूत्री की बिना सहमति के
किए सम्पर्क पर होने वाली सार्वजनिक भर्त्सना बलात्कार की !
कि एक मानव-शिशु हमेशा ही होता है-
एक प्राकृतिक बलात्कार का शिकार और परिणाम
चहे वह विवाहित दम्पति से जन्मा हो या फिर अवैध सम्बन्ध से....
दूसरा बलात्कार कि उसको दे दिया एक नाम
तीसरा कि बिना पूछे ही उससे दे दिया एक धर्म
और उसका पिता होने का करते हुए दुरुपयोग
लगे पीटनेढालने उसे आतंकवादी अनुशासन में
अपनी सनकों की शिक्षा का पाठ पढ़ाते हुए
अपने र्इश्वर और खुदा को भी बुला लिया
अपने बलात्कार के परिणाम से अपने होने का
अनधिकृत हिस्सा मांगने....
जाओ पिता ! अब भी समय है कि
उसके उगनें में हस्तक्षेप न करते हुए
संकीर्णताओं से परे की उदारता के साथ
उसे फूलने-फलने और विकसने दो
होने दो मनुष्य-उसे छोटा मत समझो
मत बनाओं उसे अपने अहंकार का चौकीदार
बौनसार्इ या फिर निजी जागीर उसे
क्योंकि वह ह ैअब तक के सम्पूर्ण मानव-जाति के वैश्विक
उत्तराधिकार में मिले अनुभवों और सूचनाओं से समृद्ध
तुम तक बूढ़ी हुर्इ मानव-जाति का सहज उत्तराधिकारी !
तुम्हारा शिशु होते हुए भी अब तक की सभ्यता का
तुमसे भी बूढ़ा सदस्य मनुष्य होगा वह
वह ज्ञान-वृद्ध शिशु !
जाओ पिता ! और मांगो उस नवजात मनुष्य से
घुटने टेककर,उसके मस्तक को चूमते हुए मांगो क्षमा
यदि तुम मां भी हो चाहे
यदि तुम पिता भी हो चाहे
यदि तुम र्इश्वर,खुदा या गाड भी हो चाहे......
उसे चूमो ! उसे पुकारो ! और उससे मांगों क्षमा
उसके साथ खेलते और उसे प्रसन्न करते हुए
उसके लिए दूध और रोटियों की खोज में
भटको सारी धरती !
और यह मत भूलो कि
एक जिन्दा मनुष्य की हत्या कर देने से
अधिक भयानक पाप है
एक नए मनुष्य के जीवन को
उसकी इच्छा के विरुद्ध बिना पूछे इस धरती पर
भूख ,रोग और संकटों से लड़ने के लिए बुला लेना.....
उसके सामने टेककर घुटनें
उससे मांगते हुए क्षमा
उसे धीरे से अपनी बाहों में उठाओ !
शायद वह हंस दे और तुम्हारी सजा
पूरी तरह माफ कर दी जाय......
क्योंकि तुम्हें डरते रहने के लिए कहा गया था
इसके पहले कि तुम स्वयं कुछ सोचो और रचो
तुम्हें भी सौंपी गयी थी एक दुनिया
पहले से भी रची और सोची गयी ।
तुम सुविधाओं में और सुरक्षाओं में पले हो
तुम्हें जहरीले पौधों और जन्तुओं की पहचान करायी गयी है
तुम्हें सौंपी गयी हैं अनेक अव्याख्यायित वर्जनाएं
ताकि तुम उन्हें समझ पाने तक बचे रह सको....
इसतरह तुम एक उत्पाद हो पिछली पिता-पीढ़ी की समझदारी के......
तुमने जीने की आदतें सीखी हैं और कला
तुमनें डर सीखें हैं और दूसरों द्वारा विरासत में मिले हुए विश्वास.....
तुम कल तक बच्चे थे और आज बनने जा रहे हो पिता
तुम एक अवसर हो डरनें और न डरने के नए चयन के लिए
तुम एक जैविक पिता ही नहीं हो
तुम एक सांस्कृतिक और साभ्यतिक पिता भी हो
एक दुर्लभ अवसर हो नए आरम्भ के लिए.......
उठो ! यह तुम्हारे सोने का वक्त नहीं है ,सोचने का है
बहुत हो लिया अब अपने छत के ऊपर
खुली हवा में निकल आओ
यदि छत न हो ता मैदान में......
सबसे पहले अपने नाम के बारे में सोचना है तुम्हें
और यह किसी भी भाषा का हो सकता है शब्द
इसे संज्ञा भी कहते हैं.....
संज्ञा हर भाषा के वे शब्द होते हैं
जो दूसरी भाषाओं में भी जाकर बनें रहते हैं अपरिवर्तनीय
जिनका नहीं किया जा सकता कोर्इ अनुवाद
ये शब्द आते-जाते हैं बस उधार यूं ही...ऐसे ही
देश और भाषा से पक्षिओं सरीखे
जन-जन से ज्यों पेड़-पेड़ से उड़ते रहते और बैठते.....
अब सोचो - तुम क्यों हो राम !
यधपि यह है ही सहज पर बात कठिन
हालांकि है भाषा की ही समस्या
कि तुम्हें राम ही क्यों कहा गया ?
जबकि पीटर ,डैनी ,रहीम,करीम-करीमन कुछ भी
कहा जा सकता था.....
अब सोचो कितने वर्ष उम्र है तुम्हारी
पांच वर्ष ! दस वर्ष ? बीस ? पच्चीस ? पचास ?
अच्छा तो तुम चालीस वर्षों से हो हिन्दू
और तुम पचास साल से मुसलमान
पर इतना ही नहीं
दस वर्ष पहले जन्में बच्चे को
बिना पूछे ही उससे तुमनें उसे बना रखा है हिन्दू ?
उसनें मुसलमान आठ वर्षों से
पांच वर्ष से उसनें सिक्ख
ऐसे ही और-और.....
आखिर तुम हो कौन
होते कौन हो
किसी के होने के ऊपर
अपना होना थोप रहे जो !
श्रीमान मियां और पंडित जी !
पूछा तो नहीं था आप-आपने अपने-अपने बच्चों से
कि तुम जन्म लेना चाहते हो या नहीं !
तुम हिन्दू बनना चाहते हो या नहीं ?
तुम गोरा या काला,अफ्रीकन या ब्रिटिश बनना चाहते हो या नहीं ?
तुम अमुक भाषा-भाषी या देश होना चाहते हो या नहीं -
वैसे ही जैसे तुमसे नहीं पूछा था तुम्हारे पिताओं नें
हिन्दू या मुसलमान,हिन्दी-उर्दू या तमिल बनाते हुए.......
यधपि आप हैं और होते हुए भी पिता
बिना पूछे स्वयं को उसका अपना पिता बताकर
उसकी नन्ही पीठ पर लद जाने वाले
उसके मन-मसितष्क पर संकीर्ण अस्मिताओं की इबारत लिख देने वाले....
जबकि हर पिता अपनी सन्तान के साथ
उसके जन्म के साथ ही कर देता है
एक प्राकृतिक अपराध
बिना पूछे एक नए मनुष्य जीवन को धरती पर लाकर
अपनी वासना और कामना की आड़ में
किसी निरीह शिकार की तरह घायल पशु सा पटक देना
रोग-शोक,दु:ख और मृत्यु की युद्धभूमि में
एक असमाप्त और अन्तहीन लड़ार्इ लड़ने के लिए.....
हां-हां महोदय ! पितृ-ऋण नहीं
पिता-एक प्राकृतिक अपराधी सन्तान का
भुगते जो उसके पालन-पोषण की सजा
सजा पूरी हो क्षमा मिल जाने तक.....
हां-हां महोदय । यह होगा आपका अपराध
एक पुत्र को जन्म देना या पुत्री को
उतना ही जितना एक रूत्री की बिना सहमति के
किए सम्पर्क पर होने वाली सार्वजनिक भर्त्सना बलात्कार की !
कि एक मानव-शिशु हमेशा ही होता है-
एक प्राकृतिक बलात्कार का शिकार और परिणाम
चहे वह विवाहित दम्पति से जन्मा हो या फिर अवैध सम्बन्ध से....
दूसरा बलात्कार कि उसको दे दिया एक नाम
तीसरा कि बिना पूछे ही उससे दे दिया एक धर्म
और उसका पिता होने का करते हुए दुरुपयोग
लगे पीटनेढालने उसे आतंकवादी अनुशासन में
अपनी सनकों की शिक्षा का पाठ पढ़ाते हुए
अपने र्इश्वर और खुदा को भी बुला लिया
अपने बलात्कार के परिणाम से अपने होने का
अनधिकृत हिस्सा मांगने....
जाओ पिता ! अब भी समय है कि
उसके उगनें में हस्तक्षेप न करते हुए
संकीर्णताओं से परे की उदारता के साथ
उसे फूलने-फलने और विकसने दो
होने दो मनुष्य-उसे छोटा मत समझो
मत बनाओं उसे अपने अहंकार का चौकीदार
बौनसार्इ या फिर निजी जागीर उसे
क्योंकि वह ह ैअब तक के सम्पूर्ण मानव-जाति के वैश्विक
उत्तराधिकार में मिले अनुभवों और सूचनाओं से समृद्ध
तुम तक बूढ़ी हुर्इ मानव-जाति का सहज उत्तराधिकारी !
तुम्हारा शिशु होते हुए भी अब तक की सभ्यता का
तुमसे भी बूढ़ा सदस्य मनुष्य होगा वह
वह ज्ञान-वृद्ध शिशु !
जाओ पिता ! और मांगो उस नवजात मनुष्य से
घुटने टेककर,उसके मस्तक को चूमते हुए मांगो क्षमा
यदि तुम मां भी हो चाहे
यदि तुम पिता भी हो चाहे
यदि तुम र्इश्वर,खुदा या गाड भी हो चाहे......
उसे चूमो ! उसे पुकारो ! और उससे मांगों क्षमा
उसके साथ खेलते और उसे प्रसन्न करते हुए
उसके लिए दूध और रोटियों की खोज में
भटको सारी धरती !
और यह मत भूलो कि
एक जिन्दा मनुष्य की हत्या कर देने से
अधिक भयानक पाप है
एक नए मनुष्य के जीवन को
उसकी इच्छा के विरुद्ध बिना पूछे इस धरती पर
भूख ,रोग और संकटों से लड़ने के लिए बुला लेना.....
उसके सामने टेककर घुटनें
उससे मांगते हुए क्षमा
उसे धीरे से अपनी बाहों में उठाओ !
शायद वह हंस दे और तुम्हारी सजा
पूरी तरह माफ कर दी जाय......