सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

राजनीतिनामा

भारत जैसे देश में एक स्वस्थ राजनीतिक तंत्र  लिए पेशेवर राजनीति का उदय होना जरुरी है। सबसे अच्छा दिन वह होगा जब मतदाता के पास एक राजनीतिक उपभोक्ता का विवेक होगा।  वह राजनेताओं को एक उपभोक्ता  तरह ही डरा सकेगा कि  सही तो मैं किसी और से सेवाएं  लूंगा। यद्यपि आज भी देश में कई राजनीतिक दल हैं। पहली दृष्टि  में भ्रम  होता है कि मतदाता स्वतन्त्र है। लेकिन समस्या यह है कि उसकी यह स्वतंत्रता सापेक्ष है। वह इस   दृष्टि से अविवेकी एवं अपरिपक्व है कि उसका विवेक सामाजिक यानि जातीय आधारों पर सामूहिक निर्णयशीलता की शिकार है। उसकी निष्ठा बहुत कुछ पूर्वनिर्धारित है। उसकी प्रतिबद्धता एवं जड़ता तय है।

                 भारतीय मतदाताओं की इस लाचारी को कुछ इस प्रकार समझना होगा। सभी दाल एवं उसके संचालक नेतागण पहले से ही जानते है कि किस क्षेत्र में किस जाति के मतदाताओं की बहुलता है। दलों की विचारधारा कुछ भी हो वे प्रत्याशियों का चयन अतिरिक्त योग्यता की तरह जातीय आधार पर ही करती हैं। सबसे पहले प्रत्याशी चयन करने वाला दल दूसरे दलों को फिर बचे  हुए जातीय समीकरणों के आधार पर प्रत्याशी चयन करने की चुनौती देता है। समीकरण कुछ इस तरह के बनाए जाते हैं कि पहले घोषित प्रत्याशी की जाति से कम जनसंख्या वाली जाति का प्रत्याशी न चुना जाय।