शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

पहल की पुनर्नवा पहल एवं नई व्यवस्था का विमर्श


पहल की पुनर्नवा पहल एवं नई व्यवस्था का विमर्श

                                                                                 रामप्रकाश कुशवाहा


पहल का पुनर्नवा अंक मेरे हाथों में है -अंक ९१ .अद्यतन पीढ़ी की  सृजनशीलता और सृजन की अद्यतन्शीलता को समर्पित. अपने नाम के ही अनुरूप पहल लम्बे अरसे से नए साहित्यकारों के लिए लाँचपैड रही है .उसके पिछले अंकों में भी हिन्दी-क्षेत्र की एक व्यापक मानव-जाति के आर्थिक व्यव्हार को समझने और समझाने की दृष्टि से मार्क्स का विश्लेषण आधुनिक वैचारिकी को आधारिक सूत्र और दृष्टिया उपलब्ध करता है .क्योंकि संवेदनात्मक द्रष्टि से मार्क्सवाद के उद्देश्य की नैतिक पवित्रता असंदिग्ध है ;इस लिए उसके दार्शनिक पक्षों को भी निर्विवाद और अपरिवर्तनीय मन लिया जाता है .उसमे कुछ भी निरर्थक और अनावश्यक खोजना
वर्ग-शत्रु का हमला भी हो सकता है .क्योंकि भारत में वह पश्चिम की पवित्र धरोहर है ,इसलिए भारतियों को यह अधिक स्वीकार्य होगा कि स्वयं पश्चिम ही उसमे परिवर्तन संशोधन करे .वैसे भी भारतीय मेधा संरक्षण वादी है .वह नई पहल में कम ही विश्वास करती है . मार्क्सवाद की दार्शनिकी में भी बहुत से परम्परा से अर्जित तत्व हैं -उनमें से एक हीगल से लिया गया द्वंद्ववाद भी है .यह विकास की सामाजिक प्रक्रियाओं का विचलित प्रत्ययीकरण करता है .रुढ़िवादी और विकासवादी शक्तियों के द्वंद्व को मानवीय और समाजशास्त्रीय रूप में भी समझने और समझाने की जरुरत है .वर्ग -स्वार्थ के मनोविज्ञान पर आधारित होने के कारण मार्क्स का मानव-जाति के इतिहास में आर्थिक प्रवृत्तियों और व्यव्हार का सूत्रीकरण प्रायः ठीक और प्रामाणिक है .लेकिन मेरा मानना है कि मनुष्य की ज्ञानात्मक प्रगतिशीलता से अधिक उसकी विकास विरोधी जड़ताओं और आदिमताओं को भी समझाने की जरुरत है .ऐसे में तो और भी जब जीनेटिक आधार वाली जड़ताएँ होने की वैज्ञानिक संभावनाएं बढ़ गई हैं .इसके बावजूद मार्क्सवाद का सबसे महत्वपूर्ण सन्देश मानवीय व्यवस्था को यथास्थितिवादी स्वीकार की सामूहिक मानसिकता से बाहर निकालकर उसे प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की सृजनशीलता के दायरे में लाना है .प्राचीन धार्मिकों की तरह हमें ईश्वर और स्वर्ग का सृजन करने के स्थान पर वर्तमान मानवीय व्यवस्था को और मानवीय और निर्दोष बनाने पर विचार करना चाहिए .और इसके लिए मार्क्सवाद से भी अधिक महत्वपूर्ण है मार्क्स के बाद के मानवीय विकास की जटिलताओं को समझना .वर्तमान विश्व राजनीतिक नेतृत्व से आर्थिक नेतृत्व की ओर स्थानांतरित हो गया है .राजनीतिक संस्थाओं की तुलना में आर्थिक संस्थाएं मानव -सभ्यता की संरचनाओं को अधिक तीव्रता से प्रभावित कर रही हैं .विश्व प्रायः आर्थिक सक्रियताओं द्वारा अधिक रूपान्तरित हो रहा है .दूसरे शब्दों में विश्व राष्ट्रों से अधिक कंपनियों के उत्पादों से अधिक रूपान्तरित हो रहा है .क्योंकि यांत्रिक उत्पाद श्रम की प्रकृति को ही बदल दे रहे है 'इसलिए वर्ग-संरचना और उसकी मात्रात्मक उपस्थिति का स्वरूप भी बदला है .आज स्थानीय आर्थिक शोषण से अधिक प्रभावी अन्तर-राष्ट्रीय शोषण हो गया है .विषमता व्यक्ति और वर्ग स्तरीय ही नहीं बल्कि राष्ट्र स्तरीय और कंपनी स्तरीय भी है .बहुराष्ट्रीय होने के साथ-साथ कंपनियों का संगठनात्मक और जनसंख्यात्मक ढांचा विस्तृत हुआ और बढ़ा है .इस विषमता को भी मार्क्सवादी चिंतन के दायरे में लाना होगा .क्योंकि मार्क्सवाद साम्यवाद का पर्याय बन चूका है गोपाल प्रधान का लेख "इक्कीसवी सदी में मार्क्सवाद "सात उपशीर्षकों के अंतर्गत  मार्क्सवादी विचारधारा की अद्यतन प्रासंगिकता का विवरण ,स्वयं उनके ही शब्दों में कहें तो सोवियत संघ के विघटन से लेकर वर्तमान समय तक मार्क्सवाद के उत्थान-पतन का ब्यौरा दर्ज है .पहला उपशीर्षक लिओनार्ड वुल्फ की किताब "हावी रीड मार्क्स टुडे" के विचारों का पता देती है .
             इसी अंक में प्रकाशित शिवप्रसाद जोशी और सचिन गौड़ के बीच ई-मेल से हुए  अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर केन्द्रित संवाद -"सुविधा-दुविधा के आन्दोलन और मध्य-वर्ग " में मध्य-वर्ग के प्रति परम्परित मार्क्सवादी विचारधारा का दृष्टिकोण निवेश नकारात्मक ही है .पूंजीवादी व्यवस्था -प्रारूप के संरक्षण और परिष्कार की जिम्मेदारी प्रायः मध्यवर्ग पर ही है .सर्वहारा आधारित क्रान्ति की अवधारणा के कारण वामपन्थी क्रान्ति की दृष्टि से मध्यवर्ग की उपयोगिता एवं भूमिका नगण्य ही है .ज्ञानार्जन और बुद्धि -व्यवसाय में सबसे अधिक समय और जीवन का निवेश मध्य-वर्ग ही करता है .बौद्धिक विकास में लगे रहने के कारण वह बहुत ही कम अन्तराल के बाध्यकारी नेतृत्व का शिकार होता है .दूसरे शब्दों में कहें तो वह बौद्धिक श्रेष्ठता के कारण नहीं बल्कि आर्थिक,सामाजिक,राजनीतिक कारणों से इतिहास में बाध्यकारी नेतृत्व को     स्वीकार करता है .सर्वाधिक प्रतिरोध और सजगता के कारण उसकी भूमिका को लेकर सबसे अधिक भर्तस्ना-पत्र लिखे गए हैं .उसके आत्म-विश्वास को तोड़ने एवं उसे विचलित करनें की कोशिशें हुई हैं .इसमें संदेह नहीं कि औसत,सन्दिग्ध एवं अस्पष्ट समझ की वह अनदेखी करता है .
                     मध्य -वर्ग की अवधारणा  का विकास पूंजीवादी और मार्क्सवादी दोनों ही खेमों के विचारकों द्वारा प्रति-क्रान्ति एवं क्रांतिविरोध और अवरोध को समझाने के लिए किया गया था .मध्य-वर्ग के वर्ग-चरित्र और उसके रुझानों ,प्रवृत्तियों तथा मनोविज्ञान को समझाने की दिशा में मार्क्सवादी खेमा भी रूढ़ मुहावरों ,सरलीकरण और विचारधारात्मक सम्भाव्यवाद से आगे नहीं जा पाया है .स्वयं मार्क्सवादी विचारधारा ,सर्वहारा और पूंजीपति वर्ग ,उच्च और निम्न वर्ग की परिभाषिकी में ही विस्तार से सोचती है .सर्वहारा क्रान्ति की अवधारणा के कारण उसकी थीसिस और एजेंडे में मध्य-वर्ग की अधिक सक्रिय भूमिका नहीं थी .मार्क्स के लिए मध्यवर्ग क्रन्तिकारी असंतोष की दृष्टि से शून्य और अनुपयोगी था .वह बहुत कुछ दर्शक और तटस्थ जनसँख्या का हिस्सा था ,जो संगठित क्रन्तिकारी शक्तियों का न तो समर्थन कर सकता था और न ही सक्रिय विरोध .
               मध्यवर्ग को प्रायः उपभोक्ता वर्ग या समुदाय में देखने का नजरिया भी ठीक नहीं है .क्योंकि वह बौद्धिक विकास और सृजनशीलता के प्रति समर्पित केन्द्रीय समुदाय है .चेतन एवं प्रशिक्षित होने से उसमे सजग प्रतिरोध की क्षमता है .नेतृत्वकारी शक्तियों द्वारा उनका सहज अनुकूलन संभव नहीं है .इसी प्रतिरोध के कारण ही वे नेतृत्व के अभिलाषी महत्वकांक्षी बुद्धिजीवियों के सहज अनुगामी नहीं बन सकते .अरुंधती राय की मध्य वर्ग पर समस्त थीसिस उनकी इसी कुंठा और क्षोभ पर आधारित है .
             मध्य वर्ग की अब तक की भूमिका को देखते हुए जनवादी क्रान्ति के बाद भी नईक्रन्तिकारी व्यवस्था के संरक्षण में मध्यवर्ग  की भूमिका के महत्वपूर्ण होने की संभावना देखी जा सकती है .उसका सृजनात्मक असंतोष व्यवस्था के परिष्करण ,परिवर्धन और गतिशीलता को बनाए रख सकता है .
                  दोनों ही विमर्शकारों नें अन्ना हजारे के गाँधीवादी शैली के आंदोलनात्मक नेतृत्व या फिर कांग्रेसी राष्ट्रवादी आन्दोलनों के जनपक्ष के रूप में देखने की कोशिश नहीं की है . यहाँ  वाम पंथी  लाइन की प्रतिबद्धता से उपजी   दूसरे शब्दों में कहें तो उसके लिए पूंजीवादी व्यवस्था से निष्क्रमण और विद्रोह का कोई ठोस मनोवैज्ञानिक आर्थिक आधार नहीं बनता .इसलिए भी कि आदर्श साम्यवादी व्यवस्था औद्योगिक पूंजीवाद की प्रतिक्रिया में आनी थी .लेनिन ने अवश्य ही सर्वहारा  सर्वहारा वर्ग के पक्ष में उसके नैतिक समर्थन और वर्गांतरण की परिकल्पना दी .
                    समाजशास्त्रीय और आर्थिक विकास की दृष्टि से देखें तो मध्यवर्ग एक यात्रा-शील स्थिति है .पूंजीवादी व्यवस्था में वैयक्तिक आर्थिक मुक्ति निम्न-वर्ग से निकलकर उच्च -वर्ग में शामिल हो जाने से ही सम्भव है .पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक निम्न वर्ग में जन्मे व्यक्ति के लिए निम्न वर्ग से बाहर निकल कर उच्च वर्ग में शामिल हो जाना ही चरम पुरुषार्थ है .उच्च वर्ग में शामिल होने की आकांक्षा के साथ मध्य वर्ग का हर व्यक्ति वयक्तिक आर्थिक मुक्ति के एक सपने को जी रहा होता है .यह सपना पूंजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा सम्बन्धी संरचनात्मक आश्वासनहीनता से पैदा होता है .पूंजीवादी व्यवस्था हर व्यक्ति को आर्थिक असुरक्षा की परिस्थितियों में डाल देती है .इस मनोविज्ञान के कारण एक अन्तहीनहोड़ का जन्म होता है .अस्तित्व की एक निर्मम प्रतिस्पर्धा पूंजीवाद को अमानवीय बनाती है .इसके विकल्प  में साम्यवाद
पूंजी के सामूहिक और साझे निर्माण और उपभोग की परिकल्पना देता है .देखा जय तो सामूहिक सृजनशीलता के आवाहन के कारण साम्यवाद को सामूहिक पूंजीवाद और पूंजीवाद को वैयक्तिक पूंजीवाद कहा जाना चाहिए .इस प्रकार साम्यवाद पूंजीवादी व्यवस्था का स्वर्ग है तो वैयक्तिक पूंजीवाद नरक .फिर प्रश्न उठता है कि भारतीय मध्यवर्ग अपने अधिकांश में साम्यवादी हिंसक क्रान्ति को अराजकता पूर्ण भयावह दुष्कल्पना के रूप में क्यों देखता है ? इसका कारण यही है  कि
         मार्क्स द्वारा प्रतिपादित साम्यवादी क्रान्ति की परिकल्पना में यहूदी धर्म की सांस्कृतिक असहिष्णुता और उनकी धार्मिक कथाओं में मिलने वाली बर्बर शुद्धता और उच्छेदवादी नरसंहारों का सांस्कृतिक अचेतन छिपा हुआ है .ऐसे में क्रांतिकारी बनना नायकत्व की मध्ययुगीन मानसिकता और परिकल्पना की भी विरासत है .अन्यथा जब सामूहिक पूंजीवादी सृजनशीलता तक ही जन-मानस को ले जाने की बात है तो ऐसे साम्यवाद को अहिंसक साम्यवाद के रूप में भी सामूहिक आर्थिक ,सामाजिक,राजनीतिक लक्ष्य और महत्वाकांक्षा के रूप में प्रचारित किया जा सकता है .इसके लिए सामूहिक पूंजी की सृजनशीलता को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था-संरचनाएं और मानसिकता विकसित करनी होंगी .अपने हिंसक सांस्कृतिक अचेतन के कारण अठारहवी शताब्दी का परंपरागत मार्क्सवाद एक प्रतिक्रियाजीवी तनावपूर्ण असभ्य मानवीय समाज की रचना ही करेगा .  इस लिए मार्क्स के प्रति उचित श्रद्धांजलि तो यही होगी की साम्यवाद के भावी प्रारूप की खोज नए सिरे से सामूहिक पूंजीवाद की परिकल्पना के रूप में आधिक सभ्य ,शिष्ट ,स्वाभाविक और अहिंसक तरीके से किया जाय .संस्थागत या राजनीतिक क्रान्ति का एक पूंजीवादी तरीका यह भी हो सकता है कि सरकार हत्या करने की जगह क्रमशः या चरण बद्ध तरीके से मुद्रा या मुवावजा देकर सारी जमीने स्वयं खरीदती जाए  .इसके बाद वह जन-जीवन के पुनर्नियोजन के लिए स्वतन्त्र होती जाएगी .मानव जाति के सुरक्षित अस्तित्व के लिए यह कार्य बुरा नहीं है .ऐसा न होने का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हो रहा है कि भवन व्यक्ति की आवश्यकता और संख्या के अनुसार,जरुरत के हिसाब से नहीं बनाए जा रहे हैं ,बल्कि पूंजी-प्रदर्शन और प्रतिष्ठा के अनुसार बनाए जा रहे है .इस कारण से बढ़ती जनसँख्या के विपरीत कृषि-योग्य भूमि निरन्तर ही कम होती जा रही है .अनियन्त्रित-अनियोजित स्थापत्य में शहरों का विकास आधुनिक युग की सबसे गम्भीर समस्या है ,जिसकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है .
         अपनी इन्हीं दृष्टियों  के कारण समकालीन प्रगतिशील विचारक प्रायः मुझे शैक्षणिक या ज्ञानात्मक अतीतीकरण के शिकार लगते हैं .यह एक परिकल्पनात्मक पिछड़ापन है ,जिसकी ओर स्वयं को प्रगतिशील होने का श्रेष्ठताबोध जीने वाले बुद्धिजीवियों का ध्यान ही नहीं जाता .उन्हें क्रन्तिकारी नायकत्व के मध्य-युगीन माडलों और उसकी महत्वकांक्षी स्वप्न्दर्शिता से बाहर निकालने में अभी वक्त लगेगा.ऐसी अभिव्यक्ति पहल ९१ के शिवप्रसाद जोशी के संवाद जो सचिन गौड़ के साथ है-'सुविधा दुविधा के आन्दोलन और मध्य-वर्ग '  शीर्षक संवाद के निम्न स्थल में देखी जा सकती है -"क्योंकि वो वक्त शायद कुछ और ही होता है .वो तो इतिहास की करवट है ,हम और आप तो बस लुढ़कते ,बढ़ते,लपकते चले जाएँगे .या वहीँ ठिठके रह जाएँगे .उस विचार को आप कैसे गिरा देंगे.और ये कोई अमूर्तता नहीं है .क्रान्ति हमसे नहीं होगी तो वो ऐसा नहीं होगा कि होगी ही नहीं.वो किसी और से होगी .पर होगी जरुर ." श्री जोशी के इस सपने में क्रान्ति का हीरोइक इज्म भी साफ-साफ देखा जा सकता है.
           

अल्पना मिश्र की कहानी "वक्त के बेसमेंट और खिलाता हुआ पीला गुलाब " का आत्मकथ्यात्मक शिल्प और कथ्य के अतिरिक्त यथार्थ के प्रति अपने विशिष्ट कथात्मक व्यवहार एवं दृष्टिकोण के कारण ध्यान आकर्षित करता है .वाराणसी का आंचलिक एवं ब्राह्मण वर्णीय जातीय यथार्थ ,परम्परावादी सोच के कारण आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा जीवन स्तर के साथ मुक्त बाजार-व्यवस्था में जीवनयापन का संघर्ष इस कहानी को समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बनाता है .नई मुक्त बाजार-व्यवस्था में सवर्ण मानसिकता वाले चरित्रों की अपनी अलग अयोग्यताएँ इस कहानी को जाति -विमर्श की दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाती हैं .यह कहानी दलित वर्ग से अलग जातीय-सांस्कृतिक यथार्थ का आर्थिक दृष्टि से प्रतिपक्ष प्रस्तुत करतीहै .
हिन्दी में पत्रकारिता ,सत्ता और बाजार पर वर्चस्व के कारण बहुत से महत्वपूर्ण चिंतकों के कार्यों का समकालीन पाठकीय चेतना  में सही निवेश नहीं हो पाया है .प्रतिष्ठित होने के बावजूद डॉo सुरेन्द्र चौधरी का विस्तृत लेखन अभी भी हिन्दी जगत के सामने नहीं जा पाया है .सुरेन्द्र चौधरी की रचनावली सम्पादित करने वाले उदय शंकर का आलेख 'समकालीनता का आहत नैरन्तर्य '
सुरेन्द्र चौधरी के आलोचक वैशिष्ट्य की ऐतिहासिक एवं वैचारिक पृष्ठभूमि की पड़ताल प्रस्तुत करता है .सामाजिक -सांस्कृतिक अंतर्लयन  की प्रक्रिया का अध्ययन  सिर्फ समकालीन ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक यथार्थ की प्रक्रियाओं की भी पड़ताल डॉसुरेन्द्र चौधरी के चिंतन और लेखन-कर्म को महत्वपूर्ण बनाती है .उनके साहित्य के समर्पित अध्ययन से उदय शंकर एक आधिकारिक विशेषज्ञ के रूप में उभरे हैं .उदय शंकर की सूचना के अनुसार गया और मगध का ऐतिहासिक अध्ययन 'मिथक और ब्राह्मणवाद ' ,कहानी की समकालीनता 'तथा 'भारतीय कृषक समुदाय की प्रागैतिहासिक पृष्ठभूमि 'जैसी अप्रकाशित पांडुलिपियाँ डॉo चौधरी को समाजशास्त्रीय महत्व के एक जमीनी विचारक के रूप में भी सामने लती हैं .उनके अनुसार समकालीन यथार्थ की पूरकता और अंतर्लयन की प्रक्रियाएं उनकी कथा-आलोचना को समझाने के लिए भी महत्वपूर्ण सूत्र हैं .
            समकालीन भारतीय यथार्थ के सम्बन्ध में पूरकता और अंतर्लयन सम्बन्धी डॉo चौधरी की अवधारणाओं को स्पष्ट करने के लिए उदय शंकर उनकी निम्न लिखित पंक्तियाँ उद्धृत करते हैं -
"मेरी दृष्टि में समकालीन यथार्थवाद का अर्थ दो रूपों में अपने को प्रकट करता है ;एक जनता और व्यवस्था के नये अंतर्विरोध के रूप में और दूसरा ,जनता के बीच के अंतर्विरोध के रूप में.ये दोनों ही प्रकार के नए अंतर्विरोध हमारे समाज में आजादी के बाद प्रकट होते हुए एक नया सामाजिक अस्तित्व धारण कर लेते हैं .अतः इन अंतर्विरोधों के सन्दर्भ में ही हम आजादी के बाद की सामाजिक वास्तविकता की धारणा को स्पष्ट कर सकते हैं."(पृo २५९)  उदय शंकर के अनुसार सुरेन्द्र चौधरी के यहाँ 'समकालीनताके विभिन्न स्वरों को पकड़ने पर जोर है और उन सभी स्वरों को समकालीन यथार्थ में अंतर्लायित होता हुआ देखना चाहते हैं .डॉनम्वर४ सिंह की कहानी-आलोचना इस अंतर्लयन को बाधित कराती है 'समकालीन यथार्थ को आहात कराती है .(पृo २६२ )
भारतीय यथार्थ के सन्दर्भ में उनका यह इतिहास-बोध भी महत्वपूर्ण है कि'आजादी जैसे तात्कालिक लक्ष्य के कारण स्थगित अंतर्विरोधों को आजादी नें पनपने की एक जमीन दी .इसने निरंतरता को बाधित किया .पूर्ववर्ती पीढ़ी के ऊपर जो हमला संभव हुआ ,वह भी इसी आहत नैरन्तर्य के कारण संभव हुआ .रचना और परिस्थिति की भी संगति बाधित होती है .अंतर्विरोध स्वीकार का भी था और नकार का भी .ये सारे अंतर्विरोध अगर किसी एक लेखक में मिलते हैं तो वे मुक्तिबोध हैं .(पृo २६४ )
               मौलिक और प्रासंगिक चिंतन की दृष्टि से वैभव सिंह का वैचारिक निबंध "लेखक : नैतिकता और स्वप्न" स्थाई महत्व की साहित्यिक उपलब्धि है .यह लेख सृजन की वैयक्तिक आकांक्षा और आवश्यकता तथा उसकी सामाजिक नैतिक प्रस्थिति के द्वंद्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों की दार्शनिकी प्रस्तुत करने का प्रयास करती है . महत्वपूर्ण यह है की वैभव नें लेखक के परंपरागत कर्त्तव्य और नैतिकता से बाहर भी उसकी भूमिका और संभावना को तलाशने का प्रयास किया है .कुछ उद्धरण 'आलोचना में उनके आधुनिक हस्तक्षेप 'की पुष्टि करने में सहायक हो सकते हैं -'लिखना वह कौशल है जिसमें कल्पनाओं का विस्तार होता है .एक कल्पनाशील प्राणी ही लेखक या ज्ञान की खोज में भटकने वाला दार्शनिक -वैज्ञानिक बन सकता है .बाज वक्त कुछ लेखक केवल विद्वतापूर्ण बैटन और तर्कों के बीच रहना चाहते हैं और कल्पनाशीलता के जोखिम से खुद को अलग कर लेते हैं .वे ज्ञान की बातें करते हैं जो जरुरी होती है पर वे सृजनशीलता की यातनाओं से बचाते हैं .इसलिए भी क्योंकि कल्पनाओं की दुनिया नैतिकता और अनैतिकता के दायरों से बाहर जाकर ही संभव होती है ."(पृo २६८ )"प्रायः कम अच्छे लोग अच्छा लेखन करते हैं और अधिक अच्छे लोग ख़राब लेखन .मीरा हो या मंटो किसी के पास इसका प्रमाण नहीं था कि वे अपने समय के शरीफ और अच्छे नागरिक हैं .शराफत के बाड़ों को लांघकर ,लोकलाज त्यागकर ही उन्होंने साहित्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी या सही निर्वाह भी किया है .कथित नागरिक समाज नें मीरा को भी त्याग दिया था और अक्सर ही मंटों को भी ."(पृo २६९-२७० )
        इसमें संदेह नहीं कि नेतृत्व कारी समर्थ मस्तिष्कों का जोखिमपूर्ण आत्मनिर्णय ही एक नए कल्पनाशील मानवीय भविष्य को सृजित करता आया है .इतिहास में अनेक बार यह निर्णय अकेले और कई बार विरोध के बावजूद लिया गया है .यद्यपि वैभव इस सवाल में निहित सामाजिकता और असामाजिकता की भूमिका को विस्तार या ठीक से समझा नहीं पाएं हैं ,न ही अप्रचलित-अविज्ञापित नए सही विवेक पर लोक-प्रिय विवेक के हिंसक बाध्यकारी  सामूहिक इतिहास के निर्माता दबाव को ही समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य और शब्दावली में व्याख्यायित कर पाए है-संभवतः लेख की सीमा या लेखकीय क्षण की साहित्यिक चित्ति के कारण ,लेकिन इस विषय के समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य की केन्द्रीय और प्रामाणिक समझ उनके पास है -"आज का लेखक धर्म या सामंत के इशारों या उसके आश्रय में जीने की बाध्यता से मुक्त है और उसने फ्रेंच क्रान्ति ,औद्योगिक क्रान्ति ,रुसी क्रान्ति तथा आधुनिक भारतीय समाज-निर्माण की प्रक्रिया से उपजे परिवर्तनों की परम्परा को आत्मसात किया और अपनी बदली ही भूमिका का अनुभव भी किया है .धर्म या मनोरंजन तक लेखन को सीमित रखने की विवशता उसके आगे नहीं है पर इसी नें उसके दायित्व को बाधा भी दिया.इसीलिए नैतिकता और अपने लेखन की सामाजिक भूमिका के बारे में सचेत होना ऐतिहासिक रूप से तर्कसंगत और जरुरी भी लगता है .लेकिन इसी आधुनिकता नें उसे पहले से अधिक अंतर्द्वंद्व ,व्यक्तित्व-विभाजन और अवसाद भी दिए है .( पृo २७१ )'उसकी अवस्था उस मोमबत्ती के लौ की तरह रही है ,जिसे अंधकार से ही नहीं बल्कि अंधकार को बढ़ने वाली रोशनियों से भी अकेले ही लड़ना है .यानी लेखक अगर अपना खास विचार और नैतिकता को चुन लें तो भी उसके साथ उसका अकेलापन बढ़ जाता है .भाषा के भीतर की रहस्यमय और अपेक्षाकृत जटिल दुनिया में उसके प्रवेश ने उसे अर्थों के नए विरत विश्व के आगे खड़ा कर दिया जहाँ उसकी इन्द्रियां,बोध और भावनाएं किन्हीं तुफानो का सामना करने लगती हैं और उसकी आवेगमयता उसके स्नायविक तंत्र की परीक्षाएं लेने लगती हैं .(व्ही २७१ ) वैभव नें वर्तमान अर्थ-केन्द्रित विश्व में राजनीतिक तन्त्र की घटती भूमिका को उचित ही रेखांकित किया है -"अब हल यह है कि लेखक जिस राजनीति को अपने लिए मूल्य-स्रोत के रूप में देखता था ,वह विश्व में हाशिए पर जाने लगी और लेखक ऐसी अंतर्विरोधी दशा में पहुँच गया जहाँ लगभग सौ साल पुराने प्रश्न उसके सामने थे कि-'किधर जाएँ .'(पृ० २७३ ) वैभव पूर्ण स्वतंत्रता के सैद्धांतिक अनौचित्य को भी रेखांकित करते हैं -"वह स्वतन्त्र होकर दुनिया को देखना चाहता है ,उसकी संरचनाओं को समझना चाहता है .पूर्ण स्वतंत्रता को हासिल कर नीत्शे के सुपरमैन की तरह बन जाना भी कई लेखकों का कम्य रहा है .पर संभवतः पूर्ण स्वतंत्रता जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं होता है पर उसी को लेकर सबसे अधिक आकर्षण मन में मौजूद रहता है .उसकी निरन्तर खोज अपने को लेकर भी है और अपने जीवन-मूल्यों  को भी .(पृo २७४)
        चन्दन पांडे की कहानी 'लक्ष्य शतक का नारा ' भ्रष्ट -यथार्थ पर आधारित डायरी (मूलतः बही)  शैली में लिखी गयी व्यंग्य रचना है .थाने पर होने वाली अवैध वसूली सत्ता के दुरूपयोग से ऊपरी आमदनी के विविध प्रकार ,मंत्रियों के कदाचार ,नियुक्तियों में धांधली  और घूस आदि के प्रकरणों का कथांकन किया है .

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

राजनीतिनामा

भारत जैसे देश में एक स्वस्थ राजनीतिक तंत्र  लिए पेशेवर राजनीति का उदय होना जरुरी है। सबसे अच्छा दिन वह होगा जब मतदाता के पास एक राजनीतिक उपभोक्ता का विवेक होगा।  वह राजनेताओं को एक उपभोक्ता  तरह ही डरा सकेगा कि  सही तो मैं किसी और से सेवाएं  लूंगा। यद्यपि आज भी देश में कई राजनीतिक दल हैं। पहली दृष्टि  में भ्रम  होता है कि मतदाता स्वतन्त्र है। लेकिन समस्या यह है कि उसकी यह स्वतंत्रता सापेक्ष है। वह इस   दृष्टि से अविवेकी एवं अपरिपक्व है कि उसका विवेक सामाजिक यानि जातीय आधारों पर सामूहिक निर्णयशीलता की शिकार है। उसकी निष्ठा बहुत कुछ पूर्वनिर्धारित है। उसकी प्रतिबद्धता एवं जड़ता तय है।

                 भारतीय मतदाताओं की इस लाचारी को कुछ इस प्रकार समझना होगा। सभी दाल एवं उसके संचालक नेतागण पहले से ही जानते है कि किस क्षेत्र में किस जाति के मतदाताओं की बहुलता है। दलों की विचारधारा कुछ भी हो वे प्रत्याशियों का चयन अतिरिक्त योग्यता की तरह जातीय आधार पर ही करती हैं। सबसे पहले प्रत्याशी चयन करने वाला दल दूसरे दलों को फिर बचे  हुए जातीय समीकरणों के आधार पर प्रत्याशी चयन करने की चुनौती देता है। समीकरण कुछ इस तरह के बनाए जाते हैं कि पहले घोषित प्रत्याशी की जाति से कम जनसंख्या वाली जाति का प्रत्याशी न चुना जाय।