सच -मच ही वह एक बड़ा आदमी नहीं था। लेकिन उसकी जिंदगी एक बड़े सपने के नाम समर्पित अवश्य थी। जीते-जी और अपनी मृत्यु के बाद भी वह स्वयं को एक बड़े सपने के स्मारक में बदल देना चाहता था।
एक पुरानी सड़क ,जिसे सार्वजनिक निर्माण -विभाग नें पुराने समय की घुमावदार सदका को सीधी करते समय छोड़ दिया था -वहीं उसने मिटटी से थपथपाकर रची थी एक आदमकद कब्र। नया हरा वस्त्र खरीद बाजार से और उसे पुरे सम्मान -प्रदर्शन के साथ ढँक दिया। सांध्यकालीन भ्रमण में मैंने उसे ऐसा करते देखा तो पूछा -"बाबा ! इसमें लाश तो किसी की है नहीं फिर कब्र किसकी बना रहे हैं ?"
उसने कहा -"सैय्यद की। सैय्यद नें सपना दिया है कि उनके लिए एक कब्र बनाकर उसमें बसा दो। "
मेरी तरह आस-पास के और लोगों नें भी देखा। किसी कि निजी जमीन पर कब्र नहीं बन रही थी। वह जो कह रहा था वह पूरी तरह उसी के अपने ईमान पर ही टिका था और उसकी सच्चाई के लिए भी वही जिम्मेदार था। दूसरे उसके सच के प्रति पूरी तरह उदासीन थे। आस-पास के ग्रामीणो नें अवश्य ही उस पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया और उसे पेशेवर माना। शायद इसीलिए नए सैय्यद के प्रति इलाके में आस्था का आभाव था। कुछ इसलिए भी कि स्थानीय जनता के पास अपने सैय्यद पहले से ही थे। पुराने सैय्यद यद्यपि सड़क से दूर थे लेकिन स्थानीय जनता में उनकी काफी प्रतिष्ठा थी। राजमार्ग पर होने के कारण नए सैय्यद का प्रभाव-क्षेत्र
बाहर से आने वाले चालकों और सवारियों पर विशेष था। दुर्घटना और अश्रद्धा करने पर अनिष्ट के भय नें नए सैय्यद को भी अपने ढंग से स्थापित करा दिया और उनकी मजार को अधिक भव्य करा दिया।
वैसे भी डौडियाखेड़ा के खजाने कि तरह उसके दिमाग और दावे का ऐसा एक्स रे सम्भव नहीं था कि उसके सपनों की असलियत का पता लगाया जा सकता। मुख्य सड़क से हटकर उपेक्षित जगह पर बने होने के कारण सार्वजानिक निर्माण विभाग के कर्मचारियों और अधिकारीयों को उसकी अनधिकृत कब्र पर कोई आपत्ति नहीं थी।
सड़क के किनारे दृष्टि सीमा में लोग सहसा एक जीती -जगती कब्र देखकर डरने लगे। किसी भी पल हो सकने वाली दुर्घटना से मृत्यु का नजदीकी रिश्ता तथा कब्र के स्वामी की काल्पनिक अवमानना उनकी जेबों को ढीली करने लगी थी। बहुत दिनों बाद लौटा तो देखा मैंने कि उस मजार की ऊंची दीवारें और भव्य छत जीवन को अब भी अपना हिस्सा देने के लिए डरा रहीं थीं। मजार का संस्थापक निर्माता सम्भवतः इस दुनिया में नहीं था। मजार का निर्माता बूढ़ा होकर स्वयं एक कब्र में बदल चूका था। जा लेटा था उसी स्वनिर्मित कब्र कि बगल में। अब उस मिटटी में सचमुच एक लाश थी। अब वह बिलकुल ही झूठा नहीं था। सड़क पर भीड़ बढ़ रही थी और उसी अनुपात में दुर्घटनाएं भी। अब लोग बहुत बड़ी संख्या में उसकी मजार पर सिजदा कर रहे थे। उसका बड़ा होने का सपना पूरा हो चूका था। (सत्य घटना पर आधारित यह संस्मरण गुमनाम,उपेक्षित और अचर्चित कब्रों के नाम समर्पित हैं )
एक पुरानी सड़क ,जिसे सार्वजनिक निर्माण -विभाग नें पुराने समय की घुमावदार सदका को सीधी करते समय छोड़ दिया था -वहीं उसने मिटटी से थपथपाकर रची थी एक आदमकद कब्र। नया हरा वस्त्र खरीद बाजार से और उसे पुरे सम्मान -प्रदर्शन के साथ ढँक दिया। सांध्यकालीन भ्रमण में मैंने उसे ऐसा करते देखा तो पूछा -"बाबा ! इसमें लाश तो किसी की है नहीं फिर कब्र किसकी बना रहे हैं ?"
उसने कहा -"सैय्यद की। सैय्यद नें सपना दिया है कि उनके लिए एक कब्र बनाकर उसमें बसा दो। "
मेरी तरह आस-पास के और लोगों नें भी देखा। किसी कि निजी जमीन पर कब्र नहीं बन रही थी। वह जो कह रहा था वह पूरी तरह उसी के अपने ईमान पर ही टिका था और उसकी सच्चाई के लिए भी वही जिम्मेदार था। दूसरे उसके सच के प्रति पूरी तरह उदासीन थे। आस-पास के ग्रामीणो नें अवश्य ही उस पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया और उसे पेशेवर माना। शायद इसीलिए नए सैय्यद के प्रति इलाके में आस्था का आभाव था। कुछ इसलिए भी कि स्थानीय जनता के पास अपने सैय्यद पहले से ही थे। पुराने सैय्यद यद्यपि सड़क से दूर थे लेकिन स्थानीय जनता में उनकी काफी प्रतिष्ठा थी। राजमार्ग पर होने के कारण नए सैय्यद का प्रभाव-क्षेत्र
बाहर से आने वाले चालकों और सवारियों पर विशेष था। दुर्घटना और अश्रद्धा करने पर अनिष्ट के भय नें नए सैय्यद को भी अपने ढंग से स्थापित करा दिया और उनकी मजार को अधिक भव्य करा दिया।
वैसे भी डौडियाखेड़ा के खजाने कि तरह उसके दिमाग और दावे का ऐसा एक्स रे सम्भव नहीं था कि उसके सपनों की असलियत का पता लगाया जा सकता। मुख्य सड़क से हटकर उपेक्षित जगह पर बने होने के कारण सार्वजानिक निर्माण विभाग के कर्मचारियों और अधिकारीयों को उसकी अनधिकृत कब्र पर कोई आपत्ति नहीं थी।
सड़क के किनारे दृष्टि सीमा में लोग सहसा एक जीती -जगती कब्र देखकर डरने लगे। किसी भी पल हो सकने वाली दुर्घटना से मृत्यु का नजदीकी रिश्ता तथा कब्र के स्वामी की काल्पनिक अवमानना उनकी जेबों को ढीली करने लगी थी। बहुत दिनों बाद लौटा तो देखा मैंने कि उस मजार की ऊंची दीवारें और भव्य छत जीवन को अब भी अपना हिस्सा देने के लिए डरा रहीं थीं। मजार का संस्थापक निर्माता सम्भवतः इस दुनिया में नहीं था। मजार का निर्माता बूढ़ा होकर स्वयं एक कब्र में बदल चूका था। जा लेटा था उसी स्वनिर्मित कब्र कि बगल में। अब उस मिटटी में सचमुच एक लाश थी। अब वह बिलकुल ही झूठा नहीं था। सड़क पर भीड़ बढ़ रही थी और उसी अनुपात में दुर्घटनाएं भी। अब लोग बहुत बड़ी संख्या में उसकी मजार पर सिजदा कर रहे थे। उसका बड़ा होने का सपना पूरा हो चूका था। (सत्य घटना पर आधारित यह संस्मरण गुमनाम,उपेक्षित और अचर्चित कब्रों के नाम समर्पित हैं )