जीवन का रास्ता चिन्तन का है । चिन्तन जीवन की आग है तो विचार उसका प्रकाश । चिन्तन का प्रमुख सूत्र ही यह है कि या तो सभी मूर्ख हैं या धूर्त या फिर गलत । नवीन के सृजन और ज्ञान के पुन:परीक्षण के लिए यही दृष्टि आवश्यक है और जीवन का गोपनीय रहस्य । The Way of life is the way of thinking.Thinking is the fire of life And thought is the light of the life. All are fool or cheater or all are wrong.To create new and For rechecking of knowledge...It is the view of thinking and secret of life.
सोमवार, 8 अप्रैल 2013
विमर्शात्मक आलोचना का प्रतिमान
पुस्तक-"कुबेरनाथ राय :सांस्कृतिक-साहित्यिक दृष्टि
लेखक -डॉ ० पी .एन.सिंह
प्रकाशक-प्रतिश्रुति प्रकाशन ,7 a बेंटिक स्ट्रीट ,कोल्कता-700001
दूरभाष - 22622499
MAIL-prakashan@gmail.com
आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी के बाद अपनी मौलिक शैली के साथ ललित निबंधकार के रूप में स्थापित श्री कुबेरनाथ राय की साहित्यिक विशेषताओं का आलोचनात्मक विवेचन डॉ ०पी.एन.सिंह की पुस्तक "कुबेरनाथ राय :सांस्कृतिक-साहित्यिक दृष्टि " से पूर्व इतनी सूक्षमता ,गंभीरता और प्रामाणिक विशेषज्ञता के साथ नहीं मिलता.चाक्षुष सौन्दर्य -प्रतिमान के रूप में 'लालित्य 'शब्द का प्रचालन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी नें कालिदास के साहित्य से लेकर किया था .उनके पूर्व ऐसे निबंधों के लिए वैयक्तिक या स्वच्छंद शैली के निबंध जैसे विशेषण प्रचलित थे .चाक्षुष सौन्दर्य -प्रतिमान होने के करण ललित-निबंधों में मनोरम कल्पनाशीलता ,स्मृति -परकता ,सजीव एवं रागपूर्ण दृश्यात्मकता के साथ उपस्थित होती है .आचार्य द्विवेदी की भांति ही कुबेरनाथ राय के ललित निबंधों में मौलिकता एवं जिज्ञासा से भरपूर ,दृश्य-बिम्बों -ऐन्द्रिक छवियों से समृद्ध बौद्धिक यायावरी मिलाती है .
पुस्तक में ६८ पृष्ठ तथा ६ पृष्ठ लम्बी सन्दर्भ -सूची वाला महाकाव्यात्मक मुख्य लेख "कुबेरनाथ राय :सांस्कृतिक-साहित्यिक दृष्टि " हिंदी आलोचना में न्य प्रतिमान स्थापित करने वाला श्रमसाध्य लेख है.इस प्रतिमानता का अतिरिक्त आधार श्री कुबेरनाथ राय और डॉ ० पी.एन.सिंह दोनों का ही अंग्रेजी साहित्य का अधिकारी विद्वान् होना भी है .इससे कुबेरनाथ राय की उन स्मृतियों और स्थापनाओं की सम्यक पड़ताल हो पाई है ,जिनका सम्बन्ध अंग्रेजी साहित्य से था .श्री कुबेरनाथ राय नें मार्क्सवादी भौतिक-दृष्टि और चिन्तन-पद्धति की भी आलोचना की है .(पृष्ठ४२ ) ऐसे में घोषित मार्क्सवादी रहे डॉ ०पी.एन.सिंह द्वारा उनके मार्क्सवाद विरोध की गंभीर अधिकारिक समीक्षा इस आलोचना को और महत्वपूर्ण बनाती है .इस पुस्तक का एक बड़ा हिस्सा कुबेरनाथ राय द्वारा की गयी मार्क्सवाद की आलोचना और उस पर मार्क्सवाद के अधिकारी विद्वान् डॉ ० पी.एन.सिंह की प्रत्यालोचना से सम्बंधित अत्यंत गम्भीर एवं ज्ञानवर्धक विमर्श प्रस्तुत करता है .पृष्ठ संख्या ४० से ५३ तक भारतीयता के सन्दर्भ में कुबेरनाथ राय के निबंधों पर आधारित मार्क्सवाद विमर्श चलता रहता है .दो समर्थ विचारकों की मार्क्सवाद-विरोधी और समर्थक मानसिकता नें पाठकों के लिए रोचक और ज्ञानवर्धक विमर्श उपस्थित कर दिया है .इससे भारत के पुनर्निर्माण के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की उपयोगिता और अनुपयोगिता सम्बन्धी सही दृष्टि और विवेक विकसित करने में अच्छी मदद मिलती है .
डॉ ०पी.एन.सिंह को श्री कुबेरनाथ राय की स्थापित महत्ता और सम्मान का अहसास है .इसीलिए उन्होंने अपनी मार्क्सवादी कसौटी पर उनकी कई मान्यताओं को अस्वीकार्य पते हुए भी कुबेरनाथ राय की निष्कर्षात्मक सराहना ही की है .इन शब्दों में कि"आधुनिकता-बोध और आधुनिक लेखन के प्रति उनके घोषित अनादर के बावजूद ,उनमें बहुत कुछ है जो गम्भीर मीमांसा की अपेक्षा रखता है "(पृष्ठ९५)"श्री राय की संकल्पनाएँ तीव्र रूप से इन्द्रियों को अच्छी लगाने वाली है और उनकी शैली आकर्षक है .वे जितने प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति संग्यशील हैं ,उतने ही मानव-आत्मा के प्रति भी .उनकी गद्य-शैली औदत्य से परिपूर्ण है तथा इसमें ओज की भी पराकाष्ठा है .प्रत्येक महत्वपूर्ण लेखक की तरह वे भी नए-नए मुहावरे गढ़ते हैं ,जो गौरव -ग्रंथों तथा ग्रामीण -जीवन से जीवंत हो उठाते हैं .श्री कुबेरनाथ राय को प्रसिद्धि देने वाली दूसरी विशेषता उनका अखिल भारतीय चित्रांकन तथा इस तथ्य पर बार-बार जोर देना है कि भारतीय संस्कृति आर्य ,निषाद ,किरात ,द्रविड़ अंशों द्वारा निर्मित एक पूर्णता है .(प्रि१२,भूमिका ) वे(कुबेरनाथ राय )'रस-आखेटक' और 'बोध-आखेटक' दोनों थे .उनके रस-आखेटक स्वभाव नें एक तरफ उन्हें निषादों ,किरातों और गन्धर्वों की आनंदवादी रसमयता से संपृक्त रखा ,तो दूसरी तरफ उनकी आर्य -चित्ति और सुलभ-बोध आखेटी स्वभाव नें उन्हें 'शाश्वत प्रमुल्यों 'के संधान हेतु विचार और दर्शन की अमूर्त दुनिया में जाने के लिए विवश कर उन्हें मर्यादा-बोध का आग्रही बनाया ,जहाँ से वे आधुनिक जीवन और साहित्य पर बेबाक टिपण्णी करते रहे .दर असल इसी समन्वय में उनकी वैष्णवता निहित है .वे एक ही साथ 'कृष्णत्व' और 'रामत्व' दोनों के आराधक थे .उनकी दृष्टि में कृष्णा का रसिया रूप ही परम-सत्ता का 'रस-रूप' है और राम का 'मर्यादा रूप 'उसका बोध-रूप .(पृष्ठ९२ )
अपने लम्बे आलेख में इन निष्कर्षात्मक -प्रशासक टिप्पणियों तक पहुँचने के पहले डॉ ० पी.एन.सिंह पाठकों को श्री कुबेरनाथ राय के विपुल निबंध-साहित्य के पाठकीय अनुभव और उद्धरण -सन्दर्भों से गुजरते हैं .श्री कुबेरनाथ राय के निबंधों की सार्थक एवं आस्वाद धर्मी चयनित प्रस्तुति इस पुस्तक की विशेषता है .मात्र डॉ आलेखों वाली इस पुस्तक में दूसरा आलेख कुबेरनाथ राय की मृत्यु के पश्चात् श्रद्धांजलि स्वरूप लिखा गया 'समकालीन सोच 'में प्रकाशित समपद्कीय है.
डॉ ० पी.एन.सिंह कुबेरनाथ राय को टी.एस.इलिएट की तरह गम्भीर साहित्येतर सरोकार वाला साहित्यकार मानते हैं .उनके अनुसार इलिएट का बोध मूल ईसाइयत की विकासशील एवं समावेशी भावना द्वारा अनुकूलित है तो श्री राय का 'नव्य आर्य ' संस्कारों की विकासशील एवं समावेशी वैष्णवता द्वारा .(पृष्ठ १६ )वे श्री राय को मर्यादा-बोध संपन्न निबन्धकार मानते हैं .उनकी इस अभिव्यक्ति का समर्थन करते हैं कि श्री राय के निबंध 'क्रुद्ध-ललित 'स्वभाव वाले हैं तथा उनका सम्पूर्ण साहित्य या तो क्रोध है ,नहीं तो अंतर का हाहाकार ....आक्रोश उनके निबंधों में एक स्थाई भाव है .(पृष्ठ १७ )
डॉ ० सिंह के अनुसार श्री राय की 'भाषिक क्लिष्टता ,सन्दर्भों और उद्धरणों की बहुलता ,अनपेक्षित शब्द -व्युत्पत्तिपरकता ,संस्कृति-बोध के नाम पर उनका मुखर अतीत -मोह और आधुनिकता की सम्पूर्ण अस्वीकृति इत्यादि साधारणीकरण में बाधक बनाते हैं .उनमें वित् ,ह्यूमर ,रोचक व्यंग्य आदि का आभाव खटकता है .लेकिन वे निरंतर गाम्भीर्य ,मर्यादा और सरोकारों की विराटता का एहसास कराते हैं,जो ललित निबंधों के दायरे के बाहर अधिक उपयुक्त होता .(पृष्ठ १८) हिंदी पाठकों के मानसिक क्षितिज का विस्तार श्री राय के निबंधों का केन्द्रीय उद्देश्य है .श्री कुबेरनाथ राय की काव्य-संवेदना महाभारत ,रामायण ,श्रीमद्भागवत ,राम चरित मानस आदि से संस्कारित है .
डॉ ० सिंह श्री राय के रसवाद भाववाद की साहित्यिक मुद्रा को बदलाव विरोधी और अव्यवहारिक मानते हैं .(पृष्ठ २१ )सिर्फ मराल(१९९० ) के निबंधों में उन्हें वे यथार्थ से सचमुच टकराते दीखते हैं .'प्रिया नीलकंठी '(१९६९) के निबंध 'मनियारा सांप ' के इस उद्धरण-"भावुकता सहस्र फण शेष है ' के आधार पर कुबेरनाथ राय को मूलतः एक रोमांटिक मिजाज वाला साहित्यकार सिद्ध करते हैं .(पृष्ठ २३ ) डॉ ० पी.एन.सिंह के अनुसार 'रोमन मिजाज व्यक्ति अपनी सामान्य छोटी -छोटी भूमिकाओं में ही बहुत गम्भीर होता है और गौरव-बोध से पीड़ित हुआ करता है .समसामयिक विराट एवं जटिल चुनौतियों के सन्दर्भ में श्री कुबेरनाथ राय का साहित्यिक-सांस्कृतिक त्व्वर कुछ रोमैंटिक है और इस करण 'माक हीरोइक भी दिखता' है .(पृष्ठ २५ )
अपने लम्बे आलेख में डॉ ० पी.एन. सिंह श्री कुबेरनाथ राय की काव्य -दृष्टि को समझाने समझाने के लिए की पृष्ठ देते हैं .इस क्रम में उनकी इस दृष्टि का रेखांकन करते हैं कि'इस (साठोत्तरी कविता )में नकारात्मक दृष्टि का ही सर्वांगीण प्राधान्य है और इस करण इसमें 'बहुकालीन और दूर प्रसादी तत्वों ' का आभाव है....अतः उनकी दृष्टि में समूची साठोत्तरी कविता वर्तमान 'गलित रोमन'(डिकाडेंट रोमांटिसिज्म )की संपोषक है .(पृष्ठ २७ )
श्री कुबेरनाथ राय साठोत्तरी हिंदी साहित्य को उग्रवादी पीढ़ी का साहित्य मानते हैं ,जो करुणा-बोध विहीन है और इसी कारण 'आसुरी एकाधिकार '(सुखेच्छा ) और आसुरी भूमा (विस्तारवाद ) का शिकार होने के साथ न धर्मी भाव- त्रिभुज (हताशा,क्रोध और भय )से भी ग्रस्त है .(पृष्ठ २८ )
रस-आखेटक के विषद-योग में वे "मूल समस्या कल्पना को कवी के कर्म के केंद्र में पुनः प्रतिष्ठित करने की मानते हैं ,जो प्रकृति और नारी दोनों से सम्मोहित होने पर ही संभव है .( पृष्ठ २९ ) डॉ ० पी.एन.सिंह के अनुसार 'राय साहब अपने हठी रसवाद ,रहस्यमयता तथा परवास्तव में अटूट विश्वास के चलते 'श्रमिक संस्कृति 'और समाजवादी साहित्य की सार्थक भूमिका को अस्वीकार करते हैं .कुबेरनाथ राय के इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में किसमाजवाद का वह चेहरा जो व्यक्ति ,सनातनी मूल्यों एवं राष्ट्रीयता को अस्वीकार करता है ,हमारे साहित्य के परिवेश में कोई स्थाई भूमिका नहीं अभिनीत कर सकेगा .स्थाई भूमिका एवं दीर्घजीवी पृष्ठभूमि के लिए समाजवाद का नया चेहरा खोजना होगा ."(विषाद योग ,पृष्ठ १५० )
डॉ ० पी.एन.सिंह की इस पुस्तक की महत्वपूर्ण उपलब्धि श्री कुबेरनाथ राय के भाव-बोध ,रीझ 'रूचि और स्थापनाओं को समाजवादी और आधुनिक समाजशास्त्रीय नजरिए से समझाने का प्रयास करना है .डॉ ० सिंह के अनुसार कुबेरनाथ राय के मूल्य और अवधारणाओं का आधार कृषक संस्कृति है .इसे वे क्रिष्टोफर काडवेल का सन्दर्भ देते हुए "इन्फैंटाईल रिट्रीट 'यह एक प्रकार की नस्त्रेल्जिया,सांस्कृतिक न्युरोसिस घोषित करते हैं .(पृष्ठ३३ )डॉ ० सिंह के अनुसार 'श्री राय के काव्य -मूल्य 'सुषमा ' और शील -नद्धता 'स्थितिशील कृषि -समाजों के काव्य -मूल्य हैं ,आधुनिक संक्रमणशील समाजों के नहीं .अतः आधुनिक साहित्य में कल्पना की उर्वरता एवं सक्रियता ,बिम्ब एवं प्रतीक-विधान विश्वसनीय काव्य-लोक गढ़ने की क्षमता आदि का आकलन सुषमा और शीलनद्धता के दायरे के बाहर ही संभव है .'(पृष्ठ ३४ ) इस तरह डॉ ० सिंह साठोत्तरी हिंदी कविता के नामवर सिंह द्वारा रेखांकित उन नकारात्मक प्रतिमानों-'तनाव,''व्यंग्य ',विडम्बना ','बुनावट ','सपाटबयानी ' और 'अन्विति " आदि के मानवीय औचित्य को श्री राय की निरस्ति के विपरीत सही पते हैं .
इस पुस्तक का एक बड़ा हिस्सा श्री कुबेरनाथ राय द्वारा की गयी मार्क्सवाद की आलोचना और उसपर मार्क्सवाद के अधिकारी विद्वान् डॉ ० पी.एन.सिंह की प्रत्यालोचना से निर्मित अत्यंत गम्भीर एवं ज्ञानवर्धक विमर्श प्रस्तुत करता है . पृष्ठ सं० ४० से लेकर ५३ तक भारतीयता के सन्दर्भ में मार्क्सवाद विमर्श चलता रहता है .इसी क्रम में मार्क्सवाद के बाहर और भीतर के अनेक विचारकों के विचारों का सन्दर्भ देते हुए मार्क्सवाद के भीतर के विचारकों बर्नास्ताइन ,कात्सकी,लुकाच ,अडोर्नो ,अल्थ्युजर ,कार्लो कोव्स्की,रेमण्ड विलियम्स ,डेविट मेक्लेलान जैसे विचारकों द्वारा मार्क्सवाद की आलोचना के परिप्रेक्ष्य में कुबेरनाथ राय की मार्क्सवाद से असहमति की समीक्षा करते हैं .डॉ० पी.एन.सिंह के अनुसार मार्क्स का व्यक्ति की निजता से वैसा विरोध नहीं है जैसा कि कुबेरनाथ राय समझते हैं .मार्क्स की परिकल्पना का मनुष्य समाजवादी मूल्यों को जीने वाला व्यक्ति है ;अपनी सामूहिकता में ही वह निजता के अधिकारों को प्राप्त करता है ."कार्ल मार्क्स पूंजीवादी व्यक्तिवाद (जो केवल अपने लिए जीता है )के आदर्श को नकार कर "सामाजिक व्यक्ति के विकास को ऐतिहासिक कृत्य एवं दायित्व के रूप में देख रहे थे ."(पृ० ४१)भारत के सन्दर्भ में कुबेरनाथ राय एक विचारक के रूप में द्वंद्व और संघर्ष का निषेध चाहते हैं ,समन्वय,सहयोग और संयोग को भारतीयता के सन्दर्भ में महिमा-मंडित करते हैं .(पृ०४२ )इसी सन्दर्भ में मार्क्स के द्वंद्ववाद का विस्तृत परिचय प्रस्तुत करते हैं उनके अनुसार भारतीय स्मृतियों में भी सब कुछ अच्छा ही नहीं है .उसमें भी बहुत से युद्ध और हत्याएं हैं .इसके बावजूद कुबेरनाथ राय महासमन्वय का राग सोद्देश्यता के साथ गाते हैं -"हम इसकी चर्चा नहीं करेंगे तो और लोग करेंगे और वे "और "लोग इस चर्चा को द्वान्द्वामुलक ऐंठन देकर प्रस्तुत करेंगे ,इसके पीछे महासमन्वय की सारीप्रक्रिया अस्वीकृत करेंगे और अपने ही लोगों को गुमराह करेंगे ."(पृ० ४६)आगे के पृष्ठों पर समकालीन यथार्थ की उपेक्षा कर आस्था में छलांग लगाने के कुबेरनाथ राय के आवाहन को एक नकारात्मक स्थापना के रूप में रेखांकित करते हैं .डॉ.पी.एन सिंह उनके इस सुझाव को इस लिए ख़ारिज करते हैं कि पराभूत समुदाय या संस्कृतियाँ अपनी सामुदायिक आस्थाओं एवं परम्परापुष्ट विवेक के दायरे में सिमटकर अपनी आत्मरक्षा करती हैं ,लेकिन वे युग का प्रतिनिधि जीवन-बोध नहीं बनतीं.(पृ० ४८ )इस प्रकार डॉ ० सिंह श्री कुबेरनाथ राय की अनेक स्थापनाओं को राजनीतिक सृजनशीलता और समकालीन सरोकारों का विरोधी पते हैं .पूंजीवादी मूल्य जैसे सत्य ,अहिंसा,दया,संतोष ,विश्वास,दानशीलता ,वफ़ादारी आदि पूर्ण न्यायिक और समधानात्मक न होकर मात्र आंसू पोछने वाले हैं.(पृ० ४९ ) पी.एन.सिंह के अनुसार आज परोपकार-बोध का स्थान न्याय-बोध ले रहा है और आस्थागत विवेक का स्थान अनुभव-सिद्ध तार्किक विवेक .(पृ० ५० ) मार्क्सवादी होने के कारण राम की हिंसा को महाकरुणा समझना और लेनिन और माओ की हिंसा में उस महाकरुणा के दर्शन न करना खटकता है .
दर असल यह अकारण नहीं है कि श्री कुबेरनाथ राय का अधिकांश लेखन भारतीयता के समन्वयवादी आयाम को महिमा-मंडित करता रहता है .असम की राजनीति ,नक्सलवाद और जातीय आन्दोलनों नें उनमें समाधानात्मक प्रतिक्रिया के रूप में समंवय्बोध को केन्द्रीय स्वर बना दिया है .वे स्वयं जिस वर्ग और वर्ण से आते हैं ,उनमें वामपंथ भूमि छिनने का भय ही पैदा कर सकता है .लेकिन किसान पृष्ठभूमि से आने के करण उनका जीवन और जगत राग सैद्धांतिक और दार्शनिक ही अधिक है और वे पुरोहितवादी संरचनाओं में न होकर आदर्श एवं अस्मितापरक हैं .संभवतः इसीलिए कुबेरनाथ राय का लेखन अपील भी करता है .उन्होंने परम्परा और पुरातनता को भी अपने द्गंग से चुना और गढ़ा है .इसमें संदेह नहीं कि कुबेरनाथ राय एक सकारात्मक भारतीयता के परिकल्पक एवं प्रतिनिधि भाष्यकार हैं .यह भारतीयता आर्थिक दृष्टि से एक-दुसरे पर निर्भर पूरक जातीय समुदायों से बनी है .इसमे पूंजी वितरण और प्रवाह के धार्मिक तंत्र भी हैं वर्ण-व्यवस्था में एक भिक्षाजीवी जाति को सर्वोपरि स्थान प्रदान करना इसके पक्ष में भी जाता है .और यह भी कि यह पश्चिमी आधुनिकता से भिन्न ,विलोम और किसी भी प्रकार की तुलना के अयोग्यआदर्शवाद का प्रकार था .संभवतः इसीलिए इतिहास में यह उतनी अमानवीय भी नहीं रही है की उस पर गर्व नहीं किया जा सके .भारतीय संस्कृति के प्रति कुएर्नाथ राय की रीझ का यह भी एक करण हो सकता है .
स्वयं कुबेरनाथ राय का प्रत्यक्षतः पुरोहित जाति से न होना भी भारतीयता सम्बन्धी उनकी अवधारणाओं को महत्वपूर्ण और बहुत कुछ निर्दोष बनाता है .स्वीकार्य होने का एक अन्य कर्ण यह है कि कुबेरनाथ राय की अधिकांश स्थापनाओं का आधार धर्म का संस्कृति-विमर्श नहीं ,बल्कि समाज का संस्कृति-विमर्श है .अन्य ललित निबंधकारों की तरह कुबेरनाथ राय भी मानव-राग और आत्मीयता का स्वस्थ पर्यावरण बचाना चाहते हैं .वे आधुनिकता में पुनर्व्याख्या और प्रतिरोध के सम्वेदानाकर हैं .यह आधुनिक बुद्धिवाद की कसौटी पर अपने ही (भारतीय )सांस्कृतिक चित्त का साक्षात्कार और पुनर्परीक्षण है .रूचि और स्वभावजन्य निर्नाय्शीलाता का संघर्ष कुबेरनाथ राय के साहित्य में साफ-साफ देखा जा सकता है .जैसे वे जानना चाहते हों कि कितना और क्यों बदलना है और यदि नहीं बदलना है तो क्यों ? श्री कुबेरनाथ राय इस न बदलने को भी समझना चाहते हैं .इसे संरक्षनीय अतीत की समझदारी की सृजनात्मक चिंता एवं प्रयास के रूप में भी देखा जा सकता है .लेकिन यह अपने अधिकांश में अस्मितापरक ही है .अपने विश्लेषण में यद्यपि डॉ ० पी.एन.सिंह यथार्थ के व्यावहारिक धरातल पर कोई स्पष्ट सार्थक भूमिका नहीं देखते ,फिर भी उनकी बहुत सी स्थापनाओं की सराहना करते हैं .
डॉ ० पी.एन.सिंह रस आखेटक में व्यक्त श्री कुबेरनाथ राय के इस आकलन को सराहना के साथ उद्धृत करते हैं कि "ज्ञान,वैराग्य ,सत्य -अहिंसा ,खरा शुद्ध व्यक्तिगत स्तर पर भले ही पुण्य हो सामूहिक स्तर पर सौ में से पचास से ज्यादा स्थितियों में हलाहल पाप है -इस ऐतिहासिक महासत्य को समझाने की शक्ति भारतीय मेधा में नहीं रही ...इसके लिए न तो प्रकृति दोषी है और न इतिहास दोषी है .दोषी है अपनी जातीय प्रज्ञा या मेधा जिसमें सतोगुणी चिन्तन रिपु की तरह बैठा है और निरंतर घात लगाए है ."(पृ० ५१ )इस सन्दर्भ में अंग्रेज चिन्तक अल्दास हक्सली के द्वारा भारतीयों की की गयी आलोचना को अधिक उपयोगी पते हैं कि'भारतीयों के लिए धर्मं विलास है और इन्हें इहलौकिक बनाने के लिएअनीश्वरता का पाठ पढ़ाना होगा .'
अपने लम्बे आलेख में डॉ ० पी.एन.सिंह नें श्री कुबेरनाथ राय के निबंधों में व्यक्त साहित्य और अस्तित्ववाद सम्बन्धी विचारों को इसी उप शीर्षक के अंतर्गत व्यक्त किया है .श्री कुबेरनाथ राय मार्क्सवाद की तरह ही नास्तिक अस्तित्ववाद भी पसंद नहीं करते .क्योंकि ऐसी अनास्था अकेलेपन की सृष्टि करती है ,इसीलिए उन्हें कीकेगार्द का आस्तिक (ईसाई ) अस्तित्ववाद पसंद है ,(पृष्ठ ५३ ) डॉ० पी.एन.सिंह सार्त्र की सामूहिकता पर बल देने वाली अस्तित्ववादी स्थापनाओं को सकारात्मक मानते हैं जो श्री राय को पसंद नहीं हैं .आधुनिक साहित्य के प्रति कुबेरनाथ राय के नजरिए को व्यापक छानबीन के बाद पुराने संस्कार वाला घोषित करते हैं .(पृष्ठ ५७ ) डॉ ० पी.एन.सिंह के अनुसार "श्री कुबेरनाथ राय आधुनिकता एवं आधुनिक नवलेखन,मार्क्सवादी चिन्तन-पद्धति एवं व्यव्हार,अस्तित्ववादी जीवन-दृष्टि,आधुनिक इतिहास-बोध,सामाजिक निर्माण की सेक्युलर अवधारणा इत्यादि के विरुद्ध आक्रोशयुक्त एवं इकहरी टिप्पणियां करते हैं और विकल्प में अपने 'सनातनी ' जीवनबोध और उसके 'प्रमुल्यों ' को उछलते रहते हैं .(पृष्ठ ५८ ) 'उनकी पंडिताऊ दुरुहता और जिद्दी पारम्परिकता के बावजूद,उनका लेखन बहु आयामी ,अंतर्दृष्टि सम्पन्न एवं आकर्षक है ,और ये ही उनके लेखक व्यक्तित्व के स्थाई आधार हैं '.(वाही )उनके साहित्य का महत्वपूर्ण आयाम उनके चिन्तन की विराटता और उनका मूल्यगत आग्रह है .मानों वे हर क्षण राष्ट्र एवं विश्व की त्रासद नियति से रूबरू हों ,उससे टकरा रहे हों .(वाही ,पृष्ठ ५८ )
डॉ ०सिन्घ के अनुसार मार्क्सवादी शब्दावली से बचाते हुए भी श्री राय की कुछ स्थापनाओं में विरोध नहीं है .जैसे 'उनका यह रेखांकन कियोरोपीय व्यक्तिवाद ,अतिमानव न पैदा कर अतिदानाव एवं चीटी मानव पैदा कर रहा है ,सही है .(पृष्ठ ५९ ) डॉ सिंह श्री राय की असाधारण प्रभावशीलता का रहस्य उनके पैगम्बरी तेवर में मानते हैं .निःसंग आत्मविश्वास के बिना अति मान्यताओं का पुनर्मूल्यांकन भी संभव नहीं है .डॉ पी.एन.सिंह का यह रेखांकन भी एक महत्वपूर्ण आलोचकीय उपलब्धि ही कही जाएगी .उनके अनुसार-'अतिरिक्त भावाकुलता ,भाषिक अतिरिक्तता और वैयक्तिक चिंता को वैश्विक चिंता के रूप में देखनें-दिखानें का अंदाज आदि -साहित्य -यज्ञ की समिधाएँ हैं ,जो जो श्री राय के लेखन में प्रचुर मात्र में उपलब्ध हैं .( पृष्ठ ६१ )
डॉ कुबेरनाथ राय के मनुस्मृति विरोध को पी.एन.सिंह एक सकारात्मक और स्वस्थ पक्ष मानते हैं -'विश्व की सारी समस्याएँ तो हमारे पास हैं ही ,हमारी एक अतिरिक्त समस्या भी है और वह है मनुस्मृति द्वारा संस्कारित हमारा संकीर्ण समाज-बोध ,हमारी वर्णवादी व्यवस्था ,जिसने समाज को इस प्रकार बाँट दिया है की प्रेम असंभव हो गया है .(पृष्ठ६२ )
डॉ ० पी.एन.सिंह श्री कुबेरनाथ राय के भारत सम्बन्धी चिन्तन और आधुनिकता -बोध के समन्वयवादी दृष्टिकोण को सर्वकालिक या शाश्वत समाधान के रूप में प्रस्तुत करना सही नहीं मानते हैं .वे सेक्युलरिज्म को व्यवहृत मानवतावाद कहते हैं और यह भी रेखांकित करते हैं कि इस्लाम और ईसाई मत अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ताकतवर अस्मिताएँ हैं ,सनातनी संस्कृति का हिन्दू संस्करण बिना स्वयं र्पंतरित हुए अपनी शर्तों पर इसे आत्मसात नहीं कर सकता .(पृष्ठ६४ )
इन सीमाओं के बावजूद कुबेरनाथ राय का सकारात्मक पक्ष 'व्यवहृत मार्क्सवाद के प्रति अपनी गहरी असहमतियों के बावजूद श्री राय का मार्क्सवाद की मूल दृष्टि(विजन )और उसकी सात्विक चेतना का प्रशंसक होना है .श्री राय के साहित्यिक-सांस्कृतिक चिन्तन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं अंतर्द्रिश्तिसम्पन्न आयाम भारतीय एवं यूरोपीय सांस्कृतिक चेतनता की अपनी-अपनी विशिष्टताओं का सही रेखांकन है .(पृष्ठ ६६ ) श्री राय वैदिक आर्यों के जीवन-बोध को इहलोक और लोकोत्तर दोनों की सामान प्रतिष्ठा के कारण स्वस्थ मानते हैं .डॉ ० सिंह उनमें सनातनी प्रतीकों की अभिरुचिवादी व्याख्या की पक्षपाती प्रवृत्ति के दर्शन करते हैं .(पृष्ठ ६७ ) इस स्वीकार के साथ कि'इससे उनकी अंतर्दृष्टि संपन्न टिप्पणियों एवं प्रेक्षणों की महिमा नहीं घटती .वे दृष्टि देते हैं,परिप्रेक्ष्य सुझाते हैं और उनका लेखन विचारों की खान है ,जिनके सहारे अनचाहे भी पाठक को बहुत कुछ सुझाने लगता है .'(पृष्ठ६८ )
डॉ ० पी.एन.सिंह के आलेख के अंतिम लगभग १६ पृष्ठ कुबेरनाथ राय के 'भारतीय और यूरोपीय साहित्यिक मूल्य' उपशीर्षक से इन्ही समस्याओं से सम्बंधित कुबेरनाथ राय के विचारों पर केन्द्रित है . यह अंश हिंदी पाठकों के ज्ञानवर्धन की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है .श्री कुबेरनाथ राय की दृष्टि में 'यूरोपीय साहित्य का सनातन स्तर होमर का ही स्वर है ,जिसके चार आयाम हैं -यथार्थवाद,विडम्बना ,ट्रेजेडी और साहसिकता ; और इसमें होमर के करीब दो हजार वर्ष बाद ,मध्य-युगों में पांचवां आयाम अर्थात् ईसाई भावाकुलता जुडी .जबकि भारतीय मनीषा का स्वभाव इसके ठीक प्रतिकूल है .(पृष्ठ ६८ ) इस अंश को डॉ ० पी,एन .सिंह नें कुबेरनाथ राय के प्रेक्षणों और उद्धरणों के सहारे तथा अपने विस्तृत अध्ययन के बल पर और समृद्ध किया है .इस अंश को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि एक ही विषय पर दो उच्च स्तरीय अधिकारी विद्वानों का युगल विमर्श पढ़ रहे हों.डॉ ०पी.एन.सिंह नें इलिएद के विस्तृत अध्ययन और स्मृतियों का पाठकों से साझा किया है .वे इलिएद केन्द्रीय रस वीर और क्रोध की चर्चा करते हैं .उसके कई प्रसंगों को दृष्टान्त में प्रस्तुत करते हैं .ट्रेजेडी को लेकर महाभारत की ट्रेजेडी की तुलना करते हैं .महाभारत में 'मानवीय सीमाओं(क्रोध,प्रतिशोध ,छल-कपट ,क्रूरता इत्यादि )और मानवीय संभावनाओं(धर्म -शासित अर्थ एवं काम और अंततः मोक्ष ) की खुली अभिव्यक्ति के रूप में देखते हैं .इनमें मानवीय यथार्थ की भूमिका अधिक प्रभावपूर्ण होती है .इसी तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य में सीता और सावित्री जैसी सात्विक गृहस्थ नारियों की होमारीयआदिम परिवेश तथा वैराग्य प्रधान इसाई दृष्टि में कल्पना भी संभव न होने के साथ कमोत्तर स्त्री-पुरुष रिश्तों वाले सीता-राम,शिव-पार्वती जैसी शील्नाद्धा सौन्दर्य की अभिव्यक्तियाँ भी शामिल हैं जो एकांगी न होकर जीवन के वृहत्तर सन्दर्भों में कल्पित एवं रूपायित हैं .(पृष्ठ७२-७३ )
डॉ ० सिंह के अनुसार श्री राय का साहित्यिक विवेक प्रभावशाली होने के बावजूद बहुत उपयोगी नहीं है .वह समकालीनता से असंतुष्ट है और उसकी अवहेलना करता है .वह अपने मानकों और आदर्शों की खोज में प्रायः अतीत गामी है .उनके अनुसार 'श्री राय के साहित्यिक मानक-विस्तार गहरे,उदात्तता और रोचकता आधुनिक साहित्य के मूल्य नहीं हैं .'इसी करण वे बार -बार राम-कथा और गांधी की तरफ लौटते हैं .'(पृष्ठ ७५ ) कुबेरनाथ राय पुरोहितवादी चिन्तन और 'यजमानी 'व्यवस्था को भारतीय समाज का दुर्भाग्य बताते हैं .कला और संस्कृति के सजीव अंश के खोजी हैं .(पृष्ठ ७६ ) इस तरह वे प्रगतिशील पारम्परिकता के एक विद्वान् एवं निष्ठावान पुरस्कर्ता हैनौर इसी रूप में वे एक अत्यंत महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं .
श्री कुबेरनाथ राय नें अपने लेखन में भारतीय साहित्य की विशेषताओं को बहुविध चिन्हित करने का प्रयास किया है .जैसे वे तथागत के 'श्रामण्य सुख को साहित्यिक सुखके रूप में देखते हैं और इनसे प्राप्त सुख जैसे-प्रीती सुख ,मैत्री सुखा ,अभय सुखा,प्रज्ञा सुखा और प्रशांति सुख आदि को वे मानसिक ऋद्धियाँ बतलाते हैं .कुबेरनाथ राय मानते हैं की प्रासंगिकता का एक सर्वकालिकआयाम भी होता है .डॉ ० सिंह इसको कई दृष्टान्तों के आधार पर सही ठहराते हैं.(पृष्ठ ८० ) उनके अनुसार 'श्री कुबेरनाथ राय नें साहित्य को जिस गंभीरता से लिया,उस गंभीरता से शायद ही किसी नें लिया हो .वे इसे इतिहास का पहरुआ बताते हैं .पी.एन.सिंह यह स्वीकार करते हैं कि इतिहास में निहित श्रेष्ठ संभावनाओं की परख एवं अभिव्यक्ति ही साहित्य को श्रेष्ठता प्रदान करती है .इसी रूप में साहित्य इतिहास का पहरुआ है ,उसकी विवेक-भ्रष्टता के विरुद्ध चेतावनी है '.कुबेरनाथ राय विराट राष्ट्रीय चिंता के निबन्धकार है .उनके इतिहास-बोध को लेकर प्रश्न उठाते हैं ,लेकिन उनका संस्कृति बोध और साहित्य -बोध असंदिग्ध रूप से श्रेष्ठ है .'(पृष्ठ ८१-८२ )
डॉ ० पी.एन.सिंह के अनुसार अगर लालित्य द्विवेद्वी जी के निबंधों को परिभाषित करता है तो दायित्व -बोध से कुबेरनाथ राय के निबंध परिभाषित होते हैं ,यद्यपि न द्विवेद्वी जी दायित्व-बोध से मुक्त है और न श्री राय लालित्य से ."(पृष्ठ ८३ )"आधुनिकता -बोध और आधुनिक लेखन के प्रति उनके घोषित अनादर के बावजूद ,उनमें बहुत कुछ है जो गम्भीर मीमांसा की अपेक्षा रखता है . "पृष्ठ ९५ )
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